आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि मेरा आत्मा-मैं एक अकेला हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन, ज्ञानमय और सदा अरूपी हूँ। आत्मा से भिन्न परमाणुमात्र कुछ भी मेरा नहीं है। समयसार की इस वाणी को शुक्लध्यानी महामुनि ही पूर्णरूप से अपने जीवन में साकार करते हैं। श्रावक तो मात्र इस वाणी पर श्रद्धा करने के एवं भावना भाने के अधिकारी होते हैं। आप लोग तीर्थक्षेत्र के दर्शन करते हैं, दान-पूजा आदि पुण्य क्रियाओं को करते हैं। किसलिए? अपनी आत्मा को क्रम परम्परा से शुद्ध बनाने के लिए। आज ही नहीं, पहले के युग में भी मुनिसंघ तीर्थयात्रा के लिए विहार करते थे। जैसा कि कुन्दकुन्द स्वामी के विषय में भी कथन आता है-
‘‘संघ सहित श्री कुन्दकुन्द गुरु वंदन हेतु गये गिरनार।’’
अर्थात् इस पंक्ति से यह भी झलकता है कि श्री कुन्दकुन्द देव विशाल मुनिसंघ के संचालक आचार्य परमेष्ठी थे। जो लोग उन्हें एकलविहारी मानते हैं उनके लिए यह पंक्ति चुनौती देती है कि आचार्य परमेष्ठी समाधि के समय भले ही शिष्यों से अलग एकाकी रहते हों किन्तु उससे पूर्व तक तो वे कभी एकाकी नहीं रह सकते अन्यथा उनके लिए आचार्य पदवी ही शोभा नहीं देती है। त् तीर्थ पर जाकर अपनी आत्मा को तीर्थस्वरूप बनाने की भावना करनी चाहिए। जिस भूमि पर महापुरुषों ने तपस्या की हो, उनके कोई कल्याणक हुए हों, जहाँ धर्म से संबंधित कोई ऐतिहासिक घटना घटी हो, उन स्थलों को तीर्थक्षेत्र कहते हैं। आप जिस भी तीर्थ पर जाएं, वहाँ के इतिहास से परिचित होना आपका कर्तव्य है।
आचार्यों के ग्रन्थ
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने जीवन में ८४ पाहुड़ ग्रंथों को लिखा है। इसका मतलब यह है कि उनका अधिकांश समय लेखन में ही व्यतीत होता था क्योंकि उनकी आयु सौ वर्ष से भी कम थी। उस लेख की एकाग्रता में ही वे आत्मानुभव करते होंगे तभी ऐसी-ऐसी महत्त्वपूर्ण गाथाओं का उनके द्वारा सृजन हुआ है।
यह निश्चित है कि लेखन के समय विषय की गहनता के साथ-साथ आत्मा में जब एकाग्रता विशेष आती है तो असीम आनन्द का अनुभव होता है। जैसा कि मैंने स्वयं अनुभव किया है। मैंने ग्रंथों की रचना, अनुवाद आदि आपके लिए नहीं, अपने लिए की है क्योंकि लिखते समय मुझे असीम शांति और आनन्द की अनुभूति होती रही है।
समयसार की रचना करते समय जो आत्मानुभव का रसास्वाद आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को प्राप्त हुआ होगा, उसका तो हम अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं। जैनसिद्धान्त गुणों की पूजा सदा से करता आया है, उसमें जहाँ आज्ञाप्रधानी विद्वान हैं वहीं तर्कशील, न्यायविद्, भगवान को कसौटी पर कसने वाले परीक्षाप्रधानी भी हुए हैं।
अष्टसहस्री ग्रंथ में आचार्यश्री विद्यानंद स्वामी ने श्री समन्तभद्राचार्य के द्वारा निन्दा- स्तुति अलंकार में की गई जिनेन्द्र स्तुति में उनकी परीक्षक नीति को स्पष्ट करते हुए लिखा है- हे भगवन्! आपके पास देवों का आगमन होता है, आप आकाश में अधर गमन करते हैं, चमर-छत्र आदि विभूतियाँ आपके चरण चूमती हैं।
मैं इससे प्रभावित होकर आपको नमस्कार नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि ये विभूतियाँ तो मायावी लोगों में भी हो सकती हैं। इसी प्रकार से भगवान के गुणों को कसौटी पर कसते हुए मानों वे उनसे वाद-विवाद ही करने लगते हैं किन्तु कुछ देर बाद ही असीम श्रद्धापूर्वक कहते हैं कि हे प्रभो! मैं आपको नमस्कार अवश्य करूँगा, अब कौन सी विशेष बात मैंने आपके अन्दर देखी है सो सुनो-
‘‘दोषावरणयोर्हानिर्नि:शेषास्त्यतिशायनात्’’
अर्थात् आपके अन्दर से राग-द्वेष आदि समस्त दोष और आवरण समाप्त हो गए हैं। दूसरी बात वे दोष अब कभी भी आपके पास आ नहीं सकते इसीलिए मैं आपको सच्चे आप्त के रूप में स्वीकार करके नमस्कार करता हूँ। पूरे अष्टसहस्री के अनुवाद में मुझे भगवान की कृपा एवं गुरु के आशीर्वाद से कहीं कोई कठिनाई प्रतीत नहीं हुई, बल्कि उसके बाद मेरा सम्यक्त्व इतना दृढ़ हुआ है कि स्वप्न में भी उसमें शिथिलता नहीं आ सकती है।
बहुत सारे यात्री आकर कहते हैं कि माताजी! आपने कई क्षेत्रों का उद्धार कर दिया, आपने बहुत सुन्दर जम्बूद्वीप बनाया है किन्तु आप सोचें कि मात्र पिच्छी कमंडलु धारण करने वाले हम साधुगण क्या जम्बूद्वीप बना सकते हैं? क्या तीर्थक्षेत्र का निर्माण कर सकते हैं? नहीं, यह सब तो आप लोगों ने अपने द्रव्य द्वारा बनाया है। मैंने तो मात्र शास्त्र की बात को आपके समक्ष रख दिया, जो मेरा कर्तव्य था।
शक्ति के अनुसार तप, त्याग, संयम की आराधना
इस पंचमकाल में आप लोगों को शुद्धात्मा की अनुभूति हो नहीं सकती इसलिए शुभोपयोग में अपने मन को लगाना, जितना बने उतना स्वाध्याय करना, शक्ति के अनुसार तप, त्याग, संयम की आराधना करना आज का परमोत्कृष्ट साधन है किन्तु ‘‘अहमिक्को खलु शुद्धो’’ की भावना सदैव भाते रहना चाहिए क्योंकि यही भावना समाधि की सिद्धि में सहायक होती है। आत्मा और शरीर की भिन्नता को उत्पन्न कराने वाला थोड़ा-सा ज्ञान भी संसार का अंत कराने वाला होता है। एक बार राजा श्रेणिक भगवान महावीर के समवसरण में जा रहे थे।
मार्ग में उन्हें वृक्ष के नीचे ध्यानमुद्रा में एक मुनिराज दिखे। श्रेणिक ने उनकी वंदना की परन्तु मुनि का मुँह कुछ विकृत देखकर समवसरण में पहुँचकर सर्वप्रथम गौतम स्वामी से उन मुनिराज के बारे में प्रश्न किया। तब गौतम स्वामी बोले- श्रेणिक! वे मुनि चंपानगरी के राजा श्वेतवाहन हैं। इन्होंने विरक्त हो अपने पुत्र विमलवाहन को राज्य देकर दीक्षा ले ली। बहुत दिन मुनियों के साथ विहार कर ये परम तपस्वी अखंडसंयमी होकर यहाँ आये हैं। ये दशधर्म में अतिशय रुचि रखते हैं, अत: इनका ‘‘धर्मरुचि’’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया है।
एक महीने के उपवास के बाद आज ये नगर में आहारचर्या के लिए गये थे। इन्हें देखकर इनके निकट ही तीन मनुष्य चर्चा करने लगे। एक ने कहा-अहो! इनके सर्वलक्षण तो सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार साम्राज्य पद के हैं पुन: ये भिक्षा के लिए क्यों भटक रहे हैं? मालूम पड़ता है कि निमित्तशास्त्र गलत है। दूसरे ने कहा-नहीं, नहीं, ये साम्राज्य को त्याग कर ऋषि हुए हैं, इन्होंने अपने लघुवयस्क पुत्र को राज्य दे दिया है अत: निमित्तशास्त्र झूठा नहीं है।
इसी बीच तीसरा बोल उठा-अरे! यह महापापी है। देखो न, अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए एक अनभिज्ञ बालक को राज्यभार दे दिया और अब मंत्रियों ने उस बालक को साँकल से बाँध रखा है। इतना सुनते ही मुनि का हृदय स्नेह और मान से भर गया अत: वे आहार न लेकर वापस आकर वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठ गए।
बाह्य कारणों के मिलने से उनके अन्त:करण में तीव्र अनुभाग वाले क्रोध कषाय का उदय हो रहा है। उन मंत्रियों के निग्रह के लिए वे हिंसानन्द नामक रौद्रध्यान में प्रविष्ट हो गए हैं। ‘‘यदि आगे अन्तर्मुहूर्त तक ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरक आयु बंध करने के योग्य हो जावेंगे।’’ इसीलिए हे श्रेणिक! तुम शीघ्र ही जाकर उन्हेें समझाओ।
राजा श्रेणिक द्वारा मुनि को संबोधन
महाराज श्रेणिक अविलम्ब वहाँ पहुँचते हैं और मुनिराज को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-हे साधो! शीघ्र ही यह अशुभ ध्यान छोड़ो। मोहजाल को दूर करो, क्रोधरूपी अग्नि को शांत करो।
मोक्षप्राप्ति हेतु तुमने संयम धारण किया है, उस संयम में स्थिरता लाओ। स्त्री, पुत्र आदि के संबंध दु:ख पहुँचाने वाले हैं, संसार को बढ़ाने वाले हैं।….इत्यादि सम्बोधन के वाक्य सुनकर मुनिराज तत्क्षण ही शुभ ध्यान में आ गए। पुन: परिणामों को शुद्ध करते हुए क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों को समाप्त कर केवलज्ञानी हो गए। अन्तर्मुहूर्त में ही मुनिराज कहाँ से कहाँ पहुँच गए, इन्द्रों ने आकर गंधकुटी की रचना कर दी और उसमें राजा श्रेणिक ने सभी के साथ बैठकर ‘‘धर्मरुचि’’ केवली की पूजा की।
देखो! परिणामों की विचित्रता को। ध्यान की एकाग्रता में भी बाह्य निमित्त बाधक बन गए, जिनसे ‘‘अहमिक्को खलु शुद्धो………….’’ की भावना के स्थान पर आर्त-रौद्र ध्यानों ने अधिकार जमा लिया और जरा से सम्बोधन पर पुन: उसी ‘‘णवि अत्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणु मित्तपि’’ का ध्यान करते हुए शुद्ध ध्यान की परिणति में आकर केवलज्ञानी बन गए। इसीलिए समयसार में कहा है कि काम, भोग, बंध की कथाएँ सुनाने वाले तो संसार में बहुत सुलभ हैं किन्तु आत्मतत्त्व का रहस्य बताने वाले गुरु और पालन करने वाले शिष्य अत्यंत दुर्लभ हैं।
आगम के अनुरूप वचनों से मुनियों को भी मौका पड़ने पर सम्बोधन प्रदान करना, उन्हें तप-संयम आदि में पुन: स्थित कर देना साधु और श्रावक दोनों का कर्तव्य है। ये सभी व्यवहारिक क्रियाएँ एक दिन निश्चय की प्राप्ति में सहायक होती हैं, इसलिए आप लोगों को समयसार पढ़ने से पूर्व श्रावकाचारों का अध्ययन करना चाहिए। इस युग में समयसार की नहीं, बल्कि आचार ग्रंथों की आवश्यकता है। उनका खूब पठन-पाठन, चिन्तन-मनन करो। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, उमास्वामी श्रावकाचार, मूलाचार आदि ग्रंथ बार-बार छपवाकर ज्ञान-दान करो, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करो, यही मेरा सबके लिए मंगल आशीर्वाद है।