मोहन— जो—दारो सभ्यता से पूर्ववर्ती सेंधव लिपि के वाचन एवं उद्घाटन के प्रयास अद्यतन सफल नहीं हो सकते हैं। इसका प्रमुख कारण योरोपीय विद्वानों की श्रमण संस्कृति के प्रतिमानों एवं प्रतीकों से अनभिज्ञता एवं कतिपय भारतीय विद्वानों का पूर्वाग्रह रहा है। वैदिक परम्परा के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में उसकी रचना के समय गतिमान श्रमण संस्कृति के प्रचुर उल्लेख हैं जो श्रमण संस्कृति की प्राचीनता के प्रबल साहित्यिक प्रमाण हैं। श्रमण संस्कृति के प्रतीकों की विस्तृत जानकारी के आधार पर ही हड़प्पा की सीलों, श्रवणबेलगोल की चट्टानों, गिरनार की सीढ़ियों एवं बावनगजा की मूर्तियों पर उपलब्ध संकेतों की पहचान की जा सकती है। इसके आधार पर ही सैंधव लिपि के वाचन का पथ प्रशस्त होगा। पिछली सती में सिन्धु घाटी सभ्यता के विषय में सम्पूर्ण विश्व ने रुचि लेते हुए अथक परिश्रम से १०० वर्षों में कितनी राशि, कितना समय और कितना श्रम उसे प्राप्त करने और पढ़ने समझने में लगा दिया उसका अनुमान लगाकर आश्चर्य होता है किन्तु आज तक भी वह सभ्यता ‘‘भारतीय परिवेश’’ की होकर भी सबके लिए ‘‘अजूबा’’ से बनी हुई है। ऐसा क्यों हैं ? ‘अपनी’ होकर भी वह लिपि और संस्कृति भारतीयों की भी समझ में क्यों नहीं आ रही है। इसका कुछ न कुछ गंभीर कारण अवश्य होना चाहिए। वह पाँच नदियों वाले कछार से होते हुए अपने संकेत सुदूर योरोप, स्वीडन, रूस, ग्रीस, ईजिप्त, अरब, तेहरान, ईरान, अफगानिस्तान, ब्रिटिश, भारत इंडोनेशिया, चीन, जापान आदि सभी देशों में दर्शा चुकी है। ऐसा जादू फैला रखा है उस सभ्यता के दृष्ट संकेतों ने कि सारी ही मानव सभ्यताओं की वह ‘‘मूल’’जैसी प्रतीत होती है। सभी सभ्यताएँ उसमें अपना परिचय खोजने के लिए आकुल प्रतीत होती हैं। उसे समझने पढ़ने के लिए उसकी संकेत लिपि को अरबी, ईजिप्त, यूरोपीय, चीनी, जापानी और भारतीय प्राच्य संस्कृतियों से जोड़ते हुए पढ़ने की सारी चेष्टाएँ अब तक सफल नहीं हो पाई हैं। अनेक प्रयत्नों के बाद भी विश्व के दिग्गज विद्वान, भाषविद्, नृतत्वशास्त्री, इतिहासकार, पुरातत्वज्ञ, पंडित, आचार्यादि उसे पढ़ने में संतुष्टि नहीं पा सके हैं। सभी ने चाहा है कि उन्हें भी ‘‘रोजेट स्टोन’’ जैसी कोई दुभाषी कुंजी प्राप्त हो जाती तो फिर वे सैंधव लिपि सहज ही पढ़ पाते। कुंजियाँ तो वास्तव में चारों ओर बिखरी पड़ी हैं, किन्तु उनको उनसे अनभिज्ञता और एकांगी दृष्टि ही प्रमुख कारण रही है कि वे उन्हें देखकर भी नहीं देख पाए।
आधुनिक ब्राह्मी में सैंधव लिपि
आधुनिक ब्राह्मी में सैंधव लिपि के २७ संकेताक्षर देखे जाते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने सैंध लिपि के संकेतों को स्वरों में बांधने की चेष्टा करते हुए, ब्राह्मी को आधार बनाकर कुछ संकेत पढ़ लिए, किन्तु जब सम्पूर्ण लेख पढ़ने बैठे तो कोई सार्थक अर्थ समझ नहीं आया। इतनी बारीकी से आंकी गई सुंदरतम लिपि भला अर्थरहित तो होगी क्यों ? इसलिए अलग—अलग प्रयास किए गए। कुछ विद्वानों ने उसे वैदिक संस्कृत के माध्यम से पढ़ना चाहा तो किसी ने माहेश्वर सूत्र के आधार पर। किसी ने गायत्री मंत्र को माध्यम बनाया तो किसी ने अनुष्टुप छंद को। उसमें व्याकरण ढूंढ रहा था तो कोई महाभारत। किसी को उसमें शिवपिण्डी दिखी तो किसी को प्रेत। स्पष्ट कायोत्सर्गी मुद्राओं को देखकर भी अनदेखा कर दिया गया। अनेक विद्वानों यथा; मुनि विद्यानंदजी, रामप्रसाद चंद्रा, प्राणनाथ विद्यालंकार, आर. डी. बनर्जी ने नग्नपुरुष के धड़ तथा कुछ अन्य सीलों पर अपने—अपने अभिमत देते हुए कदाचित् ‘‘जैन परम्परा से साम्य’’ भी दर्शाया, किन्तु विद्वानों की भीड़ ने ध्यान नहीं दिया। पुराविदों और उन विद्वानों की इतनी लम्बी सूची है कि उनके नाम पढ़ते—पढ़ते ही मेरा सारा समय निकल जाएगा। उनके अथक परिश्रम से प्राप्त ज्ञान और अभिव्यक्त सामग्री को जब मैंने देखा तो मुझे पहचानने में देर न लगी कि वे सभी श्रमण परम्परा की संकेतात्मक अभिव्यक्ति के प्रतीक थे। सभी विद्वान अपनी—अपनी पारम्परिक धार्मिक भूमिका से आगे बढ़ रहे थे और चेस्टारत थे कि वह परम्परा उन्हें सैंधव पुरालिपि में मिल जावे। विदेशी मूल के विद्वानों ने उसे रेबस पद्धति से पढ़ना चाहा, किन्तु भारतीय मूल संस्कृति से वे अनभिज्ञ होने से जिस दृष्टि से वे सैंधव लिपि देख रहे थे वह वास्तविक से मेल नहीं खाती थी। ऋग्वेद सबसे प्राचीन एकमात्र ग्रंथ है, जिसे आधार बनाया जाना स्वाभाविक था। ऋग्वेद में भी सैंधव सभ्यता और परम्परा को दर्शाने वाला जैनधर्म उपस्थित है। बार—बार ऋषभ और वृषभ का उल्लेख इसकी पुष्टि करते हैं।ऋग्वेद संहिता, सतारा, १९४०, १०/१३६/ १, पृ. ७४४
‘‘केशयग्निं केशी विषं केशी बिर्भित रोदसी,
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योति रुच्यते।।’’
ऋग्वेद, १०/१३६/२, पृ. ७४४
‘‘मुनयो वातरशना: पिशंगा वसते मला,
वातस्यानु घ्रािंज यन्ति यद्देवासो अविक्षत।।’’
ऋग्वेद, १०/१६६/१, पृ. ७५८
‘‘ऋषभं मा समानानां सप्त्नानां विषासहिम्
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्।
‘‘ऋग्वेद, १/८९/६, पृ. ६१
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
ऋग्वेद, १०/१७८/१, पृ. ७६२ ऋग्वेद की उक्त ऋचाएँ ही प्रमाण हैं कि ऋग्वेद ने जैनधर्म को मान्यता देकर उसकी शाखा बनना स्वीकार किया। ‘‘ऋक्’’ अर्थात् शाखा। वह पूर्व प्रचलित श्रमणधर्म की एक शाखा रूप २७ संहिताओं को संजोकर रचा गया ग्रंथ है, जिससे पूर्व में संहितायें, निघंटु, निर्युक्ति आदि रचे जा चुके थे, भले ही वे आज उपलब्ध नहीं हैं। ऋग्वेद यह भी आदेशित करता है—कि देखकर भी अनेक नहीं देखते और सुनकर भी नहीं सुनते……।
‘‘उत्वा त्व पश्यत्रा ददर्श वचमुख श्रवण न श्रणेत्त्येनम।……’’
और यही सिन्धु घाटी के प्रतीकों के साथ घटा दिखता है।
एक चित्र को देखकर दर्शक
एक चित्र को देखकर दर्शक अपनी— अपनी योग्यतानुसार (परिचय और भूमिका के अनुसार) ही उसे आंकता है। जब विविध प्रकार से पढ़ी जाकर सैंधव संस्कृति और लिपि पर सामग्री प्रकाशित हो रही थी तब अंग्रेजी में होने के कारण न तो जैन विद्वानों ने उस पर ध्यान दिया और न पंडितों ने। वे अपने आप की परम्परागत शैली में संतुष्ट और लीन थे। विदेशी विद्वानों ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। वे अत्यन्त धैर्य से अपनी—अपनी शैली में ऐसे आगे बढ़ रहे थे जैसे पाँच अन्धे एक हाथी को देखने निकले थे। सभी अपने प्रयासों में सही थे, किन्तु एकांगी थे। यह मेरी यहाँ प्रर्दिशत सामग्री से स्पष्ट हो जाता है। उनकी चक उन्हें समझ नहीं आ रही थी। उनके द्वारा लिखा विशाल सात्यि अत्यन्त मूल्यवान है, क्योंकि उसे ही आधार बनाकर मेरा अध्ययन आगे बढ़ा है। जैन बंधुओं को व्यपार एवं धर्माराधना से समय ही नहीं बचता कि वे इस ओर ध्यान देते, किन्तु यह जानना उचित होगा कि जैनधर्म न तो महावीर से प्रारंभ हुआ है और न आदिनाथ से। जैसाकि अनेक इतिहासकार, भ्रमवश सोचते हैं। सच पूछें तो यही एक ‘सनातन’ भारतीय धर्म है जिसे सम्पूर्ण परम्परा के रूप में सैंधव संस्कृति उजागर करती है। मेरी इस बात पर विद्वान कदाचित् मुझे नकार दें किन्तु सैंधव संस्कृति को समझने की एकमात्र राह यही जैनधर्म के सिद्धांत और पुरासंपदा है, जिसे आज तक जिन सिहासन के रूप में उसके चार मूल पैरों ने सुरक्षित रखा है। प्रत्येक सैंधव सील इसी रहस्य की उद्घोषणा करती है। विश्वविद्यालयों में कार्यरत प्रोपेसरों ने भी कोई रुचि इस दिशा में नहीं ली और इस तरह जो भी शोध के धरातल पर इस दिशा में छपता गया इसका न तो कोई खण्डन किया गया न चर्चा की गई, न इसकी दिशा बदली। तिस पर भी आज तक कोई निश्चित पद्धति सैंधव पुरालिपि को पढ़ने हेतु निर्धारित नहीं का जा सकी है। इसी बात का लाभ लेते हुए जब मैंने सैंभव लिपि को श्रमण पद्धति से पढ़ना प्रारंभ किया तो आश्चर्यजनक सफलता हाथ लगी। अपार श्रमण खजाना मेरे सामने लिखित सामग्री एवं जैन तीर्थ जैन क्षेत्रों की शिलाओं पर अंकित भण्डार के रूप में फैला पड़ा था। कोई ओर छोर नजर नहीं आता था कि कहाँ से प्रारम्भ करूँ। तभी सैंधव लिपि से साम्य रखता एक अंकन श्रवणबेलगोल पर दिखा फिर उस्मानाबाद की जैन गुफाद्वार पर, फिर जिनबिम्बों पर, भुवनेश्वर की खारवेल की गुफा के नैर्सिगक भाग पर, फिर गिरनार की सीढ़ियों और धरसेनाचार्य की गुफा में और वह खजाना विस्तार लेता ही गया।
सैंधव सभ्यता गणसभ्यता मानी गई है, जिसमें कोई भगवान नहीं, नेता के रूप में कोई मानव ही पूज्य था। सैंधव मानव कृषक था। कपास, गेहूँ, चावल, जौ आदि की कृषि करता अहिंसक, गोपालक था। तीन स्तरों पर उसकी क्षेत्रीय बसाहट थी। केन्द्र में आदर प्राप्त नेता और उसके नजदीकी, दूसरे स्तर पर वणिक और नीचे की ओर कृषक तथा अन्य हस्तकर्मी। उनका शिल्प बहुत विकसित और प्रखर था। पानी का संधारण और वितरण अत्यन्त सुव्यवस्थित था। बाँधों को नहर द्वारा नगर और नालियों तक जोड़ा गया था। जिसे पुराविद् पाषाण युग कहते हैं, वह तो आज भी हमारे गाँवों में विद्यमान है और बिजली का साधन ना रहने पर हमारे ही बीच में दिख जाता है। वही ओखल—मूसल, वही चक्की—चूल्हा और सिल—लोढ़ा, जिसे हम पाषाणयुगीन कहते हैं। उस सभ्यता के पास इन सीलों के अंकन की न केवल उत्कृष्टतम कला थी, सुन्दर मकान और सडके थीं, नालियाँ थीं, भट्टियाँ थीं, सौंदर्य की कला सामग्री थी, मनके, चूड़ियाँ, जेवर और खिलौने थे, वैलेण्डर था, कालगणना थी, नाप तौल थे, रिकार्ड थे, खेती की सुव्यवस्था थी, चाक था, बैलगाड़ी और रथ थे, लोहा, तांबा, चाँदी आदि धातुएँ भी भट्टियों से निकाली जाती थीं, पकी र्इंटों के चूर्ण से बनाए चूल्हे आज भी गाँवों में घर—घर प्राप्त हैं जिन पर निज्य भोजन पकता है। मिट्टी के बर्तन और घड़े हैं, कुल्हड़ और सकोरे भी। कुएँ हैं और पनघट भी। कुएँ की सैंधव युगीन परम्परा आज भी जैन घरों और मंदिरों में देखी जा सकती है, जो श्रमणों की एक अतिआवश्यक परम्परा है। इस तरह आज भी पाषाण युग से लोभ, ताम्र और चाक युग की परम्परा दृष्ट गोचर हो जाती है।
भगवान के रूप में जिस नेता
भगवान के रूप में जिस नेता की सैंधव युग में प्रधानता थी वह आज भी चार परमेष्ठी के रूप में पूजित हैं। वह मोक्षपंथी अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और मुनिगण हैं जो मौन भाषा से ही अधिकांश समझे जा सकते हैं। तीर्थंकरों, अरहंतों, केवली के रूप में वे आज भी पूज्य हैं। वीतराग निग्र्रंथों का यह धर्म अत्यन्त विकसित होकर भी समाज का ‘‘सचेलक’’ और मोक्षपंथी को ‘‘अपरिग्रही अचेलक’’ मानता है। वे शस्त्र रहित कर्महन्ता हैं। चारों कषायों का त्याग कर रत्नत्रय ही जिनका आभूषण रहा है। जिन्होंने अपने कर्मों के पर्वत और नोकर्म (शरीर) को कृश करने हेतु स्वसंयम को धारणकर चारों कषायों को त्यागकर समता में पदार्पण करते हुए अपने उपयोग को निज की ओर मोड़ते हुए गुणस्थानों पर उन्नति की। सर्प सीढ़ी के खेल की स्वावलोकन की यह परम्परा अब तो खेल रूप यानी जाने लगी है। स्वावलोकन करते हुए उन्होंने अपने संयम को स्थिर किया और उसी में निरन्तर, उत्तरोत्तर प्रगति की। चितन जब अंतर्मुखी हुआ और गहराया तो इस असार संसार के कोई वैभव उन्हें बाँध न सके। वे सप्त तत्त्वों के चितन में रमते हुए अपने जीवनाधार शरीर को भी भूल गए। उस भूलने में भी उनका संयम चरमोत्कर्ष पर रहा और उन्हें कब सल्लेखना में उतार गया उन्हें ज्ञात भी नहीं हुआ। चार ज्ञानों के ज्ञानी जब शुक्लध्यानों में उतरे तो पृथक्तावितर्व सुविचार से एकत्ववितर्व सुविचार ने उन्हें न केवल कर्मक्ष्य कराते सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती के साथ—साथ केवलदर्शन और केवलज्ञान में उतार कर चारों घाति प्रकृतियों का विनाश किया। बल्कि संसार पार कराने वाला अरहंत पद भी दिया। इसकी अभिव्यक्ति सैंधव सीलों में आश्चर्यजनक रूप से अभिव्यक्त हुई हैं दिव्य ध्वनि झंकुत होने लगी। कोई समझ न पाया उस महान तपस्वी का आराधन जो चतुराधन और पंचाचारों से पार हुआ। उस झंकार में इतना आकर्षण था कि भव्य उनके पीछे—पीछे चल पड़े और समवसरण रच गया। उत्साुक गणधरों ने जब ज्ञानमय प्रश्न किए तो तपस्वी के मुख से बिना प्रयास उत्तर बहने लगे और उस ज्ञान गंगा में सभी सराबोर हो गए। वे सभी निकट भव्य थे।
ऐसी अभिव्यक्ति या तो सैंधव
ऐसी अभिव्यक्ति या तो सैंधव प्रतीकों में प्रर्दिशत है या जैन पुरा— साहित्य में। इसलिए मेरा आग्रह है कि भारत के समस्त धर्मों में उस मूल संस्कृति की झलक होने के बाद भी जो साम्य जैन दर्शन, परम्पराओं, सिद्धांतों और पुरा अवशेषों द्वारा जैन खगोल, भूगोल से प्राप्त होता है, वहीं सैंधव प्रतीकों में अक्षरश: तथा पूर्णता से मिलता है। अत: कहना पड़ता है कि सैंधव विरासत जैनधर्म का एक मूल संदेश लिए विश्व के सामने अपना पुरा वैभव लिए खड़ी है। उसे उसी की दृष्टि से पढ़ें, देखें, समझें तो ऐसे आनंद की प्राप्ति होगी, जो निर्विकल्प समाधि से जोड़ता है। सिन्धु लिपि और उसकी संस्कृति फिर अजूबा नहीं, आत्मा की परम अनुभूति बन जायेगी जो ‘‘नर से नारायण’’ बनने की कुंजी है। यह मौन सांकेतिक उपदेश किसी अन्य को समझाने हेतु नहीं, स्वयं समझकार आत्मा की गहराई में उतरने हेतु सवसंबोधन है। पाठकगण कहेंगे कि क्या तब सभी जन साधु ही थे ? अथवा आत्मपथी थे। नहीं, संसार के व्यापार, कलाकलपों में व्यस्त सामान्यजनों की तब भी अनेक क्षेत्रीय और प्रमुख भाषाएँ Nही होंगी, किन्तु हम सैंधव पुरा युग की जो लिपि पढ़ रहे हैं, वह निश्चित ही सुविचारों पर अंकित ऐसी लिपि है जो किसी तीर्थ विशेष क्षेत्र की याद दिलाती हो—जैसे कि श्रवणबेलगोला के तीन शिरों वाले यज्ञ का स्मरण कराती हुई ५ सीलें। उस सैंधव पुरालिपि को स्वर देना अनुचित नहीं है, किन्तु उन संकेतों का संदेश समझना अत्यन्त आवश्यक है। उनमें ढ़ाईद्वीप है, जम्बूद्वीप है। ओंकारी रत्नत्रयी दिव्यध्वनि है, जो पाँच सैंधव मुहरों से संजोकर बनी है। वही लिपि में अंकि ॐ का धवला में उपयोग हुआ है। त्रिलोश शोध संस्थान है। जैन जाप के तीन सुमेरु मनके हैं।
पंचमगति वाला स्वस्तिक है चारों कषायों का त्याग है। स्वसंयम और गुणस्थान हैं। प्रतिमा धारण है, अदम्य पुरुषार्थ है। अणुव्रत हैं, अंतर्मुखी होकर सम्यक्त्व धारण है, त्रिगुप्ति है। चतुराधन, पंचाचार, रत्नत्रय, षट्द्रव्य, सप्ततत्त्व चितन है। अष्टकर्म हैं, नौ पदार्थ हैं, उपशम—क्षयोपशम और क्षपणा है। जिनिंसहासन है, शार्दूल है। ज्ञान और ध्यान है, केवलदर्शन है। माध्यस्थ भाव है, द्रव्य लिग और भावलिंग है। वीतराग द्वादश तप है। दशधर्म है, चार अनुयोग है और १२ अंग है। बारह भावना है, सोलहकारण भावना है, अष्ट वैभव और वैय्यावृत्ति है, पिच्छी है, सल्लेखना है, ब्रह्मचर्य है, नय हे, चर्तुिवध संघ है। केवली का लोकपूरण है, मानस्तंभ है, जिनध्वजा है और षट्लेश्या है। तीर्थंकरों के लांछन है, प्रथमानुयोग के अनेक दृष्टांत है आदि—आदि। जिन्हें पहचानकर भव्य आनंदित हो उठेंगे। एरण्ड के बीजवत ऊध्र्वगामी छिटकती हुई आत्मा है या फिर एक पक्षी की तरह आसमान में उड़ता भटकता एकाकी प्राणी है। तीर्थ शिखर है और उन पर तप करता प्रसिद्धि प्राप्त तद्भवी, निकट भव्य दूरभव्य भी। अंतहीन भटकान भी है। विग्रह गति और चौबीस ठाणा भी। अर्हंत् हैं, केवली है और विभिन्न परिस्थितियों में ठहरे साधुगण। ऐसा कोई पक्ष जिनधर्म का बाकी नहीं रहा है, जो उस सांकेतिक भाषा में मुखरित न हुआ हो। हम इन सीलों के अवलोकन से जैन उद्बोधन अत्यन्त सहज भाव से समझ जाते हैं। इसलिए कहना अनुचित नहीं होगा कि सैंधव पुरालिपि और उसकी संकेत लिपि श्रमण धर्म की मौन अभिव्यक्ति ही है। जिसे पढ़ने, समझने के लिए श्रमण परम्परा के सिद्धांतों से परिचित होना अति आवश्यक है। उसके बिना विद्वान सैंधव लिपि का ज्ञान और मर्म नहीं समझ पायेंगे।