मैं कितनी बार समझा चुकी हूँ तू कम बोला कर, पर तुझे मेरी बात समझ में नहीं आती’ एक माँ अपनी नन्ही सी बिटियाँ को डाँट रही थी। देख ‘मैं’ फिर से तुझे कह रही हूँ ज्यादा मत बोला कर। ‘मैं’ ज्यादा बोलती हूँ ? अपनी बाल सुलभ नन्ही—नन्ही आँखों में जिज्ञासा उड़ेलती हुई बड़ी— बड़ी पलके और सिर मटकाती हुई बिटियाँ ने माँ से पूछा। ‘तुझे क्या लगता है मैं झूठ बोल रही हूँ’ माँ ने उसे डपटते हुए कहा। मेरा ध्यान माँ—बेटी के वार्तालाप ने अपनी ओर आकृष्ट किया। मेरा मस्तिष्क कुछ सोचने लगा, उसमें दो विचार कौंधें। पहला— सुबह से सध्या तक इन्सान (अपुनरुक्त) कितने शब्द बोलता है और कितने शब्दों के बीच सारा जीवन गुजार देता है। दूसरा— प्रतिदिन के जीवन व्यवहार में हम जितने शब्दों का प्रयोग करते हैं उनमें वह कौन सा शब्द है। जिसका हम अधिक से अधिक प्रयोग करते हैं ? दोनों विचार मस्तिष्क मथ रहे थें, निष्कर्ष निकला इंसान १००—१५० शब्दों के आसपास प्रतिदिन शब्द व्यवहार करता है और कुछेक शब्दों को जोड़कर पूरा जीवन बिता देता है। दूसरा वह शब्द है ‘मैं’ जिसका हम प्रतिदिन अधिक से अधिक उपयोग करते हैं। चाहे तो आप स्वयं इसका आकलन कर कसते हैं। अब प्रश्न उठता है क्यों हम इस ‘मैं’ शब्द का अधिकाधिक प्रयोग करते हैं? इस ‘मैं’ का वाच्यार्थ क्या है ? पहली बात तो समझ में आती है कि ‘मैं’ का अधिक प्रयोग उसकी अहंता/ अस्मिता/ रुतवा/ कर्तृत्व बुद्धि और महत् भाव को प्रदर्शित करता है, किन्तु इस ‘मैं’ के वाच्यार्थ से इन्सान अनभिज्ञ सा है इसका अर्थ ही नहीं जानता। ‘मैं’ का अर्थ है ज्ञाता और उसके सारे विषय ज्ञेय हैं जिन्हें वह जानता देखता है, ग्रहण करता है और स्वामित्व को प्रदर्शित करता है। विज्ञान ने ज्ञेय को व्यवस्थित रुपेण व्याख्या भाष्य और निर्युक्ति के साथ निदर्शित करने की पुरजोर कोशिश की है और कर रहा है। छोटे से छोटे एटम को तोड़कर मोलिक्यूल तक सूक्ष्मता से जानने का प्रयत्न जारी है किन्तु इन ज्ञेयों के ज्ञाता को जानने में वह असर्मथ रहा है और वर्तमान में भी है। जो विज्ञान की पकड़ से परे है अध्यात्म ने उसी पर कन्संट्रेट किया है। शब्द शास्त्र का वही प्रमुख केन्द्र है यदि ‘मैं’ / ज्ञाता नहीं है तो भाषा क्या बनेगी, उसका व्यवहार कैसे सम्भव होगा? और श्रेय क्या अर्थ देंगे ? ‘मैं’ ऐसा धरातल है जिस पर सबकुछ खड़ा है। भाषा की इमारत इसी नींव पर खड़ी है। यदि ‘मैं’ नहीं है तो सारे अस्तित्व खतरे में हैं अथवा इसे ऐसा समझिए किसी बड़े प्रोग्राम में आप मौजूद हैं अच्छी खासी भीड़ है उसका चित्र आपके पास आया आपने देखा इसमें ‘मैं’ नहीं हूँ, मेरा चित्र नहीं है तो यह चित्र अब आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखेगा। ‘मैं’ बड़ा भ्रामक शब्द है यह अहं भी है और सोऽहं भी। ‘मैं’ हे अंहकार। यही अभिमान, सारी कषायों की फसादों की जड़ है। कषाय की चतुर्विध धाराओं में प्रमुख धारा है ‘मैं’ अहं, अहंकार की। लोग चिंता करते हैं—‘ क्रोध बहुत आता है, कैसे नियंत्रण करूँ मैं कहती हूँ क्रोध पर नहीं, ‘मैं’ पर नियंत्रण करो। क्रोध स्वत: नियंत्रित हो जायेगा। क्रोध तो अहं की कोख से पैदा होता है। क्रोध तो उबलते ‘अहं’ की वाष्प है। अहं की अग्नि हटा दो क्रोध की वाष्प बनना खत्म हो जायेगी । अब प्रश्न उठता है अहं को कैसे नष्ट करें? अहं को, मैं को तोड़ने का, उसे नष्ट करने कर एक मात्र उपाय है विनय सम्पन्नता। पूज्य अथवा बड़ों के प्रति विनम्रता/मृदुता का भाव। विनम्रता आयेगी श्रद्धा से, भक्ति से,आस्था से इसलिए आप्त व पूज्य गुरूजनों के प्रति श्रद्धा अनिवार्य है यही श्रद्धा मोक्ष— निश्रेयस् सिद्धि का पहला कदम है जिसे उमा स्वामी ने ‘सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शन यानि श्रद्धा को मोक्ष मार्ग के उपायों में प्रथम स्थान दिया है। जब यह अहं श्रद्धा और विनय के मार्ग पर चल पड़ता है तभी इसी परिणति सोऽहं में होती है। इन्द्रभूति गौतम गौत्री ब्राह्मण श्रद्धा भक्ति और विनय का बेजोड़ उदाहरण बना जब वह परमाराध्य सर्वज्ञ महावीर की समवसरण सभागृह में पहुँचा। गौतम गौत्री इन्द्रभूति सामान्य ब्राह्मण नहीं था उस युग का सम्पूर्ण ज्ञान भण्डार उसके कण्ठ में स्थापित था। अग्निभूति और वायुभूति जैसे १५०० शिष्यों का गुरु था किन्तु श्रद्धा विनय के अभाव में अविद्या माता से उत्पन्न अहंकार से ग्रसित था। उसका ‘मैं’ गगन छू रहा था। अहं के उद्यान को सींचते —सींचते उसका सारा जीवन पाप पुष्पों से लद गया था। उससे उठती अहंकार की दुर्गन्ध ने पूरे विप्र मण्डल सहित को विषाक्त कर दिया था विप्रवेश धारी सौधर्मेन्द्र के प्रश्न का जवाब न दे सकने के कारण उसके फूलते अहंकार ने उसे महावीर के चरणों में पहुंचा दिया वीतराग मुद्रा के दर्शन मात्र से उसके अहं की फौलादी चट्टान फूट गई और उसके श्रद्धा—भक्ति का निर्झर फूट पड़ा। कठोरता मृदुता में परिणत हो गई। उसका अहं सोऽहं में रूपान्तरित हो गया। मैं/ अहं की, अहमन्यता की सारी दीवारें टूट गई। जाति व सम्प्रदाय के सारे बन्धन तार—तार हो गए। धर्म का मर्म पूर्णिमा के साथ उदित हो गया अहं के काले बादल चीर कर सरलता के निरभ्र—आकाश में मृदृता का सूर्य दमदमा उठा और इस दिव्यलोक में इन्द्रभूति को महावीर जैसा त्रेलोक्य वन्द्य तीर्थंकर जैसा गुरू मिला और इस अनाथ संसार को इन्द्रभूति गणधर सा गुरू मिल गया। मान्यवर ! यदि सुख—शांति, अमन—चैन का जीवन जीना चाहते हो तो सर्वप्रथम अपने ‘मैं’ को हम में बदलिए। यद्यपि ‘मैं’ और ‘हम’ उत्तम पुरूष का वाचक शब्द हैं तथापि ‘मैं’ उत्तम पुरूष एकवचन रूप में केवल अपनी सत्ता को दर्शाता है और हम शब्द बहुवचन वाचक होने से अपने अतिरिक्त दूसरों की सत्ता को भी स्वीकारता है इसलिए, हमें चाहिए कि अपनी ‘मैं’ की यात्रा को हम तक लाए, अहं से वयम् तक पहुंचे, यही क्रम हमें सोऽहं से मिलायेगा।