शान्त चित्त हों निर्विकल्प हो, आत्मन् निज में तृप्त रहो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।
स्वयं स्वयं में सर्व वस्तुएं सदा परिणमिता होती है।
इष्ट अनिष्ट न कोई जग में, व्यर्थ कल्पना झूठी है।।
धीर वीर हो मोह भाव तज आतम—अनुभव किया करो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।१।।
देखों प्रभो के ज्ञान मांहि, सर्व लोकालोक झलकता है।
फिर भी सहज: मग्न अपने में, लेश नहीं आकुलता है।।
सच्चे भक्त बनो प्रभुवर के ही, पथ का अनुसरण करो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।२।।
देखो मुनिराजों पर भी, कैसे कैसे उपसर्ग हुए।
धन्य धन्य वे साधु साहसी, आराधन से नहीं चिगे।
उनको निज आदर्श बनाओ, उर में समता भाव धरो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।३।।
व्याकुल होना तो दु:ख से, बचने को कोई उपाय नहीं।
होगा भारी पाप बंध ही, होवे भव्य अपाय नहीं।।
ज्ञानाभ्यास करो मन मांही, दुर्विकल्प दुखरूप तजो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।४।।
अपने में सर्वस्व है अपना, पर द्रव्यों में लेश नहीं।
हो विमूढ़ पर में ही क्षण क्षण, करो व्यर्थ संक्लेश नहीं।।
अरे विकल्प अिंकचित्कर ही, ज्ञाता हो ज्ञाता ही रहो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।५।।
अन्तर्दृष्टि से देखो नित, परमानन्दमय आत्मा।
स्वयं सिद्ध निद्र्वन्द निरामय, शुद्ध बुद्ध परमात्मा।।
आकुलता का काम नहीं कुछ, ज्ञानानंद का वेदन हो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।६।।
सहज तत्त्व की सहज भावना, ही आनन्द प्रदाता है।
जो भावे निश्चय शिव पावे, आवागमन मिटाता है।।
सहज तत्व ही सहज ध्येय है, सहज रूप नित ध्यान धरो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।७।।
उत्तम जिन वचनामृत पाया, अनुभव कर स्वीकार करो।
पुरुषार्थी हो स्वाश्रय से, इन विषयों का परिहार करो।।
ब्रह्म भाव मय मंगल चर्या हो, निज में ही मग्न रहो।
व्यग्र न होओ क्षुब्ध न होओ, चिदानन्द रस सहज पिओ।।८।।