संस्कत विद्यापीठ, नई दिल्ली में प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के शुभारम्भ के अवसर पर ‘सरस्वती वंदना’के रूप में प्राकृतभाषा-निबद्ध यह ‘सरस्वती-स्तुति’ प्रथम बार गायी गयी तथा तब से प्रतिदिन प्राकृतभाषा की कक्षा में इसका समूहगान होता है, तदुपरान्त कक्षा प्रारम्भ होती है। ‘प्राकृतविद्या’ के जिज्ञासु पाठकवृन्द की सेवा में यह सानुवाद प्रस्तु है।
अर्थ –सरस्वती की कृपा से मनुष्य काव्य-रचना करते हैं, अत: निश्चल (एकाग्रचित्त) भाव से सरस्वती पूजनीय हैं।
सव्वण्हु-मुहुप्पण्णा, जा भारदी बहुभासिणी । अण्णाण-तिमिरं हंति, विज्जा-बहुविगासिणी ।।२।।
अर्थ – सर्वज्ञ परमात्मा के श्रीमुख से समुत्पन्न जो ‘भरती’ (सरस्वती) है, वह अनेक भाषामय है। वह अज्ञानरूपी अंधकार का विनाश करती है तथा अनेक प्रकार की विद्याओं का बहुविध प्रकाशन करती है।
अर्थ-सरस्वती (का जो लौलिक रूप) मेरे द्वारा देखी गयी है, वह दिव्य आकृतिवाली एवं कमल-सदृश आँखोंवाली है। हंस के स्कन्ध पर आरुढ़ तथा वीणा एवं पुस्तक को धारण किये हुये है। (यहाँ ‘कमल’ निर्लिप्तता का ‘हंस’ नीर-क्षीरन्याय का, ‘वीणा’ यथावत् कथन का तथा ‘पुस्तक’ ज्ञानानिधि का प्रतीक मानकर प्रयुक्त हैं।)
अर्थ – हे सरस्वती! तुम्हें नमस्कार है, तुम वर देने वाली एवं कामरूपिणी हो (में आपका स्मरण करके) विद्याध्यन आरम्भ करता हूँ मुझे सदा सिद्ध (ज्ञानाप्राप्ति हो ऐसी भावना है।)
अर्थ –काव्य के दोष निम्नलिखित हैं १. अत्यन्त कर्कश वाक्यरचना, २. असम्बद्ध एवं उक्तार्थ की पुनरावृत्ति करना, ३. कठिनाई से समय में आने योग्य (दुर्बोद्ध) पदों का प्रयोग करना, ४. व्याकरण से सिद्ध न होने वाले पदों का प्रयोग करना, ५. अनुचित स्थानों पर ‘यति’ (विराम) का प्रयोग करना, ६. कोशग्रन्थों आदि में कथित शब्दों के प्रयोग से शून्य होना।