अनादिकाल से यह प्राणी संसार में मिथ्यात्व के कारण चतुर्गति के दुःख उठा रहा है। जब पुण्य योग से उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तब संसार सीमित हो जाता है। एक बार जीव को सम्यग्दर्शन होने के बाद वह अधिक से अधिक उनंचास (४९) भव में और कम से कम २-३ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
वह अमूल्य सम्यग्दर्शन क्या चीज है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें जानना है। सरल भाषा में दर्शन का अर्थ है देखना और सम्यक का अर्थ है समीचीन रूप से अर्थात वस्तु के स्वरूप को ज्यों का त्यों श्रद्धान करना, उस पर विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन है।
जैसे—दृष्टि (आंख) में कोई विकृति आ जाने पर औषधि आदि के द्वारा उसका इलाज किया जाता है और वह विकृति समाप्त होने पर आंखे स्वस्थ हो जाती हैं। उसी प्रकार से आत्मा के दर्शन गुण में अनादिकाल से व्याप्त विकृति को दूर कर देने से सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है।
सम्यग्दर्शन किसको होता है ? कब होता है ? कैसा होता है ? इस विषय से परिचित होना भी आवश्यक है। वह सम्यग्दर्शन भव्य जीव को ही होता है, अभव्य को नहीं। काललब्धि आदि के मिलने पर ही होता है, उसके बिना नहीं और अन्तरंग-बहिरंग कारणों के मिलने पर ही होता है, बिना कारण के नहीं होता है। हम और आप भव्य हैं या अभव्य ? काललब्धि आई है या नहीं ?
इसका निर्णय तो सर्वज्ञ के सिवाय अन्य कोई कर नहीं सकता है क्योंकि कोई अभव्य जीव ग्यारह अंग का ज्ञानी और निर्दोष निरतिचार चारित्र का पालन करने वाला महातपस्वी मुनि होकर ही नवमें ग्रैवेयक में जा सकता है, हम और आप जैसे आज के साधारणजन नहीं। उसमें किस रूप से मिथ्यात्व रहता है उसका निर्णय साधारणजन नहीं कर सकते हैं, वह तो सर्वज्ञगम्य ही है।
सम्यग्दर्शन के भेद
सम्यग्दर्शन मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है—
औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक।
औपशमिक सम्यग्दर्शन और उसकी उत्पत्ति के कारण ? अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे प्रथम बार जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसी को उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाले चारों गतियों के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं।
प्रथम बार होने वाले उपशम सम्यक्त्व को प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। धवला ग्रन्थ में सम्यक्त्व के लिए पाँच प्रकार की लब्धियों का निरूपण किया गया है।
१. क्षयोपशम लब्धि
२. विशुद्धिलब्धि
३. देशनालब्धि
४. प्रायोग्यलब्धि
५. करण लब्धि।
ये पाँच लब्धियाँ सम्यक्त्व उत्पत्ति में मूल कारण मानी गई हैं। इनमें पहली चार तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को होती हैं किन्तु करण लब्धि भव्य जीव को सम्यक्त्व होने के समय ही होती है।
क्षयोपशम लब्धि—कर्मों के मैल रूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह है उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय पर अनंतगुणा क्रम से घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशम लब्धि होती है।
विशुद्धि लब्धि—क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंधने का कारणरूप शुभ परिणाम, उसकी जो प्राप्ति है वही विशुद्धि लब्धि है क्योंकि अशुभ कर्म का अनुभाग घटने से संक्लेश की हानि और विशुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक है।
देशना लब्धि—छह द्रव्य और नव पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशना लब्धि कहते हैं।
प्रायोग्य लब्धि—सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अन्तः कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर करणलब्धि के योग्य भाव पाये जाते हैं।
करण लब्धि—स्थिति और अनुभागों के कांडक घात को बहुत बार करके गुरु उपदेश के बल से अथवा उसके बिना भी अभव्य जीवों के योग्य विशुद्धियों को व्यतीत करके भव्य जीवों के योग्य अधःप्रवृत्तकरण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है।
इस करण लब्धि के तीन भेद हैं—अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण।
इन तीनों करणों का काल अन्तर्मुहूर्त है। अन्तिम अनिवृत्तिकरण काल के समाप्त होते ही अनादि मिथ्यादृष्टि के दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियों का उपशम होकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है।
उपशम सम्यक्त्व का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बाद समाप्त होकर पुनः संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यंचों में उसी भव में नहीं हो सकता है चूँकि इसका अन्तराल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण ? अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व प्रगट होता है उसे क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। इसमें भी पूर्वोक्त पाँच लब्धियाँ तो कारण होती ही हैं किन्तु सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होना यह मुख्य कारण है। यह सम्यक्त्व चारों गतियों के भव्य पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक जीवों के हो सकता है।
क्षायिक सम्यक्त्व के कारण—कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली, श्रुतकेवली या तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनमोहनीय का क्षय करना प्रारम्भ करता है किन्तु उसकी पूर्ति चारों गतियों में से किसी में भी हो सकती है अर्थात् इनमें से किसी के पादमूल में मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है।
यह क्षायिक सम्यक्त्व देव, तिर्यंच, नारकी, भोगभूमिया मनुष्य तथा कर्मभूमि की महिलाओं को नहीं होता है क्योंकि इसकी योग्यता केवल कर्मभूमिया, द्रव्य पुरुषवेदी मनुष्य को ही प्राप्त है।
षट्खंडागम ग्रन्थ के प्रणेता श्री पुष्पदन्ताचार्य जी ने कहा है कि जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवद्र्धिदर्शन और वेदनानुभव ये सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बाह्य कारण हैं, जो चारों गतियों में योग्यतानुसार प्राप्त होते हैं। जिनसूत्र और उसके जानने वाले मर्हिषगण भी सम्यक्त्व उत्पत्ति के बाह्य कारण हैं, ऐसा श्री कुन्दकुन्द देव ने कहा है।
दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होना अन्तरंग कारण है। पाँच लब्धियों में से देशनालब्धि बाह्य कारण है और क्षयोपशम, विशुद्धि तथा प्रायोग्यलब्धि अन्तरंग कारण है फिर भी इन चार लब्धियों को तो सामान्य कारण माना गया है और अन्तिम करण लब्धि के होने पर नियम से सम्यक्त्व होता ही होता है और वह अन्तरंग कारण है।
आचार्य श्री उमास्वामी के अनुसार निसर्गज और अधिगमज के भेद से सम्यक्त्व दो प्रकार का भी माना गया है इनमें भी देशना लब्धि अवश्य पाई जाती है तथा अन्तरंग व बहिरंग कारण आज केवली और श्रुतकेवली नहीं हैं।
सम्यग्दर्शन की पहचान
अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिल जाने पर जब सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तो उस प्राणी के परिणामों में स्वयमेव निर्मलता आती है और कषायपाहुड़सुत्त ग्रन्थ में श्रीगुणधर आचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्न प्रकार से कहा है—
सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा।।
अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है।
भगवती आराधना, धवला की प्रथम पुस्तक तथा गोम्मटसार जीवकांड में यह गाथा ज्यों की त्यों अथवा किंचित् परिवर्तन के साथ दृष्टिगोचर होती है जिसका स्पष्ट अर्थ है कि शिष्य गुरू की असत्य बात पर भी यदि श्रद्धा करता है तो वह सम्यग्दृष्टि है, भले ही गुरु अज्ञानी होने से अथवा अल्पज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि होवें।
पुनः उपर्युक्त गाथा का खुलासा करते हुए आचार्य श्रीशिवकोटि ने कहा है—
सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जन्तं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।
इसका मतलब यह है कि पुनः कोई गुरु के द्वारा सूत्र से सम्यक्त्व अर्थ को दिखाने पर भी यदि श्रद्धा नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इन शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वाचार्य द्वारा रचित जिनवाणी के सूत्र देखकर अपनी मिथ्या धारणाओं को बदल देना ही सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य होता है।