कमल –गुरूजी! भगवान महावीर को केवलज्ञान कब और कहाँ उत्पन्न हुआ था?
गुरूजी –भगवान महावीर दीक्षा के अनन्तर मौनपूर्वक छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष बिताकर जृंभिका ग्राम के बाहर मनोहर वन के मध्य में ऋजुवूâला नदी के किनारे महारत्न शिला पर शालवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यान में लीन हो गये। उस समय अपनी शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न हुए परमानन्द से भगवान ने शुक्लध्यान से मोहनीय का नाश करके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का भी नाश कर दिया। बस, वे वीर प्रभु केवलज्ञानी हो गये, वह दिन वैशाख सुदी दशमी का था।
कमल – गुरूजी! भगवान ने छद्मस्थ अवस्था में कहाँ-कहाँ चातुर्मास किये थे?
गुरूजी –बेटा कमल! दिगम्बर जैन आम्नाय में किन्हीं भी ग्रन्थों में किन्हीं भी तीर्थंकरों के चातुर्मास का वर्णन नहीं आता है अत: भगवान महावीर के चातुर्मास करने की कल्पना भी गलत है।
कमल –महावीर भगवान के तीर्थंकर प्रकृति का उदय कब आया था?
गुरूजी – जब घातिया कर्मों का नाश कर केवली बनते हैं उसी समय ही तीर्थंकर प्रकृति का उदय होता है। इसके पहले तीर्थंकर प्रकृति केवल सत्ता में रहती है और उसी के प्रभाव से गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही रत्नों की वर्षा आदि अनेकों उत्सव शुरू हो जाते हैं। यहाँ तक कि गर्भ, जन्म और तप कल्याणक के इतने महान् उत्सव भी जो इन्द्रगण करते हैं उस समय भी तीर्थंकर प्रकृति का उदय नहीं रहता है।
कमल – गुरूजी! क्या सत्ता में स्थित कर्म भी जीव का भला-बुरा कर सकते हैं।
गुरूजी – अवश्य! देखो, यदि नरक आयु, मनुष्य आयु या तिर्यंच आयु में से किसी आयु का बंध हो जावे तो यह मनुष्य अणुव्रत तथा महाव्रत को ग्रहण नहीं कर सकता है। सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की मोहनीय कर्म की स्थिति यदि सत्ता में है या अन्य कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति सत्ता में है तो इस जीव के सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता भी नहीं आती है। जब ये सत्ता के कर्म अन्त: कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति में हो जाते हैं तभी सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता आती है। बेटा कमल! तुम्हें गोम्मटसार कर्मकाण्ड और लब्धिसार ग्रन्थों का भी स्वाध्याय करना चाहिये, तभी इन सब कर्मों के उदय, सत्व, बंध आदि का ज्ञान हो सकेगा।
कमल – गुरूजी! समवसरण का कुछ थोड़ा सा वर्णन कीजिये।
गुरूजी – समवसरण की ‘दिव्य भूमि’ स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर ‘कल्प भूमि’ होती है। भगवान महावीर की समवसरण भूमि का विस्तार एक योजन-चार कोश प्रमाण है। यह भूमि कमल के आकार की होती है। इसमें गंधकुटी तो कर्णिका के समान ऊपर ऊँची उठी होती है और बाह्य भाग कमल दल के समान विस्तृत होता है यह इन्द्र नीलमणि से निर्मित रहती है। इसमें चारों दिशाओं में मानस्तम्भ होते हैं जो कि दो-दो हजार पहलू के होते हैं। ये बारह योजन की दूरी से दिखाई देते हैं। जिनका मन अहंकार से सहित है ऐसे देवों और मनुष्यों को ये वहीं रोक देने वाले हैं। चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं। मानस्तम्भ की चारों दिशाओं में चार सरोवर हैं। इसके आगे एक वङ्कामयकोट है। इस कोट को चारों ओर से घेरकर एक परिखा है। उसमें घुटनों तक जल भरा हुआ है। उसके चारों ओर लताओं का उपवन है। उसको घेर कर सुवर्ण का परकोटा है, उसमें चार गोपुर द्वार हैं, उन द्वारों पर व्यन्तर जाति के देव द्वारपाल हैं, जो अपने प्रभाव से हाथ में मुद्गर लिए हुए अयोग्य व्यक्तियों को दूर हटाते हैं। इन गोपुरों के मणिमय तोरणों के दोनों ओर छत्र, चमर आदि मंगल द्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ संख्या में सुशोभित हैं। उन गोपुर के आगे बीथियों के दोनों ओर तीन-तीन खण्ड की दो-दो नाट्यशालायें हैं। जिनमें बत्तीस-बत्तीस देव कन्यायें नृत्य करती हैं। अनन्तर पूर्व दिशा में अशोकवन, दक्षिण में सप्तपर्ण, पश्चिम में चंपक और उत्तर में आम्र वन हैं। इन वनों में एक-एक मुख्य वृक्ष सिद्ध प्रतिमाओं से सहित हैं। इन वनों में क्रम से छह-छह वापिकायें हैं ये क्रम से उदय, विजय, प्रीति और ख्याति नामक फलों को देती हैं। आगे पुन: बत्तीस नाट्यशालायें हैं। उन पर ज्योतिषी देवांगनायें नृत्य करती हैं। आगे चारों ओर से घेरे हुए वङ्कामय वेदिका है। चारों गोपुरों के आगे चार बीथियाँ हैं। उनके दोनों पसवाड़े में ध्वजायें फहराती हैं। इन ध्वजाओं में मयूर, हंस, माला आदि दस प्रकार के चिह्न क्रमश: होते हैं। इनमें छोटी-छोटी घण्टिकायें लगी हुई हैं। विशेष रीति से एक दिशा में एक करोड़, सोलह लाख, चौंसठ हजार हैं और चारों दिशा सम्बन्धी ध्वजायें चार करोड़ अड़सठ लाख छत्तीस हजार से अधिक हैं। आगे की नृत्यशालाओं में व्यन्तर देवियाँ नृत्य करती हैं। उसके आगे स्वर्ण निर्मित दूसरा परकोटा है। इस कोट के द्वारों पर भवनवासी इन्द्र द्वारपाल हैं। ये बेंत की छड़ी धारण किये हुए पहरा देते हैं। उसके आगे नाट्यशालायें, धूपघट और कल्पवृक्ष वन हैं। आगे नौ-नौ स्तूप हैं। ये स्तूप पद्मराग मणियों से निर्मित हैं। उनके समीप स्वर्ण रत्नों से निर्मित मुनियों के और देवों के योग्य सभागृह हैं। सभागृहों के आगे स्फटिक मणि से निर्मित तीसरा परकोटा है। इस परकोटे के चारों गोपुरों के दोनों बाजू में उत्तम रत्नमय आसनों के मध्य मंगलरूप दर्पण हैं जो देखने वालों के पूर्व भव दिखलाते हैं। इन गोपुर द्वारों पर कल्पवासी देव द्वारपाल हैं। आगे अन्तर्वन, नाट्यशालायें, सिद्धार्थ वृक्ष आदि हैं। आगे एक मन्दिर है जिसमें बारह स्तूप हैं। इनके आगे नन्दा, भद्रा, जया और पूर्णा बावड़ियाँ हैं जिनमें स्नान करके जीव अपना पूर्व भव जान लेते हैं। इनमें देखने वाले जीवों को अपने आगे-पीछे के सात भव दिखने लगते हैं। वापियों के आगे एक जयांगण है जो तीन लोक की विजय का आधार है। उसके मध्य में एक इन्द्रध्वज सुशोभित होता है। उसके आगे एक हजार खम्भों पर खड़ा हुआ एक महोदय मण्डप है जिसमें मूर्तिमयी श्रुतदेवता विराजमान रहती हैं। उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में स्थापित करके अनेक मुनियों से युत श्रुतकेवली श्रुत का व्याख्यान करते हैं। इन मण्डपों के समीप में नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने हैं जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महा ऋद्धियों के धारक मुनि इच्छुक जनों की इष्ट वस्तु का निरूपण करते हैं। आगे विजयांगण के कोनों में चार लोक स्तूप हैं जिन पर ध्वजाएँ फहराती हैं। ये लोक स्तूप तीन लोक के आकार वाले स्वच्छ स्फटिक से निर्मित हैं। इनमें लोक की रचना स्पष्ट दिखाई देती है। इन स्तूपों के आगे मध्यलोक स्तूप हैं जिनके भीतर मध्यलोक की रचना स्पष्ट है। आगे मन्दिर स्तूप है जो कि सुमेरू पर्वत की रचना स्पष्ट करते हैंं। उनके आगे क्रम से कल्पवासस्तूप, ग्रैवेयक स्तूप, अनुदिश नाम के नौ स्तूप और सर्वार्थ सिद्धि नामक स्तूप हैं। ये सब अपने नाम के अनुरूप ही रचनाओं को दिखा रहे हैं। इनके आगे सिद्ध स्तूप है जिनमें सिद्धों के स्वरूप को प्रगट करने वाली दर्पणों की छाया दिखाई देती है। उनके आगे भव्यकूट नाम के स्तूप हैं जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते हैं। उनके नेत्र अन्धे हो जाते हैं। आगे प्रमोहस्तूप है। पुन: प्रबोध नाम का स्तूप है। आगे अत्यन्त ऊँचे दस स्तूप हैं। इनके आगे पुन: एक कोट है जिसके मण्डल की भूमि को बचाकर देव तथा मनुष्य प्रदक्षिणा देते रहते हैं। आगे परिधि है वहाँ गणधर देव की इच्छा करते ही एक पुर बन जाता है, उसके त्रिलोकसार, श्रीकान्त आदि अनेकों नाम हैं। भगवान के प्रभाव से वह नगर तीनों लोकों के श्रेष्ठ पदार्थों से युक्त आश्चर्य उत्पन्न करने वाला होता है। उसके बनाने वाला कुबेर भी यदि एकाग्रचित्त हो उसके बनाने का पुन: विचार करे तो वह भी नियम से भूल कर जायेगा, फिर अन्य मनुष्य की तो बात ही क्या है? उस नगर का निर्माण यथास्थान छब्बीस प्रकार के सुवर्ण और मणियों से चित्र-विचित्र है। उसके तल भाग में तीन जगती हैं। उनमें द्वारपालों के द्वार पर कुबेर की धनराशि का ढेर है। इस जगती में हजारों कूट और ध्वजायें हैं। वहाँ चारों ओर देदीप्यमान पीठ होते हैं। उनमें पहली पीठ पर चार हजार धर्मचक्र सुशोभित हैं। दूसरी पीठ पर चार ध्वजायें हैं। तीसरी पीठ पर गन्धकुटी नाम का प्रासाद है। उस पर भगवान का सिहासन है। उस पर कमलासन पर चार अंगुल अधर जिनेन्द्रदेव विराजमान रहते हैं। पहली पीठ-कटनी के चारों तरफ आकाश स्फटिक की दीवालों वाले बारह विभाग सुशोभित हैं। इन बारह कोठों में क्रम से प्रथम कोठे में गणधर देव और अपने-अपने दीक्षा गुरुओं से अधिष्ठित मुनिगण सुशोभित हो रहे थे। द्वितीय कोठे में कल्पवासी देवियाँ, तृतीय में आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ, चतुर्थ में ज्योतिषी देवियाँ, पाँचवें में व्यन्तर देवियाँ, छठे में भवनवासिनी देवियाँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यन्तर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में मनुष्य, चक्रवर्ती आदि श्रावकगण और बारहवें कोठे मेंस सीह, हरिण आदि पशुगण बैठे रहते हैं। इन बारह सभाओं में संख्यातों मनुष्यों, तिर्यंचों से तथा असंख्यातों देव-देवियों से वेष्टित भगवान चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्य से विभूषित अनन्त चतुष्टय आदि अनन्त गुणों के स्वामी देवाधिदेव विराजमान रहते हैं।
कमल – जितना वर्णन आपने समवसरण के अन्दर की चीजों का किया है। मेरी समझ में नहीं आया है कि इतना वैभव चार कोश के समवसरण में आवे!
गुरूजी – बेटा! इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। एक सामान्य अणिमा ऋद्धिधारक देव भी कमल की नाल के तन्तु जैसे बारीक छिद्र में चक्रवर्ती के कटक को स्थापित कर सकता है अथवा अक्षीणमहालय ऋद्धिधारक मुनि जहाँ बैठते हैं, उस चार हाथ प्रमाण कमरे में भी असंख्यात देवगण, विद्याधर, मनुष्य, पशु आदि बैठकर उपदेश सुन सकते हैं पुन: तीन लोक के नाथ तीर्थंकर भगवान के सानिध्य में इतना चमत्कार हो जावे तो कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है।
कमल – गुरूजी! समवसरण में कितनी सीढ़ियाँ होती हैं?
गुरूजी – कमल! इस समवसरण में गन्धकुटी पर विराजमान भगवान इस पृथ्वी तल से ५००० धनुष · २०००० हाथ ऊँचे जाकर विराजमान हैं अत: इसमें १-१ हाथ की २०००० (बीस हजार) सीढ़ियाँ हैं। इस पर अन्धे, लंगड़े, लूले, बाल, वृद्ध और रोगी आदि सभी अड़तालीस मिनट के भीतर-ही-भीतर चढ़ जाते हैं। यह भगवान का ही माहात्म्य है। समवसरण में मिथ्यादृष्टि, पाखंडी, शूद्र, व्रूर प्राणी और अभव्यजीव नहीं जा सकते हैं। ऐसे समवसरण में स्थित भगवान को नमस्कार करने से, समवसरण का ध्यान करने से आज भी महान पुण्य का बन्ध हो जाता है। ऐसा समवसरण आज विदेहों में सीमंधर आदि तीर्थंकरों का विद्यमान है। इस समवसरण का और विस्तृत वर्णन हरिवंशपुराण, महापुराण, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों में है।
कमल – अच्छा गुरूजी! अब मैं इन ग्रन्थों का स्वाध्याय खुद करूँगा।