यह मेरु सुदर्शन त्रिभुवन में, सबसे ऊँचा कहलाता है।
योजन इक लाख कहा ऊँचा, इक सहस नींव में जाता है।।
चालिस योजन चूलिका कही, वैडूर्यमणीमय प्यारी है।
यह भू पर चौड़ा दश हजार, इसकी छवि जग से न्यारी है।।१।।
पृथ्वी पर भद्रशाल वन है, नंदनवन पांच शतक ऊपर।
इससे साढ़े बासठ हजार, योजन पर सौमनसं सुन्दर।।
इससे ऊपर छत्तिस हजार, योजन जाकर पांडुक वन है।
चारों वन में शुभ चार-चार, जिनमंदिर अतिशय सुन्दर है।।२।।
इकसठ हजार योजन तक गिरि, बहुवर्णमयी बहुरत्नमयी।
ऊपर में पांडुक वन तक है, अतिसुंदर श्रेष्ठ सुवर्णमयी।।
पांडुक वन की विदिशाओं में, वर पांडुक आदिक चार शिला।
तीर्थंकर के जन्माभिषेक, से पावन पूज्य हुई विमला।।३।।
ईशान दिशा में शिला कही, जो पांडुक नामा कनकमयी।
हो भरत क्षेत्र के जिनवर का, इस पर अभिषेक अनूपम ही।।
आग्नेय दिशा में शिला कही, जो पांडुकम्बला रजतमयी।
पश्चिम विदेह के जिनवर का, होता अभिषेक सुपुण्यमयी।।४।।
नैऋत दिश में रक्ता नामा, है शिला तपाये स्वर्णसमा।
ऐरावत के तीर्थंकर का, उस पर अभिषेक कहा सुषमा।।
वायव्य दिशा में लाल शिला, जो रक्तकम्बला नाम धरे।
अभिषेक वहाँ पूरब विदेह, तीर्थंकर का इंद्रादि करें।।५।।
ये अर्ध चंद्र आकार शिला, सौ योजन लम्बी मानी है।
योजन पचास चौड़ी ऊँची, है आठ कहे जिनवाणी है।।
इन मध्य श्रेष्ठ सिंहासन हैं, जो तीर्थंकर के लिए कहे।
द्वय पाश्र्व भाग दो भद्रासन, सौधर्म ईशान के लिए रहे।।६।।
जब-जब तीर्थेश जन्मते हैं, इंद्रों के आसन कंपते हैं।
इंद्रों के मुकुट स्वयं झुकते, सब वाद्य स्वयं बज उठते हैं।।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, सौधर्म इन्द्र आ जाता है।
उस समय असंख्यों देवों का, समुदाय उमड़कर आता है।।७।।
इन्द्राणी जिनशिशु को लाकर, सौधर्म इन्द्र को देती है।
तत्क्षण ही स्त्रीलिंग छेद, निज एक ही भव कर लेती है।।
प्रभु को सुमेरु पर ले जाकर, क्षीरोदधि से जल भर लाते।
इक सहस आठ कलशों द्वारा प्रभु न्हवन करें अति हर्षाते।।८।।
मेरु के सोलह जिनमंदिर, भक्ती से उन दर्शन कीजे।
जिन प्रतिमाओं का वंदन कर, पूजन कर पाप शमन कीजे।।
जिन वचनों से श्रद्धा करके, निज सम्यक् ‘‘ज्ञानमती’’ कीजे।
रत्नत्रय निधि को पा करके, क्रम से जिनगुण संपति लीजे।।९।।