रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती
शांतिनाथ भगवान को, नमन करूँ शतबार।
शांतिसिन्धु ऋषिराज को, हृदय कमल में धार।।१।।
परमशांत शिवधाम को, प्राप्त करन के काज।
अपने आतमराम को ध्याऊ सुमिरूँ आज।।२।।
परमसमाधी धाम को, पा जाऊ भगवान।
इसीलिए तव नाम को, जपूं सदा सुखखान।।३।।
तीर्थों में है तीर्थराज, जैसे सम्मेद शिखर माना।
पर्वों में है पर्वराज, पर्यूषण को जाता जाना।।
मंत्रों में है मंत्रराज, श्रीणमोकार को पहचाना।
मुनियों में हैं मुनीराज, शांतीसागर के गुण गाना।।१।।
गतियों में है श्रेष्ठ गती मानव पर्याय जिसे कहते।
उसमें भी है श्रेष्ठ मती जब उत्तम कुल में जनम धरते।।
उत्तम कुल में भी उत्तम जब सम्यग्दर्शन मिल जावे।
उसमें भी है अति उत्तम जब मानव अणुव्रत को पावे।।२।।
सर्वोत्तम है इस जग में, सम्पूर्ण महाव्रत को पाना।
सर्वोत्तम में भी सर्वोत्तम, बोधि समाधी को ध्याना।।
तीन लोक में है सर्वोत्तम, वह जिसने इसको जाना।
इसको पाने हेतु भव्यजन! आतम मंदिर में आना।।३।।
मानव जीवन है इक मंदिर, उस पर शिखर बनाना है।
उस पर ही सुन्दर समाधि का, स्वर्णिम कलश चढ़ाना है।।
हे आत्मन्! सुन्दर समाधि की, घड़ियां अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।४।।
पूरा जीवन पुण्य पाप से, मिश्रित कार्य किये जाते।
सोचो तो उनके कारण ही, सुख दुख फल हम सब पाते।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।५।।
बपचन से लेकर अब तक, जो भी शुभ कार्य किये मैंने।
अन्त समय में बस मैं चाहूँ, जिनवर नाम बसे मन में।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।६।।
आने जाने का क्रम जग में, काल अनादि से चलता।
जीरण तन को तजकर प्राणी, नूतन काय ग्रहण करता।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।७।।
कुछ सुख है कुछ दुख है जग में, यह अज्ञानी कहते हैं।
लेकिन केवल दुख है जग में, ऐसा ज्ञानी कहते हैं।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।८।।
इसीलिए तो ज्ञानी जन सुख, पाने का पुरुषार्थ करें।
भौतिक सुख तज करके शाश्वत, आतम सुख को प्राप्त करें।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।९।।
देखो तो वृषभेश्वर ने भी, भव-भव में सुसमाधि किया।
दशभव पूर्व महाबल की, पर्याय से निज उत्थान किया।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१०।।
ऋषभदेव सुत भरत बाहुबलि, के चरित्र को याद करो।
आतम सुख की इच्छा हो तो, भौतिक सुख परित्याग करो।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।११।।
शांति कुंथु अर तीर्थंकर तो, तीन-तीन पदधारी थे।
लेकिन सबकुछ तजकर ही तो, बने मोक्ष अधिकारी थे।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१२।।
पारस प्रभु ने दश भव तक, उपसर्ग कमठ का सहन किया।
याद करो उनका जीवन, जग ने उनको क्यों नमन किया।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१३।।
याद करो उन सात शतक, मुनि ने कैसा उपसर्ग सहा।
बलिकृत उस उपसर्ग को मुनि, विष्णु कुमार ने दूर किया।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१४।।
अभिनन्दन मुनि आदि पाँच सौ, मुनियों का स्मरण करो।
घानी में पिल गये उन्हीं का, आत्म तत्त्व संस्मरण करो।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१५।।
देखो! मुनि सुकुमाल सुकौशल, तन से कैसे निर्मम थे।
पशु द्वारा तन भक्षण पर भी, मगन रहे निज चिन्तन में।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१६।।
ऐसी बहुत कथाएँ तो हैं, पढ़ी हुई जिन आगम में।
किन्तु आज भी उनके सदृश, गुरु के भी आदर्श सुने।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१७।।
सदी बीसवीं में श्रीशांती-सिन्धु प्रथम आचार्य हुए।
महातपस्वी महामनस्वी, गुरुओं के गुरु मान्य हुए।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१८।।
कुंथलगिरि के पर्वत पर, इंगिनीमरण को प्राप्त किया।
मानव जीवन के मंदिर पर, स्वर्ण कलश को चढ़ा लिया।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।१९।।
सारे जीवन के जप तप का, फल यदि मरण समाधि मिले।
तो समझो संयम उपवन में, सुगति के सुरभित पुष्प खिले।।
हे आत्मन्! सुंदर समाधि की, घड़ियाँ अब यह आई हैं।
नहिं कषाय वेदना हो तन में, यही भावना भाई है।।२०।।
यह सुसमाधी भावना, सार्थक हो भगवान।
मिले ‘‘चन्दनामती’’ मुझे, शीघ्र मुक्ति का धाम।।२१।।