जय जय जिनवर के समवसरण, जय सप्तम भवन भूमि प्यारी।
जय जय स्तूप जिन सिद्धबिंब, जय जय इनकी महिमा न्यारी।।
जय जय स्तूप पर छत्र फिरें, बहुवर्णध्वजायें फहरातीं।
जय मंगल द्रव्य वहां रक्खें, रत्नों की रचना मनभाती।।१।।
इन भवन भूमियों में ऊँचे, बहु महल बने सुर युगलों के।
संगीत नृत्य से देव वहां, अभिषेक करें जिनबिंबों के।।
कहिं स्वर्ण हिंडोले में बैठीं, देवी सब झूला झूल रहीं।
कहिं खिले कमल से हंसों से, वापी सब जन मन मोह रहीं।।२।।
प्रत्येक गली के मध्य बने, स्तूप विविध रत्नों के हैं।
उनके मधि मकराकार धरें, सौ-सौ तोरण रत्नों के हैं।।
ये अपने अपने जिनवर से, बारह गुणिते ऊँचे माने।
इनमें जिनबिंब बने मणिमय, उनकी भक्ती भवदुख हाने।।३।।
वहं छत्र चंवर भृंगार कलश, पंखा ठोना ध्वज दर्पण हैं।
ये मंगल द्रव्य आठ मानें, प्रत्येक एक सौ आठ रहें।।
इन स्तूपों के आसपास, मुनियों के सभाभवन दिखते।
जो वंदे इन सब मुनियों को, उनके सब पाप अरी भगते।।४।।
जहाँ प्रभु का समवसरण रहता, षट्ऋतु के फल फल जाते हैं।
सब ऋतु के फूल खिले सुंदर, दश दिश को भी महकाते हैं।।
सब जात विरोधी व्रूर पशू, आपस में मिलकर रहते हैं।
सुर मनुज पुराने वैर छोड़ आपस में प्रीति करते हैं।।५।।
यह समवसरण का ही प्रभाव, वहाँ जाते भव्य कहाते हैं।
मिथ्यात्व हलाहल विष उगलें, सम्यक्त्व निधी पा जाते हैं।।
निज में ही निज को पाकरके, निजआत्मा को ही ध्याते हैं।
फिर ‘ज्ञानमती’ पूरी करके, क्रम से शिवपद पा जाते हैं।।६।।
धन्य धन्य जिनराज तुम, धन्य धन्य तुम भक्त।
धन्य तुम्हारी वंदना, धन्य धन्य यह वक्त।।७।।
श्री ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर भगवान।
सवमसरण को नित नमूं कोटि, नमूं शुभ ध्यान।।१।।
मूलसंघ में कुंदकुंद—अन्वय सरस्वति गच्छ।
बलात्कारगण में हुए, सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।२।।
सदी बीसवीं के प्रथम गुरु महान आचार्य।
चरित चक्रवर्ती श्री—शांतिसागराचार्य।।३।।
इनके पहले शिष्य श्री—वीरसागराचार्य।
प्रथमहि पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।४।।
यहां रत्नत्रयनिलय में, जिनवर चरण समीप।
जिनवर गुरुवर सरस्वती, इन चरणों में प्रीत।।५।।
समवसरणस्तूप का यह स्तोत्र सुखकार।
पूर्ण किया जिन भक्ति वश, कटो भव्य रुचि धार।।६।।
जब तक नहिं हो ‘ज्ञानमती’, केवल एक महान्।
तब तक जग में स्थायि हो, स्तूप स्तोत्र महान्।।७।।
हस्तिनागपुर तीर्थ पर, जब तक तेहरद्वीप।
तब तक स्तूप स्तोत्र यह, बने सिद्धिपथ दीप।।८।।
।।इति समवसरणस्तूपस्तोत्रं संपूर्णम् ।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।