रचयित्री – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
जो साधु तीर्थंकर समवसृति में सदा ही तिष्ठते।
वे सात भेदों में रहें निज मुक्तिकांता प्रीति तें।
केवलि, विपुलमति, अवधिज्ञानी, पूर्वधर ऋषिवर वहां।
विक्रियधरा शिक्षक व वादी मैं उन्हें वंदूं यहां।।
चाल-बंदों दिगम्बर गुरुचरण……
पुरुदेव के मुनि केवली हैं बीस सहस प्रमाण।
इन भक्ति नौका जो चढ़ें वे लहें पद निर्वाण।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर ।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१।।
मुनि विपुलमति बारह सहस अरु, सात शतक पचास।
ये मन:पर्यय ज्ञान से नित, करें भुवन प्रकाश।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।२।।
पुरुदेव के ऋषि अवधिज्ञानी, नौ हजार प्रमाण।
इन वंदते भव व्याधि का हो, शीघ्र ही अवसान१।।इन.।।३।।
श्री ऋषभ जिनके पूर्वधर, सब पूर्व ज्ञानी ख्यात।
उन कही संख्या चार सहस सु सात सौ पच्चास।।इन.।।४।।
विक्रियाधारक मुनि वहाँ छह शतक बीस हजार।
वे भव्यजन को तृप्त करते तरणतारणहार।।इन.।।५।।
श्रीऋषभ के शिक्षकमुनी इक शतक चार हजार।
पुनरपि पचास गिने गये, इनसे खुले शिव द्वार।।इन.।।६।।
वादी मुनी बारह सहस अरु सात शतक पचास।
ये वाद करने में कुशल नित करें धर्म प्रकाश।।इन.।।७।।
समवसरण में ऋषभ के, ऋषि चौरासि हजार।
नमूँ नमूँ मैं भक्ति से, नमत खुले शिव द्वार।।१।।
मुनि केवली श्री अजित के सब कहें बीस हजार।
मैं सप्त परमस्थान हेतू नमूँ शत शत बार।।
इन भक्ति से ही भव्यजन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।८।।
मुनि विपुलमति मनपर्ययी, करते जगत उद्योत।
बारह हजार सु चार सौ पच्चास, शिवसुख स्रोत।।इन.।।९।।
मुनि अवधिज्ञानी नव सहस अरु चार सौ विख्यात।
सर्वावधी धारें महामुनि मैं नमूँ नत माथ।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१०।।
श्री अजित जिनके समवसृति में पूर्वधर मुनि ख्यात।
वे तीन सहस व सात सौ पच्चास हैं कुशलात।।इन.।।११।।
मुनि विक्रियाधर चार सौ अरु कहे बीस हजार।
वे आत्मरस अमृत पियें करते स्वपर उपकार।।इन.।।१२।।
शिक्षक मुनी इक्किस सहस ,छह सौ जगत् सुखकार।
निज साम्यरस पीयूष पीते, नाथ भक्ति अपार।।इन.।।१३।।
निज समय ज्ञानी पर समय के वाद में विख्यात।
बाहर हजार सु चार सौ उन वंदते सुखसात।।इन.।।१४।।
अजितनाथ के पास में, एक लाख ऋषि संत।
वंदूं भक्ती भाव से, निज सुख सुधा पिबंत।।२।।
ऋषि केवली पंद्रह सहस रहते समवसृति मध्य।
उनको नमूँ वे भक्तगण को दे रहें सुख नव्य।।इन.।।१५।।
मुनि विपुलमति मनपर्ययी नरलोक सब जानंत।
बारह हजार सु एक सौ पच्चास गुणमणिवंत।।इन.।।१६।।
मुनि अवधिज्ञानी नौ सहस छह सौ कहें जगमान्य।
उनके नमन से भव्यजन भी बनें सुर नर मान्य।।इन.।।१७।।
संभव जिनेश्वर समवसृति में, पूर्वधर मुनिनाथ।
इक्कीस शतक पचास हैं, मैं नमूँ नाय सुमाथ।।।इन.।।१८।।
विक्रिय धरें मुनि आठ सौ माने उनीस हजार।
जो वंदते गुरु चरण उनको मिले सौख्य हजार।।
इन भक्ति से ही भव्य जन, निज लहें ज्ञान अखीर।
इन साधु को मैं हृदय धारूँ, करें भवदधि तीर।।१९।।
इक लाख उनतिस सहस शिक्षक तीन सौ परिमाण।
नित भव्यजन को देय शिक्षा करें भवि कल्याण।।इन.।।२०।।
वादी मुनी बारह सहस निज पर समय का ज्ञान।
परवादियों का मानमर्दन करें समकितवान।।इन.।।२१।।
संभव जिनके पास में, ऋषि रहते दो लाख।
गुरूभक्ति से नित्य मैं, नमूँ जोड़ जुग हाथ।।३।।
ऋषि केवली वहँ राजते सोलह हजार प्रमाण।
उन वंदना से भव्यजन करते स्व पर पहिचान।।इन.।।२२।।
मुनि विपुलमति राजे वहाँ मनपर्ययी गुणखान।
इक्कीस सहस सु छह शतक पच्चास सब सुखदान।।इन.।।२३।।
मुनि अवधिज्ञानी नव हजार सु आठ सौ गुणखान।
उन ज्ञान में सब मूर्त वस्तू दिख रही अमलान।।इन.।।२४।।
तीर्थेश अभिनंदन समवसृति में ऋषीगण मान्य।
मुनि पूर्वधर पच्चीस सौ संपूर्ण श्रुत की खान।।इन.।।२५।।
वहां विक्रियाऋद्धी मुनी उन्नीस सहस महान्।
वे भक्तगण के रोग शोक विपत्ति हरण प्रधान।।इन.।।२६।।
शिक्षक मुनी दो लाख तीस हजार और पचास।
जो करें वर्णरसादिविरहित स्वात्मतत्त्व विकास।।इन.।।२७।।
वादी मुनी इक सहस माने वाद में परवीण।
जो सर्वजन की आधि व्याधी करें क्षण में क्षीण।।इन.।।२८।।
अभिनंदन जिनके यहाँ, तीन लाख ऋषिवृंद।
धर्ममूर्ति जिनरूप को नमूँ हरो जग फद।।४।।
केवलि ऋषि तेरह सहस, मुनि परिषद् निवसंत।
उनके ज्ञानादर्श में, लोक अलोक झलफत।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।२९।।
विपुलमति दश सहस हैं, चार शतक मुनिराज।
चार ज्ञानधारी गुरू, देवें निज साम्राज।।नमूँ.।।३०।
अवधिज्ञानी ग्यारह सहस, मूर्तिक सब जानंत।
समवसरण में नाथ के, आतम ध्यान धरंत।।नमूँ.।।३१।।
सुमतिनाथ के पास में, रत्नत्रय आधार।
पूर्वधारि चौबीस सौ, वंदूं सुखदातार।।नमूँ.।।३२।।
अठरह हजार चार सौ, विक्रियधारी साधु।
वर्ण गंध रस स्पर्श से, शून्य स्वात्मरस स्वादु।।नमूँ.।।३३।।
दोय लाख चौवन सहस, तीन शतक पच्चास।
शिक्षक मुनि गुणनिधि भरें, वंदूं मन उल्लास।।नमूँ.।।३४।।
परवादी को जीतने, कुशल विजेता ईश।
दश हजार अरु चार सौ, कहे पचास मुनीश।।नमूँ.।।३५।।
सुमतिनाथ के पास में, तीन लाख ऋषिराज।
बीस हजार कहें सभी, नमूं सरें सब काज।। नमूँ.।।५।।
केवलज्ञानी मानिये, बारह सहस प्रमाण।
पूजत स्वातम निधि मिले, शत शत करूँ प्रणाम।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।३६।।
विपुलमति मुनि दस सहस, तीन शतक सुखखान।
जो पूजें उन भक्त के, भरते सर्व निधान।।नमूँ.।।३७।।
अवधिज्ञानी मुनिव्रत सहित, मानें दश हज्जार।
यथाजात मुद्रा धरें, नमत भक्त भव पार।।नमूँ.।।३८।।
पद्मप्रभू के पूर्वधर, त्रय शत दोय हजार।
श्रुतकेवलि ये पूज्यवर, नमत मिले श्रुतसार।।नमूँ.।।३९।।
पद्मप्रभू की सभा में, विक्रियमुनि भवि सूर्य।
सोलह हजार आठ सौ नमत मिले गुणपूर्य।।नमूँ.।।४०।।
शिक्षक मुनि दो लाख अरु, उनहत्तर हज्जार।
चतुर्गती दुख से करें, भव्यों का उद्धार।।नमूँ.।।४१।।
वादी मुनिगण नव सहस, छह सौ गुणमणिधार।
जजत मिटे चहुंगति भ्रमण, मिले मोक्ष का द्वार।।नमूँ।।४२।।
पद्मप्रभू जिननाथ के, समवसरण में साधु।
तीन लाख मानें तथा, तीस हजार अबाधु।।नमूँ.।।६।।
केवलज्ञानी ऋषि वहां, ग्यारह सहस प्रमाण।
उनके केवलज्ञान में प्रतिबबित जग जान।।नमूँ।।४३।।
विपुलमति मुनि नव सहस, एक शतक पच्चास।
अद्भुत शशि करते सतत, भवि मन कुमुद विकास।।नमूँ।।४४।।
अवधिज्ञानी मुनिराज हैं, नव हजार परिमाण।
नमत भव्य शिवपथ लहें, करें सर्व कल्याण।।नमूँ।।४५।।
श्री सुपाश्र्व जिन पास में, दो हजार अरु तीस।
पूर्वधारि मुनि सर्वश्रुत, पारंगत मुनि ईश।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।४६।।
दश हजार त्रेपन शतक, विक्रिय ऋद्धि मुनीश।
भवदधि नौका भक्ति उन, नमूं नमाकर शीश।।नमूँ।।४७।।
शिक्षक मुनि दो लाख अरु, चव्वालीस हजार।
नौ सौ बीस बखानिये, नमत करुँ भव पार।।नमूँ।।४८।।
वादी मुनि छह सौ कहे पुनरपि आठ हजार।
चिन्मय चिंतामणि पुरुष, करें हमें भव पार।।।।नमूँ।।४९।।
श्री सुपाश्र्व की सभा में, तीन लाख ऋषिवृंद।
जिनमुद्राधारी गुरू, सुरनर किन्नर वंद्य।।नमूँ.।।७।।
केवलज्ञानी ऋषि वहां, अठरह सहस बसंत।
जो उनकी भक्ती करें, परमानंद धरंत।।नमूँ.।।५०।।
आठ सहस मुनि विपुलमति, ज्ञान धरें अभिराम।
नमत ही चिंता टले, मिले स्वात्म विश्राम।।नमूँ.।।५१।।
अवधिज्ञानी हैं दो सहस, स्वपर विकासन सूर्य।
भवभव संचित अघ सकल, नमत हुये चकचूर।।नमूँ.।।५२।।
चंदाप्रभु जिनराज के, समवसरण में पूज्य।
पूर्वधारि मुनि हैं वहाँ, चार सहस जग पूज्य।।नमूँ.।।५३।।
वक्रियधारी छह शतक, करें कर्म चकचूर।
उनकी भक्ती जो करें, करें मृत्यु को दूर।।नमूँ.।।५४।।
दोय लाख अरु दस सहस, चार शतक मुनिराज।
शिक्षक माने हैं वहां, नमत मिले निजराज।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरू की कृपाप्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।५५।
वादी मुनि जिन पास में, मानें सात हजार।
वंदत ही निजपद मिले, भरें सौख्य भण्डार।।नमूँ.।।५६।।
चंद्रप्रभू की सभा में, दोय लाख ऋषिवृंद।
तथा पचास हजार भी, नमत हरे भवफंद।।नमूँ.।।८।।
ऋषी केवली सब पछत्तर शतक जे।
उन्हीं ज्ञान में सर्व त्रैलोक्य झलके।।
नमूं भक्ति से अर्घ लेके ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।५७।।
मुनी सात हज्जार अरु पाँच सौ हैं।
नमूँ मैं विपुलमति ज्ञानी गुरू हैं।।नमूं.।।५८।।
मुनीश्री अवधिज्ञानी चौरासि सौ हैं।
उन्हें वंदते सर्व व्याधी नशे हैं।।नमूं.।।५९।।
प्रभू पुष्पदंतेश की जो सभा है।
वहां पूर्वधारी सु पंद्रह शतक हैं।।नमूं.।।६०।।
धरें विक्रिया साधु तेरह हजारा।
नमूँ मैं मिले भव समुद्री किनारा।।नमूं.।।६१।।
मुनी एक लक्षा सु पचपन हजारा।
कहे पाँच सौ साधु शिक्षक प्रकारा।।नमूं.।।६२।।
सुवादी मुनी छै सहस छै शतक हैं।
उन्हें शीश नाते सभी सौख्य हो हैं।।नमूं.।।६३।।
श्रीपुष्पदंत जिनराज के, समवसरण में सर्व।
दोय लाख ऋषिगण कहें, नमूं हरूँ दुख सर्व।।।९।।
वहाँ केवली सात हज्जार राजें।
सभी लोक आलोक क्षण में प्रकाशें।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।६४।।
मुनीश्वर विपुलमति पछत्तर शतक हैं।
सभी इंद्र वंदें भजें भक्तिवश हैं।।जजूँ.।।६५।।
अवधिज्ञानी साधू बहत्तर शतक हैं।
नमें जो सभी रोग बाधा हरे हैं।।जजूँ.।।६६।।
ऋषी पूर्वधर शीतलेश्वर सभा में।
सु चौदह शतक शीश नाऊँ उन्हें मैं।।जजूँ.।।६७।।
सुविक्रिय धरें साधु बारह हजारा।
नमें पाद पंकज लहें भव किनारा।।जजूँ.।।६८।।
सु शिक्षक सु उनसठ सहस दो शतक हैं।
सदा इंद्र धरणेन्द्र चक्री नमें हैं।।जजूँ.।।६९।।
सुवादी मुनीश्वर सतावन शतक हैं।
सभी लोक में वंद्य अतिशय धरे हैं।।जजूँ.।।७०।।
श्री शीतल जिनराज के, समवसरण में वंद्य।
एक लाख ऋषिगण कहे, नमूँ नमूँ सुखफंद।।१०।।
ऋषी केवली हैं सु पैंसठ शतक ही ।
चतु: घातकर्मारि जेता बनें ही।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७१।।
विपुलमति मन:पर्ययी जो मुनी हैं।
कहे छै हजारा महागुण धनी हैं।।नमूं.।।७२।।
अवधिज्ञानी साधू कहे छै हजारा।
क्षमा आदि से ये लहें भव किनारा।।नमूं.।।७३।।
कहे पूर्वधर साधु श्रेयांस प्रभु के।
सु तेरह शतक जीत मुद्रा धरें हैं।।नमूं.।।७४।।
ऋषी विक्रियाधारि ग्यारह हजारा।
यथाजात मुद्रा महाशील धारा।।नमूं.।।७५।।
सुशिक्षक मुनी अष्ट चालिस सहस्रा।
द्विशत ये कहे हैं महाव्रत धरित्रा।।नमूं.।।७६।।
कहे वादकर्ता मुनी पण सहस्रा।
दिगम्बर मुनी ये धरें ध्यान शस्त्रा।।नमूं.।।७७।।
श्री श्रेयांस जिनराज के, समवसरण में सिद्ध।
चौरासी हज्जार मुनि, नमत मिले निज रिद्ध।।११।।
ऋषी केवली हैं वहाँ छै हजारा।
इन्होंने स्वयं पा लिया भव किनारा।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।७८।।
विपुलमति मुनी छै सहस मान्य जग में।
नमूँ मैं उन्हें सर्व आपद हरें वे।।नमूं.।।७९।।
अवधिज्ञानी मुनि पाँच हज्जार चउ सौ।
सभी मूल उत्तर गुणों से सजें जो।।
नमूं भक्ति से हर्षयुत हो ऋषी को।
मिले स्वात्मपीयूष पूरित नदी जो।।८०।।
प्रभू वासुपूज्येश की जो सभा है।
वहाँ पूर्वधर इक सहस दो शतक हैं।।नमूं.।।८१।।
कहें विक्रियाधारि हैं दस सहस्रा।
सदा शील संयम गुणों से पवित्रा।।नमूं.।।८२।।
मुनी एक कम होके चालिस हजारा।
पुन: दो शतक ये हि शिक्षक प्रकारा।।नमूं.।।८३।।
ऋषी वादि व्यालीस सौ शास्त्र माने।
नमूँ मैं उन्हें स्वात्म संपत्ति पाने।।नमूं.।।८४।।
वासुपूज्य जिननाथ के, समवसरण में वंद्य।
बाहत्तर हज्जार मुनि, नमत हरूँ जगद्वंद।।१२।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।
केवली साधु पचपन शतक मान्य हैं।
वंदते ही लहें भेद विज्ञान हैं।।८५।।
जो विपुलमति मन:पर्ययी साधु हैं।
पाँच हज्जार पण सौ निजी स्वादु हैं।।मैं.।।८६।।
अष्टचालिस शतक साधु अवधी धरें।
तीन ही ज्ञान से मोह तम परिहरें।।मैं.।।८७।।
श्री विमलनाथ के पूर्वधर साधु जो।
मैं नमूं नित्य ग्यारह शतक मान्य वो।।मैं.।।८८।।
वक्रियाधारि नौ सहस साधू कहे।
ये सदा स्वात्म के ध्यान में लीन हैं।।मैं.।।८९।।
साधु अड़तीस हज्जार औ पाँच सौ।
नाम शिक्षक धरें पूजहूँ भाव सो।।मैं.।।९०।।
साधु छत्तीस सौ वाद को जीतते।
जो नमें वो स्वयं मृत्यु को जीतते।।मैं.।।९१।।
विमलनाथ की सभा में, ऋषि अड़सट्ठ हजार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।१३।।
केवली साधु हैं, पाँच हज्जार जो।
चार घाती हने सौख्य भंडार वो।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।९२।।
पाँच हज्जार विपुलामतीधर मुनी।
चार ज्ञानी इन्हीं से बनूँ मैं गुणी।।मैं.।।९३।।
अवधिज्ञानी तितालीस सौ जानिये।
मार्दवादी गुणों से भरे मानिये।।मैं.।।९४।।
श्री अनंतेशजी के समोशर्ण में।
पूर्वधर एक हज्जार वंदूं उन्हें।।मैं.।।९५।।
आठ हज्जार हैं विक्रियाधर मुनी।
ये सभी मूल उत्तर गुणों के धनी।।मैं.।।९६।।
ऊन चालिस सहस पाँच सौ मुनिवरा।
नाम शिक्षक धरें नित नमूं गुण भरा।।मैं.।।९७।।
वादि बत्तीस सौ शास्त्र ज्ञानी महा।
धर्म दशविध धरें नित नमूं मैं यहाँ।।मैं.।।९८।।
श्री अनंत जिनराज के, ऋषि छ्यासष्ट हजार।
नग्न दिगम्बर रूपधर, नमूँ नमू शत बार।।१४।।
चार हज्जार औ पाँच सौ केवली।
मृत्यु को भी हरे भक्ति ये एकली।।मैं.।।९९।।
चार हज्जार पण सौ विपुलमति मुनी।
वंदते ही लहूँ स्वात्म संपत् घनी।।मैं.।।१००।।
साधु छत्तीस सौ ज्ञान अवधी धरें।
शुद्ध चारित्र से स्वात्म सिद्धी करें।।मैं.।।१०१।।
पूर्वधर नौ शतक धर्म तीर्थेश के।
पूजते ही लहें सौख्य निर्वाण के।।मैं.।।१०२।।
विक्रियाधर मुनी सात हज्जार हैं।
जो नमें वो बने ऋद्धि भरतार हैं।।मैं.।।१०३।।
साधु चालीस हज्जार औ सात सौ।
नाम शिक्षक धरें नित नमूं चाव सो।।मैं.।।१०४।।
वाद जेता मुनी दो सहस आठ सौ।
नग्न मुद्रा धरें नित नमूं ठाठ सो।।मैं.।।१०५।।
धर्मनाथ के पास में, ऋषि चौंसट्ठ हजार।
धर्म दशों विध पूर्ण हित, नमूं भक्ति उरधार।।१५।।
केवली चार हज्जार तिष्ठें वहाँ।
वंदते प्राप्त हो ऋद्धि सिद्धी यहाँ।।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे मुनींद्रा तुम्हें।
तीन ही रत्न का दान दीजे हमें।।१०६।।
चार हज्जार विपुलमति ज्ञानि हैं।
चार गति दु:ख से कर रहे त्राण हैं।।मैं.।।१०७।।
तीन हज्जार हैं ज्ञान अवधी धरें।
जो नमें वे स्वयं स्वात्म पुष्टी करें।।मैं.।।१०८।।
शांति तीर्थेश के पूर्वधर आठ सौ।
चौदहों पूर्वधारी नमूं भक्ति सो।।मैं.।।१०९।।
विक्रियाधारि छै सहस साधू कहे।
रत्नत्रय को धरें आत्मशुद्धी लहें।।मैं.।।११०।।
एकतालीस हज्जार औ आठ सौ।
साधु शिक्षक उन्हें मैं नमूं भाव सो।।मैं.।।१११।।
वादि चौबीस सौ साधु राजें वहाँ।
भव्य भी वंदते पाप नाशें यहाँ।।मैं.।।११२।।
समवसरण में शांति के, ऋषिगण सर्वप्रधान।
सब बासठ सु हजार हैं, नमूँ नमूँ गुणखान।।१६।।
गुरुदेव! दया करिये, श्रीचरणों में रख लीजिये।।गुरु.।।टेक.।।
कुंथुनाथ जिन समवसरण में, महाव्रत गुणमणि भरिये।
केवलज्ञानी प्रभु बत्तिस सौ, घाति कर्म से रहिये।
गुण आनंत चतुष्टय सहिते, वंदत ही गुण भरिये।।११३।।
विपुलमति मुनि तेतिस सौ सु पचास सर्व दुख हरिये।
तुम पद पंकज सेवत भविजन मुक्तिरमा को वरिये।।गुरु.।।११४।।
अवधिज्ञानी मुनिवर पचीस सौ, नग्न रूप गुण भरिये।
रोग शोक दुख दारिद नाशें, वंदत ही सुख भरिये।।गुरु.।।११५।।
पूर्वधारि मुनि सात शतक हैं, वंदत ही दुख हरिये। गुरुदेव!
दया करिये, श्री चरणों में रख लीजिये।।गुरु.।।११६।।
विक्रियधारी इक्यावन सौ, दश धर्मों से सहिये।
उनके चरण कमल को वंदत, रोग शोक दुख हरिये।।गुरु.।।११७।।
तेतालीस हजार एक सौ, पचास शिक्षक कहिये।
उनके पद पंकज को वंदत, भव भव दु:ख को दहिये।।गुरु.।।११८।।
वादी मुनिगण दो हजार हैं, उन पद वंदन करिये।
जन्म मरण के दु:ख नाश कर, जिन आतम निधि भरिये।।गुरु.।।११९।।
कुंथुनाथ के पास में, साठ हजार मुनीश।
मन वच तन से नित्य ही, नमूँ नमाकर शीश।।१७।।
मिले समरस का झरना, गुरुदेव चरण को वंदते।।मिले.।।टेक.।।
केवलज्ञानी अट्ठाइस सौ, घातिकर्म क्षय करना।
अव्याबाध सौख्य गुणपूरित, वंदत ही भव हरना।।मिले.।।१२०।।
विपुलमति मुनि दोय हजार सु पचपन निजसुख भरना।
जो वंदें सो शिवकांता लें, वंदत ही दुख हरना।।मिले.।।१२१।।
अवधिज्ञानी मुनि अट्ठाइस सौ, सर्व जगत दुख हरना।
नमते ही निज संपत् मिलती, चहुँगति भय परिहरना।।मिले.।।१२२।।
अरहनाथ के समवसरण में, मुनिगण हैं जग शरना।
पूर्वधारि छह सौ दस मानें, वंदत ही भव हरना।।मिले.।।१२३।।
विक्रियधारी तेतालिस सौ, सर्व सौख्य अनुसरना।
जो वंदें सो निजपद पावें, पुनर्जनम नहिं धरना।।मिले.।।१२४।।
पैंतिस सहस आठ सौ पैंतिस, शिक्षक मुनि सुख भरना।
सुर नर किन्नर गुण को गाते, नित वंदत गुरु चरना।।मिले.।।१२५।।
वादी मुनि सोलह सौ मानें, सात भयों के हरना।
मैं नित वंदूं भक्ति भाव से, हो भवदधि से तरना।।मिले.।।१२६।।
अरहनाथ की सभा में, साधु पचास हजार।
नग्न दिगम्बर वे यती, करें जगत उद्धार।।१८।।
मुनिराज शरण लीजे, तुम पद पंकज मैं नमूं।।मुनिराज.।।टेक.।।
केवलज्ञानी प्रभु बाइस सौ, उनमें जग दीपे।
चार चतुष्टय लक्ष्मी के वर, वंदत सुख सीझे।।मुनि.।।१२७।।
विपुलमति मुनि सत्रह सौ पच्चास वहाँ दीखें।
सर्व मूलगुण उत्तर गुण के मूर्तिरूप दीखें।।मुनि.।।१२८।।
अवधिज्ञानी मुनि बाइस सौ हैं, मोह शत्रु जीतें।
रुचि से वंदत पाप नशावो गुण कीर्तन कीजे।।मुनि.।।१२९।।
मल्लिनाथ के समवसरण में, मुनिगण बहु दीखें।
पूर्वधारि पण सौ पचास हैं, कर्म अरी जीतें।।मुनि.।।१३०।।
विक्रियधारी मुनि उनतिस सौ समरस में भीजे।
पंच महाव्रत समिति गुप्ति के स्वामी सुख कीजे।।मुनि.।।१३१।।
शिक्षक मुनि उनतिस हजार हैं, निज सुखरस पीते।
जो भविजन उनको नित वंदें, उनके दुख छीजें।।मुनि.।।१३२।।
वादी मुनि चौदह सौ उनका नित वंदन कीजे।
नवनिधि सुख संपति संतति की नित वृद्धी कीजे।।मुनि.।।१३३।।
मल्लिनाथ जिनराज के, ऋषि चालीस हजार।
वंदूं मन वच काय से, शीघ्र लहूँ भव पार।।१९।।
हों मुझको सुखकारी, श्री नग्न दिगम्बर साधु जी।हों.।।टेक.।।
केवलज्ञानी प्रभु अठरह सौ, घाति करम हारी।
त्रिभुवन जन से पूजित भगवन्, भवदुख परिहारी।।हो.।।१३४।।
विपुलमति मुनि पंद्रह सौ हैं, त्रिभुवन मनहारी।
रोग शोक दुख संकट नाशें, वंदत सुखकारी।।हों.।।१३५।।
अवधिज्ञानी गुरु अठरह सौ हैं, निज गुण भंडारी।
क्षायिक समकित रत्न धरें वो, वंदूं रुचिधारी।।हों.।।१३६।।
मुनिसुव्रत के समवसरण में मुनिपद के धारी।
पूर्वधारि गुरु पाँच शतक हैं, भव भव भयहारी।।हों.।।१३७।।
विक्रियधारी मुनि बाइस सौ, सब जग हितकारी।
जो वंदें सो पाप नशावें, पावें शिवनारी।।हों.।।१३८।।
हैं इक्किस हजार मुनि शिक्षक, सब जन मनहारी।
चंद्र किरणवत् वचन शांतिप्रद, शिक्षा सुखकारी।।हों.।।१३९।।
वादी मुनि बारह सौ मानें, तीन रत्नधारी।
वंदत ही सब व्याधि दूर हों, त्रिभुवन हितकारी।।हों.।।१४०।।
मुनिसुव्रत जिननाथ के, ऋषिगण तीस हजार।
मुनिव्रत मेरे पूर्ण हों, नमूँ नमूँ शत बार।।२०।।
चाल-हे दीनबंधु……..
ऋषि केवली सोलह शतक विराजते वहाँ।
संपूर्ण लोक ज्ञान में प्रतिबिम्बते वहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१४१।।
मुनिवर विपुलमति सु बारह सौ पचास हैं।
भव्यों के हृदय पंकज करते विकास हैं।।मैं.।।१४२।।
मुनिराज अवधिज्ञानी सोलह शतक वहाँ।
निज ज्ञान से संपूर्ण लोक लोकते तहाँ।।मैं.।।१४३।।
नमिनाथ के समवसरण में पूर्वधर मुनी।
मैं नित नमूं वे चार सौ पचास सुखमणी।।मैं.।।१४४।।
विक्रिय धरें पंद्रह शतक मुनीश पूज्य हैं।
व्रत शील संयमादि से अतिशायि धन्य हैं।।मैं.।।१४५।।
बारह हजार छह सौ शिक्षक मुनी वहाँ।
उत्तम क्षमादि धर्म कोफैलावते यहाँ।।मैं.।।१४६।।
वादी मुनी हजार हैं सिद्धांत के ज्ञानी।
इन वंदते बनूं सदा मैं भेद विज्ञानी।।मैं.।।१४७।।
नमिनाथ की सभा में, ऋषिगण बीस हजार।
जिनगुण संपद हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।२१।।
मुनि केवली पंद्रह शतक विराजते वहाँ।
निजपर प्रकाश होएगा उन पूजते यहाँ।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।१४८।।
मुनिवर विपुलमति वहां नव सौ प्रमाण हैं।
उन चार ज्ञानधारि को मेरा प्रणाम है।।मैं.।।१४९।।
मुनिराज अवधिज्ञानी एक सहस पाँच सौ
जन वंदते संस्तव करे हैं भांति भांति सो।।मैं.।।१५०।।
श्री नेमिनाथ का समोसरण महान है।
मुनि पूर्वधर वहाँ पे चार सौ प्रमाण हैं।।मैं.।।१५१।।
मुनि विक्रिया सहित वहाँ ग्यारह शतक कहें।
उन वंदते संसार के दुख क्लेश ना रहे।।मैं.।।१५२।।
शिक्षक मुनी ग्यारह हजार आठ सौ कहे।
जो वंदना करें उन्हों के पाप ना रहे।।मैं.।।१५३।।
वादी मुनीश आठ सौ स्वतत्त्व के वेत्ता।
उनको नमें सुरेश वृन्द भक्ति समेता।।मैं.।।१५४।।
नेमिनाथ के पास में, अठरह सहस मुनीश।
जो नमते पद पद्म को, बनें भुवन के ईश।।२२।।
मुनि केवली हजार वहाँ शोभ रहे हैं।
उन दर्श मात्र से असंख्य पाप बहे हैं।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।११५५।।
मुनिराज विपुलमति ज्ञानि सात सौ पचास।
जो वंदते वे शीघ्र लहें ज्ञान का विकास।।
मैं पुण्य हेतु पुण्यराशि आपको नमूँ।
संपूर्ण सौख्य पाय, मृत्यु भीति को हनूं।।५६।।
चौदह शतक मुनीश अवधिज्ञान को धरें।
उन वंदते भवीक भेदज्ञान को धरें।।मैं.।।१५७।।
श्री पाश्र्वनाथ का समोसरण विशेष है।
मुनि तीन सौ पचास पूर्वधारि वेष हैं।।मैं.।।१५८।।
विक्रिय धरें मुनीश एक ही हजार हैं।
वे सर्व रिद्धि सिद्धि भरें बार-बार हैं।।मैं.।।१५९।।
शिक्षक मुनीश दश हजार नौ शतक कहे।
उन वंदते भवीक जगत अंत को लहें।।मैं.।।१६०।।
छह सौ कहे वादी मुनीश वाद में कुशल।
उन वंदते संपूर्ण पाप का उदय विफल।।मैं.।।१६१।।
पाश्र्वनाथ के पास में, सोलह सहस मुनींद्र।
मैं वंदूं नित भाव से, मिले शीघ्र पद इंद्र।।२३।।
कैवल्यज्ञान के धनी हैं सात सौ वहाँ।
घाती करम को घात अव्याबाध सुख लहा।।
सर्वार्थसिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूँ।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमू।।१६२।।
मुनिराज विपुलमति ज्ञान धारते वहाँ।
वे पाँच सौ प्रमाण उन्हें निम नमूं यहाँ।।सर्वार्थ.।।१६३।।
जो ज्ञान अवधि धारते तेरह शतक मुनी।
उन वंदते हि पापकर्म निर्जरा घनी।।सर्वार्थ.।।१६४।।
श्री वर्धमान का समोशरण अपूर्व है।
मुनिराज तीन सौ वहां पे ज्ञानी पूर्व हैं।।सर्वार्थ.।।१६५।।
विक्रिय धरें नव सौ मुनी तप तेज से वहाँ।
जो वंदते संपूर्ण ज्ञान पावते यहाँ।।सर्वार्थ.।।१६६।।
शिक्षक मुनी निन्यानवे शतक वहाँ रहें।
जिनके वचन पियूष से ही तृप्ति को लहें।।सर्वार्थ.।।१६७।।
वादी मुनीश चार सौ जिनधर्म प्रकाशें।
जो उनके पाद को नमें वे स्वात्म प्रकाशें।।सर्वार्थ.।।१६८।।
महावीर प्रभु के ऋषी, चौदह सहस प्रमाण।
वंदूं शीश नमाय मिले सौख्य निर्वाण।।२४।।
चौबिस जिनवर के समवसरण में ऋषिगण जो भी माने हैं।
वे सब अट्ठाइस लाख अष्ट चालीस हजार बखाने हैं।।
वे सब अरहन् मुद्राधारी, कामारि शत्रु के जेता हैं।।
मैं इनको प्रणमूँ बार बार, ये परमानंद के भोक्ता हैं।।२५।।
चौबीसौं जिनवर नमूं, समवसरण अभिवंद्य।
श्री गौतमगुरु सरस्वती, नमत मिटे जगपंद।।१।।
कुन्दकुन्द आम्नाय में, गच्छ सरस्वति मान्य।
बलात्कारगण ख्यात में, हुये सूरि जग मान्य।।२।।
इस युग के चूड़ामणी, शांतिसागराचार्य।
चारितचक्री धर्मधुरि, हुये प्रथम आचार्य।।३।।
इनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।
मुझे आर्यिका व्रत दिया, नाम ज्ञानमति धार्य।।४।।
सर्वसाधु स्तोत्र की, रचना अतिशयकारि।
गुरुभक्ती वश ही रचा होवे शिवसुखकारि।।५।।
सर्वसाधु स्तोत्र यह पढो पढ़ावो भव्य।
ज्ञानमती वैवल्यकर पावो निज सुख नव्य।।६।।
जब तक श्री जिनधर्म यह, जग में है अभिवंद्य।
गणिनी ज्ञानमती कृती, तब तक दे शिवपंथ।।७।।