संसाराब्धेरपाररय तरणे तीर्थमिष्यते “आ. जिनसेन आदिपुराण 4/8
आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कहा है कि जो इस अपार संसार समुद्र से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवान का चरित्र ही हो सकता है। अत: जिनेंद्र भगवान का चरित्र तीर्थ है।
पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात्।वादीभसिंह सूरि-क्षत्रचूड़ामणि 6/4
वादीभसिंह सूरि ने क्षत्रचूड़ामणि में लिखा है कि सत्पुरुषों के स्पर्श से स्थान पवित्र हो जाते हैं जैसे- पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता हैं। तीर्थ धर्म की स्थापना करने वाले तीर्थकर और जितेन्द्रिय महर्षियों ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना कर जिस पुण्यभूमि से सिद्धत्व प्राप्त किया ऐसे पावन स्थल साक्षात् तीर्थ बन जाते हैं। पवित्रता के मूर्तिमंत पर्याय तीर्थकर और तीर्थ हमारी आस्था और निष्ठा केन्द्र है। ये पुण्य संचय के अक्षय स्रोत हें। विद्वान् मनीषियों की प्रबुदव् मेधा ने तीर्थ की पवित्रता और तीर्थकरों की अमृतवाणी को जनकल्याण के लिए लिपिबद्ध किया तो दूसरी ओर कुशल शिल्पियों ने अपनी अदूभुत कल्पना और सृजनशीलता से उसे पाषाण मेँ उत्कीर्ण कर मूर्तिमंत और जीवन्त कर दिया । अध्यात्म और कला का समन्वित रूप ये तीर्थ न केवल श्रमण संस्कृति की अपितु भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर हें। सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट तीर्थ ऐसी ही अनमोल धरोहर है। यह भारत की हृदयस्थली मध्यप्रदेश के पूर्वी निमाड़ (खण्डवा) जिले में पंथिया ग्राम के निकट सुरम्य शैल शिखर पर मान्धाता दीप के ईशान्य में रेवा (नर्मदा) और कावेरी के संगम पर स्थित है। यह ओंकारेश्वर रेलवे स्टेशन रो 11 किमी. दूर है। खण्डवा से यह 77. कि.मी. दूर है। तीर्थ सिद्धक्षेत्र सिद्धृवरकूट की भौगोलिक स्थिति, सिद्धत्व और महत्व अभिव्यक्ति निर्वाण काण्ड (प्राकृत) की इस गाथा में दृष्टव्य है-
रेवा णइए तीरे पच्छिम-भायम्मि सिद्धवर कूडे दो चक्की दह कप्पे आहट्ढ्य कोडि णिव्वुदे वन्दे ।। गाथा क्र. 11
अर्थात्
रेवा नदी सिद्धवरकूट पश्चिम दिशा देह जहँ छुट। द्वय चक्री दस कामकुमार, ऊठ कोडि वन्दो भव पार ।।
रेवा नदी के पश्चिम में स्थित सिंद्धवर कूट से से दो चक्रवर्ती दस कामदेव तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि तथा रावण के पुत्र मोक्षगामी हुए “अत: यह निर्वाणस्थली वन्दनीय है। बोधप्राभृत की गाथा 27 की व्याख्या में भट्टारक श्रुतसागर ने क्षेत्र का नाम सिद्धकूट बताया है। भट्टारक गुणकीर्ति, विश्वभूषण आदि लेखकों ने भी सिद्धकूट के रूप में ही इसका उल्लेख किया है। साढ़े तीन करोड़ मुनियों का सिद्धिस्थान होने के कारण इस पर्वत-शिखर और क्षेत्र का नाम ही सिद्धवरकूट हो गया ” दो चक्रवर्ती श्री मघवा चक्रवर्ती व श्री सनतकुमार चक्रवर्ती हैं। दस कामकुमार के नाम इस प्रकार हैँ – श्री सनतकुमार, श्री वत्सराज, श्री कनकप्रभ, श्री मेघप्रभ, श्री विजयराज, श्री श्रीचन्द्र, श्री नलराज श्री बलिराज, श्री वासुदेव तथा श्री जीवन्धर कुमार कामदेव ।सुहावना सिद्धवरकूट-राजेन्द्र जैन ‘महावीर’ पृ.12, सिद्धवरकूट से प्राप्त सबसे प्राचीन मूर्तियों पर तेरहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक की तिथियाँ अंकित हैं। तीर्थंकर चन्दप्रभ की मूर्ति की आधारशिला पर ई.स. 1222 का लेख है”मध्यप्रदेश का जैन शिल्प, नरेश कुमार पाठक पृ.36 ऐतिहासिक दृष्टि से काल के विषय में अद्यापि गहन शोध अपेक्षित है। भट्टारक महेन्द्रकीतिंजी ने संवत् 1935 में स्वप्न देखकर खोज की तो संवत् 1545 की तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति तथा आदिनाथ भगवान की विक्रम संवत् 11 की मूर्ति प्राप्त हुईं एवं विशाल खण्डित मंदिर परिसर दिखाई दिया ” भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग-3 -बलभद्र जैन, पृ.319-20 जीर्णोद्धार के पश्चात संवत् 1951 में प्रतिष्ठा द्वारा यह क्षेत्र प्रकाश मेँ आया। भट्टारकजी के अथक प्रयत्न, संतों की वाणी, धर्मानुरागियों और श्रेष्ठियोंं को आस्था और सतत प्रयासों से क्षेत्र का जीर्णोद्धार तथा निरंतर विकास होता रहा है। वर्तमान में यहाँ 13 मन्दिर, 1 कुण्ड, प्राचीन पाण्डुक शिला तथा महावीर वाटिका है। वर्तमान में प्रस्तावित योजनाओं मेँ आचार्य श्री विद्यासागर हॉल तथा तेरह द्वीप एवं 458 चैत्यालय निर्माण क्रियाशील है। दर्शनक्रम के अनुसार मंदिरों का परिचयसुहावना सिद्धवरकूट -राजेन्द्र जैन महावीर पृ.।0 से 14 इस प्रकार है-
मंदिर नं॰ 1:- मंदिर में सफेद संगमरमर से निर्मित तीर्थकर नेमिनाथ की 1फुट 7 इन्च उन्नत पद्यमासन् प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् 1951 में हुई। यहाँ अष्टधातु से निर्मित 1फुट 3इंच की आदि तीर्थकर ऋषभदेव तथा तीर्थकर श्री चन्द्रप्रभ की मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान है। मंदिर में श्री गजकुमार, सुकुमाल मुनि तथा भगवान नेमिनाथ कै वैराग्य के समय के आकर्षक चित्र भी बने हुए हैँ।
मंदिर नं.2:- में तीन वेदियॉ है। मूल वेदी में श्री शांतिनाथ की पद्मासनस्थ श्वेत पाषाणमयी 3फुट 2इंच की प्रतिमा है तथा पास में कृष्णवर्णी श्री पार्श्वनाथ तथा श्वेतवर्णी श्री आदिनाथ की मनोहर प्रतिमा है। दूसरी वेदी में भगवान महावीर तथा तीसरी वेदी में भगवान बाहुबलि व मुनिसुव्रतनाथजी तथा चन्द्रप्रभ भगवान की आकर्षक प्रतिमाएँ हैं। इस मंदिर में शास्त्र भंडार है जिसमें आचार्य कुंद-कुंद का शास्त्र लिखते हुए का सुन्दर चित्र भी है।
मंदिर नं.3:- में संगमरमर से निर्मित सुन्दर छत्री है। जिसमें दो चक्री तथा दशकामकुमार के चरण चिह्न है।
मंदिर नं. 4:- में श्वेतवर्णी संगमरमर से निर्मित भगवान बाहुबली की सवा सात फुट उत्तुंग प्रतिमा विराजमान है।
मंदिर नं. 5:- में सफेद संगमरमर से निर्मित मानस्तंभ के ऊपर चौमुखी मदिर में तीर्थंकर महावीर की मनोज्ञ प्रतिमाएँ स्थापित हैं। इस स्तंभ की दीवार पर नीचे पाषाण में आकर्षक चित्र भी उत्कीर्ण है।
मंदिर नं.6:- मेँ सोलहवें तीर्थकर श्री शांतिनाथजी की अष्टधातु निर्मित पद्मासन प्रतिमा है। इसके आसपास सिद्धवरकूट के मोक्षगामी दो चक्री और दस कामकुमार मुनियों की तपस्यारत अष्टधातु से निर्मित मनोहारी मूर्तियाँ स्थापित है। इस मदिर की वेदी और शिखर पर अत्यन्त मनोहारी स्वर्णमयी चित्रकारी की गई है।
मंदिर नं.7:- में श्यामवर्णी पाषाण से निर्मित तीर्थंकर पार्श्वनाथ की 2फुट 11इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा अतिशयकारी और मनमोहक है जो संवत् 1951 मॅ भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी द्वारा प्रतिष्ठित है। यहॉ अखंड ज्योति व श्री क्षेत्रपालजी भी स्थापित है।
मंदिर नं.8:- इसी परिसर में एक छोटा सा मंदिर है। इसमें देशी पाषाण की 1फुट 2इंच खइगासन मुद्रा में श्री आदिनाथजी की प्रतिमा है तथा दो चक्री दस कामकुमार मुनियों के प्राचीन चरणचिह्र विराजमान है। संवत् 1951 में भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजी के समय प्रतिष्ठित अति प्राचीन तीर्थंकर महवीर की खड्गासन प्रतिमा है। पार्श्व में श्री भगवान पद्मप्रभुजी तथा श्री मल्लिनाथजी पद्मासन प्रतिमाएँ विराजित हैँ।
मंदिर नं.9:- में भगवन् महावीर की 4फुट उन्नत मूंगिया वर्ण की खड्गासन प्रतिमा है। यह भी संवत् 195। में ही प्रतिष्ठित है। इसी वेदी पर भूरे एवं श्वेतवर्णी पाषाण की श्री पद्मप्रभ एवं श्री मल्लिनाथ की प्रतिमाएँ विराजमान है।
मंदिर नं 10:- में मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की कृष्णवर्णी पाषाण से निर्मित पद्मासन अतिप्राचीन प्रतिमा है। इसके पादपीठ पर कोई लेख अंकित नही है। संभवत: यह खोज के समय भट्टारकजी को प्राप्त तथा संवत 1951 में प्रतिष्ठित हुई है इसके पार्श्व मेँ तीर्थंकर आदिनाथ तथा श्री चन्द्रप्रभजी कृष्णवर्णी पद्मासन मूर्तियॉ हैँ।
मंदिर नं.11:- में मूल नायक श्री अजितनाथजी की 1फुट 6इंच श्वेतवर्णी पद्मासनस्थ प्रतिमा है पास में श्री चन्द्रप्रभजी की 9इंच उन्नत प्रतिमाएँ विराजमान है।
मंदिर नं.12:- में बडे मंदिर के ऊपर के छत पर एक वेदी में जिसमें आदिनाथजी की संवत् 11 की कृष्णवर्णी पद्मासनस्थ अतिप्राचीन प्रतिमा है। इसकी चरणचौकी पर नागरी लिपि में लेख भी उत्कीर्ण र्हैं”अ) “संवत….11 ऐकन ऐकनपै वैसाष मासे शुक्ल पक्षे तिथौ 9 गुरूवासरे मूलसंघे गणे बलात्कार श्री कुन्दकुन्दचारचारीय आमनाय तत् उपदेसात् श्री हेमचन्द्र असारीय नग्र सीदपुर हूबड़ ग्याति लगूसा सांषा, भवेरज गोत्र साहाजि दयचन्दजी भारीया सुरीबाई बीजा दीच वषप नीटाकमीनी।” भारत के दि. जैन, पं बलभद्र जैन पृ.322 आ) भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ पश्चिम मध्यप्रदेश: 13 वी शती तक डॉ.कस्तूरचन्द्र जैन सुमन पृ-47 प्रकाशक- दिगम्बर जैन साहित्य संस्कृति संरक्षण समिति दिल्ली वेदी में श्वेतवर्णी पद्मासन में तीर्थंकर पार्श्वनाथ श्री चन्द्रप्रभु, श्री आदिनाथ और श्री पार्श्वनाथ की (फनरहित) प्रतिमाएँ हैं। इन मूर्तियों की स्थापना 12 नवम्बर 1962 संवत् 2019 में की गई।
मंदिर नं 13:- यह बड़े मंदिर के नाम से विख्यात है। यहॉ क्षेत्र के मूल नायक श्री संभवनाथजी की 3फुट 1इंच श्वेतश्म पद्मासन मुद्रा में ध्यानावस्थित अतिप्राचीन भव्य प्रतिमा वि.सं. 1951 में प्रतिष्ठित है। पार्श्व में भगवन् संभवनाथ तथा चन्द्रप्रभु की श्वेतवर्णी प्रतिमा सहित अष्टधातु की 37 प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित है। यहाँ पांच वेदियाँ है। यहाँ भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजी की गादी भी विद्यमान है तथा गणिनी, आर्यिका, ज्ञानमति की प्रेरणा से निर्मित हस्तिनापुर के जम्बुदीप रचना की प्रतिकृति स्थापित है।
सिद्धवरकूट क्षेत्र के समीप सर्वरोगमुक्ति तथा कष्ट निवारक कुण्ड स्थित है। कुण्ड के समीप ही अति प्राचीन पाण्डुकशिला है जो पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। महावीर वाटिका:- सिद्धवरकूट क्षेत्र के मुख्य द्वार के सामने महावीर वाटिका है” इस मनोहर वाटिका में मुनि श्री 108. बाहुबली सागर महाराज की समाधि पर सुन्दर चरण और छत्री बनी हुई है। यह मुनिश्री 108 आनन्दसागर जी महाराज का भी समाधिस्थल है। स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से सिद्धवरकूट अनुपम है। प्रतिमाओं के भव्य रूप में भावाभिव्यंजना का भी सजीवांकन है। मंदिर के उन्नत शिखर अत्यन्त मनोज्ञ है। मंदिर में चित्रों का अंकन और वर्णसंयोजन नयनाभिराम है। मंदिर की वेदियां, द्वार, यक्ष-यक्षी, शासनदेवी, चंवरधारी, लांक्षन, चिह्न आदि का शिल्पांकन चित्ताकर्षक है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र. अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन चतुर्दशी से प्रारंभ होकर त्रिदिवसीय मेला लगता है। इसमें ध्वजारोहण, पूजन, विधान, प्रवचन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। असंख्य यात्री दर्शनलाभ लेते हैं। आबालवृद्ध नौकाविहार का आनन्द लेते हैं। ओँकारेश्वर बाँध बनने से यह सुन्दर प्राकृतिक पर्यटन स्थल बन गया है। यहाँ बना हुआ झूला पुल तथा बॉध पर बना हुआ पुल दर्शनीय है। यहॉ विशाल जलाशय भी बन रहा है। पनबिजली योजना का कार्य क्रियाशील है। त्यागी व्रतियों एवं मुनियों हेतु समुचित व्यवस्था है। यात्रियो कै आवास को भी सर्वसुविधायुक्त संपूर्ण व्यवस्था है। नर्मदा के एक तट पर सिद्धवरकूट है तो दूसरे तट पर ओंकारेश्वर ” जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट का वैदिक परंपरा के तीर्थ एवं द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ओन्कोरेश्वर से गहरा ऐतिहासिक संबंध है । संपूर्ण क्षेत्र पूर्व में मांधाता के नाम से प्रख्यात था, इक्ष्वाकुवंशी राजा मान्धाता तथा चक्रवर्ती मघवा संभवत: एक ही हो सकते हैं” सिद्धवरकूट कतिपय तथ्य, श्री सूरजमल बोबरा, का लेख अर्हतवचन, पृ. 33-36, वर्ष 19, अक 3 जु. सि. 2007 ओंकारेश्वर की पहाड़ी पर प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष हैं जो पुरातत्व विभाग के अन्तर्गत हैभारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग-3 -बलभद्र जैन पृ. 321 । जहॉ खुदाई से जैन कलावशेषों के प्रचुर प्रमाण मिलना संभावित है” पुरातात्विक, ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य एकत्र कर सिद्धवरकूट के समग्र वैभव को ज्ञात करना गहन शोध का विषय है” सिद्धवरकूट सिद्धत्व और साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन है। मूर्ति एवं मंदिर शिल्प का तो यह मनोहर उदाहरण है ही आत्माराधना का श्रेष्ठ केन्द्र भी है। यहॉ पर्वत की ऊँचाईयों, नदियों की प्रवाहशीलता, वायु की शीतलता, बाह्य प्रकृति का अंर्तजगत के साथ एकत्र स्थापित करती है। सिद्धवरकूट के पौद्गलिक पर्यावरण का कण कण अध्यात्म की सुरभि से सुवासित है। यह सिद्धों की तपोभूमि रही है। यहाँ केवल रेवा और कावेरी का संगम ही नहीं अपितु सिद्धत्व और पावनत्व का संगम है। अध्यात्म और धर्म का संगम है। घण्टानाद एवं पूजन की स्वरलहरियों का संगग है। पुरातत्व और कला का संगम है। वैदिक एवं श्रमण संस्कृति का संगम है। प्राकृतिक ओँकारमय यह स्थली सिद्धत्व की पर्याय है। सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् की मनोरम अभिव्यक्ति है।
डॉ. संगीता मेहता
‘मयंक’, ई.एच.37 स्कीम नं.54, इन्दौर,