(प्रस्तुत स्तम्भ में समयसार के पाठों की उन भूलों की ओर ध्यानाकर्षित किया जा रहा है, जो कि आधुनिक सम्पदकों/प्रकाशकों की असावधानी अथवा मूलपाठ न देखने की प्रवृत्ति अथा मात्र प्रकाशरुचि से ‘मक्षिकास्थाने मक्षिकानिक्षेप:’ की वृत्ति से छपने के कारण ‘समयसार’ के कतिपय प्रकाशित संस्करणों में आ गयीं है। और जिनके कारण परमज्ञानी आचार्य कुन्दकुन्द के ‘समयसार’ की स्वरूपहानि हो रही है। उनका परिष्कार एवं आचार्य कुन्कुन्द के शुद्ध मूलपाठों का प्रस्तुतीकरण ही इस स्तम्भ का एकमात्र लक्ष्य है।) ‘समयसार’ की गाथा १९वी में एक शब्द आया है ‘अहकं’ जो कि भाषाविज्ञान एवं व्याकरणिक-दृष्टि से विशिष्ट प्रयोग है। किन्तु प्रतिलिपिकारों एवं सम्पादकों की भाषा-अनभिज्ञता एवं उपेक्षादृष्टि से ‘समयसार’ में इसका ‘अहयं’ पाठान्तर प्रचलित हो गया है। प्रथमत: मूलगाथा और उसके अर्थ का अवलोकन करें –
कस्मे णोकम्महि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।।१/९।।
अर्थ-जब तक इस आत्मा की द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं शरीरादि नोकर्म में ‘यह मैं हूँ’ तथा ‘मुझमें कर्म और नोकर्म हैं’ – ऐसी बुाद्ध रहती है; तब तक यह आत्मा अज्ञानी बना रहता है। उक्त अर्थ से स्पष्ट है कि ‘अहं’ एवं ‘अहकं’ – दोनों पद समानार्थक हैं; मात्र छन्दानुरोध से ‘अहं’ की वीप्सा (पुनरुक्ति) न करके उसी अर्थ में ‘अहकं’ इस पद का प्रयोग किया गया है। – यह तो इसके विशेष प्रयोग का औचित्य हुआ। अब इसका भाषिक एवं व्याकरणिक-दृष्टि से निर्धारण अपेक्षित है –
इसके अनुसार ‘अहम’ (‘अस्मद्’ शब्द) की ‘टि’ के पूर्व ‘अकच्’ प्र्यय का विधान होकर ‘अहकं’ शब्द निष्पन्न होता है, और इसके अर्थ में कोई भी अन्तर नहीं आता; अर्थात् ‘अहं’ शब्द के पर्यायवाची के रूप में इसका प्रयोग मिलता है। विख्यात भाषाविद् डॉ० उदयनरायण तिवारी अपनी पुस्तक ‘हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास’ (पृ. ८२) में स्पष्ट करते हैं कि प्राचीन मागधी एवं शैरसेनी प्राकृतों में ‘अहं’ का प्रतिरूप ‘अहकं’ हो गया था। ‘प्राकृत प्रकाश’ के कत्र्ता भी स्पष्टत: ‘अहकं’ को मागधी का रूप मानते हैं (द्रं. प्राकृत प्रकाश, परिशिष्ट, पृ. २४६)। सुविख्यात प्राकृतभाषाविद् डॉ० जगदीश चन्द्र जैन ने ‘अहकं’ प्रयोग को प्राकृतभाषा में अपेक्षाकृत प्राचीन प्रयोग माना है (द्र० ‘प्राकृत साहित्य का इतिहास’, पृ. ५१६)। सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी ‘अहकं’ के लिये जो हकं’ शब्द मिलता है, उसमें आदि अकार का लोप भले ही हुआ है, किन्तु अन्त्य ‘क’ वर्ण सुरक्षित रहा है। प्राकृतभाषा के विकासक्रम में हम पाते हैं कि ईसापूर्व के प्राकृत साहित्य में ‘अहकं’ एवं ‘हकं’ प्रयोग सुरक्षित रहे है; जबकि ईसा के बारें उद्भूत ‘महाराष्ट्री’ एवं ‘अर्धमागधी’ प्राकृतों के अस्तित्तव का कोई उललेख नहीं मिलता है। प्रतीत होता है कि परवर्ती काल में ‘सरलीकरण’ एवं ‘मुखसुख’ की प्रवृत्ति की प्रधानता के कारण इन प्राकृतों में ये रूप निर्मित हुये हैं। अब प्रश्न यह है कि ये रूप ईसापूर्व के ही नहीं हैं, तो ईसापूर्व में हुये आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में वे कैसे आ सकते हैं ? निश्चित ही पाण्डूलिपिायों में ये रूप प्रतिलिपिकारों के समय में प्रचलित प्रयोग (अहयं) का प्रभाव दर्शाते हैं। चूंकि आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्या की कोई भी मूलप्रति अथवा ईसापूर्व की प्राचीन प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं है, अन्यथा परवर्ती प्रतिलिपिकार का यह दोष स्वत: स्पष्ट हो जाता। किन्तु टीकाकारों ने ‘अहकं’ को ही मूलपाठ माना है, तथा अधिकांश प्राचीन पाण्डुलिपियों में भी ‘अहकं’ प्रयोग ही मिलता है; अत: इसके मूलपाठ होने में सन्देह का कोई कारण शेष नहीं रह जाता है। तथापि जो सम्पादक ‘समयसार’ में ‘अहयं’ पाठ का प्रयोग करते हैं, वे वस्तुत: प्राकृतभाषा की प्रकृति एवं उसकी परम्परा से अनभिज्ञ हैं, तथा शब्दों की विकासयात्रा का विधिवत् कोई अध्ययन उन्होंने नहीं किया है – ऐसा प्रतीत होता है; अन्यथा वे कुन्दकुन्द ‘समयसार’ में ‘अहयं’ को मूलपाठ बनाकर प्रस्तुत नहीं करते। हाँ ! इसे पाठान्तर बनाकर पादटिप्पण में देते, तो कोई आपत्ति नहीं थी। किन्तु उन्होंने उसे मूलपाठ बनाकर कुन्दकुन्द के मनलप्रयोग को तो बदला ही है, समस्त टीकाकारों एवं अधिसंख्य प्रतिलिपियों के पाठ को भी उपेक्षित किया है। किसी अन्य टिप्पणी से पूर्व मे। यहाँ समयसार के अद्याविध प्रकाशित प्रमुख संस्करणों के पाठ जिज्ञासु पाठकवृन्द के विचारार्थ प्रस्तु करना चाहता हूँ क्रम सं. प्रति परिचय पाठ पृष्ठ संख्या १. अहिंसा मन्दिर प्रकाशन अहकं ४७ २. कलकत्ता प्रकाशन अहकं ७२ ३. पं. गजाधर लाल जी की प्रति अहकं १५ ४. सहजानंद ग्रंथमाला, मेरठ अहकं ५८ ५. परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास अहकं ४७ ६. निजानंद ग्रंथमाला अहकं १९ ७. वर्णी ग्रंथमाला, वाराणसी अहकं ४२ ८. सोनगढ़ प्रकाशन अहकं ५१ ९. मराठह संस्करण, कारंजा अहकं ५५ १०. कन्नड़ संस्करण, बैंगलोर अहकं ५५ ११. भवनगर संस्करण अहकं ५२ १२. कुन्दकुन्द कहान ट्र्रस्ट अहकं ४९ १३. कन्नड़ ताडपत्रीय प्रति अहयं ३२ १४. राजबहादुर जे.एल.जैनी (अंग्रेजी) अहयं १६ १५. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन (अंग्रेजी) अहयं २८ इसमें जिन संस्करणों में जयसेनाचार्य की टीका दी गयी है, उनमें भी ‘अहकं’ पाठ टीका में भी मिलता है। टीका का मूलपाठ है – ‘‘अहकं च कस्म णोकम्मं-अहकं च कर्म नोटर्मेति प्रतीति:।’’ चूंकि अमृतचन्द्राचार्यकृत ‘आतमख्याति’ टीका पदव्याख्या शैली की टीका नहीं है, अत: उसमें प्रायश: मूलपाठ का उल्लेख नहीं मिल पाता है; किन्तु जयसेनाचार्यकृत ‘तात्पर्यवृत्ति’ टीका पदव्याख्या शैली की टीका होने से जयसेनाचार्य के समक्ष जो कुन्दकुन्दाचार्य के मूलपाठ थे, उन्होंने उन्हें अपनी टीका में उल्लेख करते हुये ही टीका की है। अत: कुन्दकुन्द के अधिकांश मूलपाठ शुद्ध रूप में ‘तात्पर्यवृत्ति’ टीका से देखे जा सकते हैं। तथा पाठ-समपादन का तो यह आदर्शवाक्य ही है कि ‘टीकाओं में मूलपाठ अपेक्षाकृत प्रमाणिक रूपों में सुरक्षित मिलते हैं।’ असके अतिरिक्त श्री सहजानंद वर्णी जी ने अपनी ‘सप्तदशांगी टीका’ में व्याकरण-विवरण भी यथासंभव प्रस्तुत किया है। उसी के पृ. ५९ पर ‘अहकं’ शब्द को कुन्दकुन्द का मूलपाठ मानते हुए ‘अस्मद्’ शब्द का प्रथम एकवचन का प्राकृतरुप बतलाया है। कन्नड़ ताड़पत्रीय प्रति में भी टीका में ‘अहकं’ के लिए ‘अहं’ शब्द का प्रयोग मिलने से इसकी पुष्टि हुई है। प्रस्तुत स्तम्भ में एक बात और मुझे विचारणीय लगी कि ‘अभी तक जिन संस्करणों में मूलपाठ प्रायश: अनेकविध रूपों में कभी शुद्ध, कभी अशुद्ध, तो कभी-कभी अति हास्यास्पद भी मिले; उनमें भी अधिकांश में ‘अहकं’ रूप यानि शुद्धपाठ ही मिला। किन्तु जिनकी प्रतिष्ठा मूलपाटों के प्रति अधिक जागरूक रहने की एवं अपेक्षाकृत प्रमाणिक पाठ मिलने की रही है, उनमें ‘अहयं’ पाठ मिला है। यथा कन्नड़ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि एवं भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण आदि।’ इस तथ्य से पाठ-सम्पादन का यह सिद्धान्त और अधिक पुष्ट हो जाता है कि ‘पाठ-सम्पादक’ को अपनी आँखे एवं दिमाग सदैव खुला रखना चाहिये; पूर्वधारणा के आधार पर किसी प्रतिष्ठित प्रति के पाठ को भी बिना जाँचे -परखे आँख बन्द कर स्वीकार करने की उपेक्षावृत्ति पाठ-समपादन की प्रामाणिकता को नष्ट कर सकती है। क्योंकि क्षणिक प्रमाद, स्खलन या लेखनदोष आदि किसी भी कारण से प्रतिष्ठित प्रतियों में भी गलत पाठ मिल सकते हैं। अत: पाठ-सम्पादन में निरन्तर सावधानी, सूक्ष्मदृष्टि परम्परा का ज्ञान एवं ऊहापोहपूर्वक निर्णय का अभ्यास अत्यन्त अनिवार्य अंग के रूप में सम्पादक पालन करे – ये प्रमाणिक सम्पादन के लिये अपरिहार्य शर्तें हैं। अत: ‘अहकं’ शब्द के प्रयोग के बारे में इतने विशद स्पष्टीकरण के बाद विज्ञजनों को तो सन्देह या भ्रम का अवकाश रह नहीं सकता: कि ‘अहकं’ ही शुद्धपाठ है, ‘अहयं’ नहीं । हाँ! जिन्हें इस विष का ज्ञान नहीं है, वे तो स्वयं भी भ्रमित रह सकते हैं और दूसरों को भी दिग्भ्रमित कर सकते हैं। कहा भी है –
’’कन्नड़ साहित्य के महाकवि रण्ण ने लिखा है कि ‘‘भाषाशास्त्र एवं उसके अर्थ का यथार्थग्रहण मणिधारी सर्प के मस्तक से मणि निकाले जैसा दुष्कर कार्य है। इस कार्य के लिये व्यक्ति को आठ हृदयों जितनी विशाल क्षमता का धनी होना (अर्थात् इतनी सहनशक्ति, विचारक्षमता, एवं गंभीरता का होना) अपेक्षित है।’’ यदि ऐसा नहीं होगा, तो फिर ‘पल’ (माूंस) और ‘फल’ में जरा-सा भी भेद होता है – इसकारण भगवान् को अध्र्य चढ़ाते समय यदि ‘फलम्’ क जगह ‘पलम्’ निर्ववामीति स्वाहा’’ उच्चारण किया जाये; तो कितना अनर्थ होगा – इसकी कल्पना की जा सकतर है। अत: लेखन, सयम्पादन, वाचन आदि बौद्धिक कार्यों में ‘असिधाराव्रत’ की तरह निरन्तर सावधानी एवं अभ्यास अपेक्षित है। भाषा, विषय एवं सम्पादन कला- इन तीनों का व्यवस्थित ज्ञान न होने से ही, अनेकों विसंगतियाँ खड़ी होती हैं। मैंने जब प्रथम सम्पादनकार्य के रूप में ‘अमृतशीति’ को चुना, तो सर्वप्रथम महीनों मूड़बिद्री रहकर योग्य विद्वानों के निर्देशन में कन्नड़ भाषा एवं लिपि का ज्ञान प्राप्त किया; फिर संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं के पूर्वज्ञान का प्रयोगकर पाण्डुलिपि संपादन की बारीकियां सीखीं। उसमें भी फिर ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के सम्पादन का वैशिष्टय सीखा। तब अन्य प्रतियों से तुलनात्मक अध्ययनपूर्वक लिप्यन्तरण करके सम्पादित प्रति तैयार की। इस समस्त कार्य में लगभग साढ़े चार वर्ष का समय लगा था। तब भी अर्थ की विसंगति आदि की दृष्टि से एक-एक शब्द पर एक-एक माह लगा जाता था; तब कहीं जाकर व्यापक अध्ययन एवं विचार-विर्मश के बाद सही निर्णय हो पाता था। अत: प्राचीन पाण्डुलिपियों एवं आचार्यों के ग्रन्थों के सम्पादन के गुरुतर दायित्व की गंभीरता को हम समझें, और विवेकपूर्वक कार्य करें तो ‘अहकं’ जैसे प्रयोगों के बारे में दुविधा, भ्रम या सन्देह की स्थितियाँ बनेंगी ही नहीं। सम्पूर्ण बाङ्मय के प्रति दायित्वबोध जागृत हो, मात्र आर्थिक एवं भौतिक संसाधनों से वाङ्मय का प्रकाशन-कार्य नहीं होकर उसमें सर्वाधिक गरिमापूर्ण एवं अपरिहार्य बौद्धिक संसाधन पक्ष का भी प्रबल प्रयोग हो- यह आज गंभीरतापूर्वक विचारणीय है। और इस विचारार्थ प्रेरणा देने के लिए ही यह स्तम्भ प्रवर्तित है।