सुषमा-माताजी! इस संसार में अपने हितैषी सच्चे बांधव कौन हैं?
आर्यिका–सुषमा! जो अपने को आत्महित के मार्ग में प्रेरित करेें, वे ही अपने सच्चे बांधव हैं। देखो, श्री रविषेणाचार्य ने यही बात स्पष्ट कही है- ‘‘इस जगत में संसारी जीवों का वैसा हित न माता करती है न पिता, न बंधुवर्ग न मित्रगण ही, कि जैसा हित गुरुजन करते हैं मोक्षमार्ग में लगाकर। इसलिए इस स्वार्थमय संसार में सच्चे बांधव गुरु ही हैं। उदाहरण देखो- विद्याधर राजा महाबल की जन्मगाँठ थी, अनेक उत्सवों के अनन्तर मंत्रीगण राजा के सामने मनोरंजन हेतु धर्मचर्चा कर रहे हैं। महामति, संभिन्नमति और शतमति इन तीनों मंत्रियों ने मिथ्यात्व का पोषण किया, तब स्वयंबुद्ध मंत्री ने इन तीनों के सिद्धान्तों का खण्डन करके जैनमत का समर्थन किया। किसी दिन महाबल ने स्वप्न में देखा कि ‘‘तीनों मंत्रियों ने मुझे कीचड़ में गिरा दिया है तथा स्वयंबुद्ध मंत्री ने सिंहासन पर बिठाकर अभिषेक किया है।’’ दूसरे स्वप्न में देखा कि ‘‘अग्नि की ज्वाला क्षीण हो रही है।’’ स्वप्न के बाद वे स्वयंबुद्ध मंत्री की प्रतीक्षा कर ही रहे थे। स्वयंबुद्ध मंत्री ने अवधिज्ञानी मुनि से सारा वृत्तान्त समझकर आकर उसका फल बताया और उन्हें पुन: सच्चे धर्म का उपदेश दिया तथा कहा कि अब तुम्हारी आयु एक मास की शेष है। मंत्री के उपदेश से राजा ने धर्मानुष्ठान करके सल्लेखना ले ली, फलस्वरूप मरण कर ऐशान स्वर्ग में देव हो गये। वहाँ से आकर राजा वङ्काजंघ होकर आहारदान के प्रभाव से उत्तम भोगभूमि में आर्य हो गये। एक समय भोगभूमि में युगलदम्पत्ति बैठे थे कि आकाशमार्ग से युगल मुनि उतरे। इस दम्पत्ति ने स्वागत कर नमस्कार किया पुन: पूछा- ‘‘भगवन्! आप कहाँ से आये हैं? मेरे हृदय में आपके प्रति अपनत्व का भाव उमड़ रहा है।’’ मुनि ने कहा- ‘‘आर्य! तुम्हारी महाबल की पर्याय में मैं तुम्हारा स्वयंबुद्ध मंत्री था। अब मैंने विदेह में प्रीतिंकर राजपुत्र होकर दीक्षा ले ली है। मुझे अवधिज्ञान व चारणऋद्धि प्राप्त हो गई है यह मुनि मेरा छोटा भाई है। चूँकि आप पर मेरा उस समय भी अधिक स्नेह था, अत: इस समय उसी स्नेह से खिंचकर मैं तुम्हें सम्बोधन करने यहाँ आया हूँ। हे भव्य! निर्मल सम्यक्त्व के बिना तुम केवल आहारदान के प्रभाव से यहाँ उत्पन्न हुए हो, सो मैं तुम्हें सम्यक्त्वरूपी अमूल्य निधि देने के लिए यहाँ आया हूँ। अनन्तर श्रीमती के
‘‘हे मात:! सम्यग्दर्शन के बिना यह स्त्री पर्याय प्राप्त होती है अत: तू भी सम्यक्त्व को ग्रहण करके स्त्री पर्याय से छूटकर सप्त परमस्थानों को प्राप्त कर।’’ पति-पत्नी दोनों ने गुरु से सम्यक्त्व ग्रहण कर धर्मोपदेश सुना। उन दोनों को ही दोनों मुनिराजों ने बार-बार धर्मप्रेम से स्पर्श किया और मस्तक पर हाथ रखकर अनन्तर आशीर्वाद देकर चले गये। ये दोनों प्राणी वहाँ की आयु पूर्णकर सम्यक्त्व के बल से दूसरे स्वर्ग में देव हो गये। महाबल का जीव जो देव हुआ था, उसका नाम श्रीधर था। एक समय प्रीतिंकर मुनि को केवलज्ञान हुआ जानकर अतीव श्रद्धा से श्रीधर ने आकर उनकी पूजा की। चूँकि इन्हीं ने महाबल की पर्याय में इसे धर्म ग्रहण कराया था, पुन: ये ही भोगभूमि में सम्यक्त्वरत्न देकर आये थे। पुन: श्रीधरदेव ने पूछा- ‘‘भगवन्! महाबल अवस्था के मेरे तीनों मंत्री इस समय कहाँ हैं?’’ केवली ने कहा- ‘‘भद्र! महामति और संभिन्नमति ये दो तो मिथ्यात्व के महापाप से निगोद में चले गये हैं, जहाँ पर हम या आप कोई भी सम्बोधित नहीं कर सकते तथा शतमति मंत्री मरकर द्वितीय नरक चला गया है। तब वह देव द्वितीय नरक भूमि में जाकर उसे सम्बोधित कर सम्यक्त्व ग्रहण कराकर मिथ्यात्व की बार-बार निन्दा करता हुआ अपने स्थान चला जाता है। यही ‘‘श्रीधरदेव’’ आगे चलकर ‘‘ऋषभदेव तीर्थंकर’’ हुआ है। सुषमा-जब कोई रुचि से गुरु की शिक्षा ग्रहण करे तो ठीक है अन्यथा साधुओं को जबरदस्ती नहीं करना चाहिए। आर्यिका-सर्वथा ऐसी बात नहीं है। यदि कोई स्वरुचि से भी विष खाता है तो भी वह मरेगा ही और यदि कोई किसी के विशेष आग्रह से स्वरुचि न होते हुए भी मिश्री खाता है तो मीठी लगेगी ही अथवा जबरदस्ती भी किसी के द्वारा दवाई पिलाई जाती है, तो भी वह स्वास्थ्य लाभ ही करती है न कि हानि, उसी तरह जबरदस्ती से भी यदि कोई गुरु धर्म ग्रहण कराते हैं, तो भी वे सच्चे बाँधव ही हैं।
वारिषेणमुनि ने अपने मित्र पुष्पडाल को जबरदस्ती बिना रुचि के दीक्षा दिला दी, आखिर बारह वर्ष बाद वह सच्चा मुनि बन ही गया। ऐसे ही भावदेव मुनि ने अपने छोटे भाई भवदेव को जबरदस्ती दीक्षा दिलाई। वह भी कालान्तर में भावलिंगी मुनि बन गया अनन्तर वही जम्बूस्वामी होकर मोक्ष चला गया है। जीवन्धर के गुरु आर्यनन्दी ने जीवन्धर को जबरदस्ती करके बल्कि गुरु दक्षिणा रूप में वचन लेकर के ‘‘एक वर्ष के लिए युद्ध से उसे रोक दिया।’’ जीवन्धर ने आर्यिका वेष में अपनी माता विजया और सुनन्दा के चरण पकड़कर हठ किया कि ‘‘आप यहीं राजपुरी में ही विहार करें, अन्यत्र न जावें’’ यह वचन देवें, जब माताओं ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया, तब जीवन्धर ने चरण छोड़े। इस प्रकार से गुरु तो शिष्य के हित के लिए जबरदस्ती करते ही हैं, कभी-कभी शिष्य भी अपने हित के लिए गुरु से जबरदस्ती कर उनसे लाभ ले लेते हैं। सुषमा-यदि साधु घर से मोह छोड़कर शिष्यों के मोह में फस गये, तो वे निर्मोही कहाँ रहे? आर्यिका-मोह, प्रेम, स्नेह और वात्सल्य, इनमें बहुत बड़ा अन्तर है। जो कुटुम्ब, स्त्री, घर, धन, परिजनसम्बन्धी मोह है वह सर्वथा हानिप्रद ही है। जैसे-माता सहदेवी पति और पुत्र सुकौशल के दीक्षा ले लेने पर उन्हीं के मोह में रो-रोकर आर्तध्यान से मरी और व्याघ्री हो गई पुन: उन्हीं पति-पुत्रों को भक्षण करने दौड़ी। जिनदत्त सेठ जी मरते समय पत्नी के मोह से युक्त थे, मरकर घर की बावड़ी में मेंढक हो गये। इसका नाम है मोह और व्यवहार में प्राय: प्रेम शब्द का प्रयोग वासनाजनित अनुराग में होता है, जो कि पति-पत्नी के रूप में देखा जाता है।
किन्तु जो मुनियों का धर्मप्रेम चतुर्विध संघ पर या किसी भव्य विशेष पर होता है, वह कहलाता है वात्सल्य। जैसे गाय अपने बछड़े पर सहज अकृत्रिम स्नेह रखती है, वैसे ही धर्मात्मा का धर्मात्मा के प्रति सहज अकृत्रिम स्नेह ‘वात्सल्य’ इस पवित्र नाम से जाना जाता है। गुरु का विशेष वात्सल्य शिष्य को मिले यह उसके अनेक पूर्वभवों में संचित किये हुए पुण्य का ही उदय समझना चाहिए। प्रीतिंकर गुरु का वात्सल्य भोग- भूमिज वङ्काजंघ जीव को प्राप्त हुआ, उन्हें सम्यक्त्व मिला कालान्तर में वे तीर्थंकर बन गये। भद्रबाहु गुरु का स्नेह सम्राट् चन्द्रगुप्त को मिला, वे महामुनि बन गये। एक समय सहस्ररश्मि को रावण द्वारा बाँधा गया सुनकर चारण ऋद्धिधारी शतबाहु मुनि रावण के दरबार में पहुँचे और बोले- ‘‘रावण! तुम मेरे पुत्र को छोड़ दो।’’ रावण के द्वारा छोड़े गये पुत्र सहस्ररश्मि ने अपने पिता महामुनि के साथ ही जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इस तरह गुरुओं का किसी भी भक्त या अपने पुत्रादि के प्रति भी जो धर्मस्नेहपूर्ण वात्सल्य है, वह उस जीव के हित के लिए ही होने से मुनियों के लिए भी दोषास्पद नहीं है प्रत्युत् सरागी मुनि की यह चर्या ही है। जैसाकि श्री कुन्दकुन्द देव ने कहा है-
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणां जिणिंदपूजोवदेसो य:।।
दर्शन-ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का संग्रह और उनका पोषण तथा जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश, ये सब सरागी छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों की चर्या है। यह निंद्य नहीं है। श्री गुणभद्रसूरि कहते हैं- तप-श्रुत आदि धर्मसंबंधी जो राग है, वह प्रात: काल की लालिमा के समान है। जैसे प्रात: की लालिमा सूर्य के उदय को लाती है, वैसे ही धर्मनिमित्तक राग जीवों के मोक्ष प्राप्ति के लिए कारण है और गृहस्थ परिवारसंबंधी राग सायंकाल की लालिमा के समान है-जैसे वह लाली अंधकार को लाती है ऐसे ही शरीर आदि संंबंधी राग भी दुर्गति को प्राप्त कराने वाला है।’’ इसलिए साधुओं का उपकार की भावना से भक्तों के प्रति किया गया वात्सल्य गुणकारी ही है। यही कारण है कि कदाचित् साधुजन श्रावकों के प्रति परम करुणार्थ तथा व्यथितमना हो जाते हैं। जैसे कि- रामचन्द्र ने लक्ष्मण के दाह संस्कार के बाद अर्हद्दास सेठ को देखते ही पूछा- ‘‘भद्र! मुनिसंघ की कुशल तो है?’’
‘‘हे रामचन्द्र! आपकी व्यथा से इस पृथ्वीतल पर महासाधु भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं, अब आपके लिए ही स्वयं ‘‘सुव्रत’’ महामुनि यहाँ पधारे हैं।’’ ऐसा सुनकर रामचन्द्र के हर्षाश्रु आ गये। सुषमा-मैंने एक पुस्तक में पढ़ा था कि जब जिस व्यक्ति की कुछ भी त्याग के लिए अन्तरंग से प्रेरणा उठे, सहज भावना बने, तभी त्याग करना चाहिए अन्यथा किसी की प्रेरणा से या दबाव से किया गया त्याग व्यर्थ ही है? आर्यिका-तीर्थंकरों ने और उनके अनुयायी जैनाचार्यों ने ऐसा कदापि नहीं कहा है। भाई! यह सिद्धान्त तो वामपंथ है। आज जो अपने को भगवान कहने वाले, कोई स्व-पर वंचक पुरुष ऐसा प्रतिपादन कर रहे हैं, सो सर्वथा ही गलत है। अनादिकाल से इस जीव के संस्कार मिथ्यात्व और विषय कषायों की वासना से वासित ही हो रहे हैं अत: प्राय: करके अन्तरंग की प्रेरणा इन कार्यों के लिए ही हुआ करती है। जैसे जल का स्वभाव नीचे बहने का ही है, प्रयोग से उसे (यंत्रों द्वारा) ऊपर पहुँचाया जाता है, वैसे ही मन का स्वभाव भी प्राय: विषय-कषाय अथवा दुव्र्यसनों की ओर ही दौड़ने का है। प्रयोग से-गुरुओं की प्रेरणा से अथवा उनके द्वारा कराये गये आग्रहपूर्वक नियम आदि के निमित्त से ही यह मन शुभ कार्यों में-आत्महित में प्रवृत्त हो पाता है।
छोटा बालक स्वभावत: अग्नि की लौ को पकड़ने के लिए या सर्प को पकड़ने के लिए दौड़ता है, कदाचित् गन्दी वस्तु भी मुँह में डालने लगता है, तो माता उसे रोकती है, पकड़ लेती है यहाँ तक कि वह रोने लगता है, मचल जाता है तो भी माँ उसे उन अनर्थों से बचाती ही है, बालक के रोने-धोने की परवाह नहीं करती है, वैसे ही गुरुजन संसारी, मोही, अज्ञानी, विषयों में फसे हुए आत्महित से पराङ्मुख ऐसे जीवों को बार-बार हित का उपदेश देते हैं, पाप के फलों को सुनाकर उसे विरक्त कराना चाहते हैं, कदाचित् आग्रहपूर्वक भी नियम-व्रत आदि देकर महान् उपकार करते ही हैं। उनके उदाहरण भावदेव, वारिषेण आदि के ऊपर दिये जा चुके हैं। आज भी चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर, वीरसागर, आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी आदि ने जिन श्रावकों को जबरदस्ती भी शुद्ध खानपान का नियम दिया है, चमड़े की मशक का पानी पीना छुड़ाया है, बारह व्रत आदि दिये हैं, रात्रि भोजन का त्याग कराया है, या दीक्षा दी है, वे श्रावक-मुनि-आर्यिका आदि बार-बार उनके उपकार को स्मरण करते हुए, उनके गुणानुवाद करते हुए देखे जाते हैं तथा वे गुरु के प्रसाद से ही अपने जीवन को पवित्र बनाकर मोक्षमार्गी बन गये हैं। वास्तव में बलपूर्वक हाथ पकड़कर मोक्षमार्ग में लगाने वाले ऐसे गुरु ही सच्चे माता-पिता हैं, बंधु हैं, मित्र हैं। श्री वादीभसूरि ने कहा भी है-
‘‘गर्भाधान-क्रियान्यूनौ पितरौ हि गुरुर्नृणाम्’’
गुरु मनुष्यों के लिए गर्भाधान क्रिया से रहित माता-पिता ही हैं। यही कारण है कि गुरु अकारण बंधु होने से सच्चे बांधव भी कहलाते हैं। गुरु गोवद्र्धनाचार्य ने गोली खेलते हुए बालकों में देखा कि एक छोटा सा बालक एक पर एक ऐसे १४ गोली चढ़ा गया है, उसे भावी श्रुतकेवली समझकर उसके माता-पिता की अनुमति लेकर उसे अपने साथ ले गये, विद्याध्ययन कराकर योग्य बना दिया। यह बालक ही अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए हैं। ऐसे आदिपुराण के कर्ता जिनसेन भी लघुवय में गुरु के पास रहकर पढ़े हैं जबकि इनका कर्णवेधन संस्कार भी नहीं हुआ था। मैनासुन्दरी आदि कई एक सतियों ने भी आर्यिकाओं के पास रहकर पढ़ा है। इन गुरुओं ने छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं को माता के सदृश ममता दी थी, पिता के सदृश उनका संरक्षण किया था और मोक्षमार्ग का उपदेश देकर सच्चे गुरु कहलाए थे अत: आज भी जो गुरु शिष्यों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर उसमें प्रेरित करते हैं, पास में रहने वाले शिष्यों का पोषण-संरक्षण करते हैं, वे ‘‘स्वयं तरन् तारयितुं क्षम: परान्’’ वाक्य के अनुसार स्वयं भी संसार-समुद्र से पार होने वाले हैं और दूसरों को भी पार करने में समर्थ हैं अत: वे सच्चे गुरु हैं, सच्चे बांधव हैं। सुषमा-माताजी! आपकी बात मेरी समझ में आ गई है अत: अब मैं भी गुरुओं के दर्शन करके उनसे प्रेरणा प्राप्त करके अपनी आत्मा का हित करूँगी।