समाधि
द्वारा-आर्यिका सुद्रष्टिमति माताजी
प्र. ९२० : मृत्यु के चार द्वार कौनसे हैं?
उत्तर : अनुचित कार्यों का प्रारम्भ करना यह मृत्यु का पहला द्वार है। ऐसा कार्य करना ही क्यों जिससे आपदायें स्वयं ही घर बनाकर बैठ जायें। अतः जो काम समाज व धर्म के विरोधी होते हैं, उन्हें करना ही नहीं चाहिये। मृत्यु का द्वार कहते हैं स्वजनों का विरोध करना। अपने ही लोगों का विरोध करना, मौत का कारण बन जाता है। रावण के नाश का प्रमुख कारण उसका स्वजन सगा भाई विभीषण बन गया क्योंकि रावण ने उससे खैर किया था। मृत्यु का तीसरा द्वार होता है बलवान लोगों से स्पर्धा करना। मृत्यु का चौथा द्वार होता है प्रमदा। अर्थात् महिलाओ पर अधिक विश्वास करना। महिलाओ से व्यवहार तो करें पर उन पर अधिक विश्वास नहीं रखना चाहिये। ये चारों बातें मृत्यु का द्वार बन जाती हैं।
प्र. ९२१ : किसको मृत्यु का भय नहीं रहता?
उत्तर : जिसने भगवान की वाणी का अध्ययन किया है अर्थात् धर्मशास्त्र का पठन पाठन किया है। परम सुन्दर उपदेशामृत का पान किया है तथा भगवान के चरण-कमलों की पूजा की है उसको मृत्यु का डर नहीं रहता।
प्र. ९२२ : भगवान की भक्ति कब उत्पन्न होती है?
उत्तर : हजारों बनियों की बुद्धि मिलकर एक सुनार की बुद्धि होती है। हजारों सुनार की बुद्धि मिलकर एक ठग की बुद्धि होती है। हजारों ठग की बुद्धि मिलकर एक विचक्षण की बुद्धि होती है। हजारों विचक्षण की बुद्धि मिलकर एक वीर पुरुष की बुद्धि होती हैं। बनिया, विचक्षण, वीर, ठग और सुनार की बुद्धि से भी ऊपर सर्वथा निष्कपट बुद्धि जिसमें होती है उसे भगवान की भक्ति उत्पन्न होती है।
प्र. ९२३ : इन्द्रियों का असंयम, विषयों का मोह कब छूटता है?
उत्तर : इन्द्रियों का यह असंयम, विषयों का मोह तो तभी छूटता है जब हमें मौत का आभास होता है। हमें मौत का आभास है ही नहीं। इसलिये हम बेखबर हैं। करने में तो हम उलझे हुये हैं पर मरने का ख्याल भी नहीं है और जब हमारा मरण की ओर ध्यान जाता है तब भी हम सावधान होते नहीं।