”सुप्रभ बलभद्र एवं पुरुषोत्तम नारायण”
भगवान अनंतनाथ के समय में सुप्रभ बलभद्र और पुरुषोत्तम नारायण हुए हैं। इनका संक्षिप्त विवरण सुनाया जा रहा है- इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के पोदनपुर में राजा वसुषेण राज्य करते थे, उनकी पाँच सौ रानियों में नंदा महारानी राजा को अतीव प्रिय थीं। मलयदेश के राजा चण्डशासन राजा वसुषेण के मित्र थे। किसी समय राजा चण्डशासन अपने मित्र से मिलने के लिए पोदनपुर आये। पापकर्म से प्रेरित हो, इसने अपने मित्र की रानी नंदा को देखकर उस पर आसक्त हो किसी भी उपाय से उसका हरण करके अपने देश ले गया। राजा वसुषेण असमर्थ होते हुए इस घटना से बहुत ही दु:खी हुए। कालांतर में श्रीश्रेयगणधर के धर्मोपदेश से संसार से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। ये मुनि वसुषेण सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक व्रतों के अनुष्ठान से महातपस्वी बन गये, पुन: किसी समय निदान कर लिया ‘‘मेरी तपस्या का फल मुझे यह प्राप्त हो कि मैं ऐसा राजा होऊँ, जिसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन न कर सके। अनंतर संन्यास मरण कर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में देव हो गये। इनकी आयु अठारह सागर की थी। इसी मध्य जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में नंदन नगर के महाबल राजा ने बहुत काल तक सुखपूर्वक राज्य संचालन करके किसी समय विरक्तमना हो अपने पुत्र के लिए राज्य सौंपकर श्री प्रजापाल अर्हंत भगवान के समीप दीक्षा लेकर सिंहनिष्क्रीडित व्रत करके तपश्चरण के प्रभाव से एवं संन्यास विधि से मरणकर इसी सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागर की आयु वाले देव हो गये। इन दोनों देवों का आपस में बहुत ही प्रेमभाव था। इसी भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा सोमप्रभ की जयवंती रानी थी। यह महाबल राजा के देव का जीव वहाँ से च्युत होकर रानी जयवंती के गर्भ में आ गया और नवमाह बाद पुत्र हुआ, इसका नाम ‘सुप्रभ’ रखा गया। इन्हीं राजा की दूसरी रानी सीता से वसुषेण के देव का जीव पुरुषोत्तम नाम का पुत्र हुआ है। ये दोनों पुत्र बड़े होकर बलभद्र और नारायण हुए हैं। बलभद्र का वर्ण श्वेत था और नारायण का वर्ण कृष्ण था। इन दोनों का शरीर पचास धनुष ऊँचा था (५०²४·२०० हाथ) । तीस लाख वर्ष की आयु थी। दोनों ही एक साथ समान सुख का अनुभव करते थे। पहले जिस चण्डशासन राजा ने वसुषेण की नंदारानी का हरण किया था, वह अनेक भवों में भ्रमण कर वाराणसी नगरी का स्वामी मधुसूदन हुआ था। उसने पूर्वभव में तपस्या करके निदान करके अर्धचक्री का वैभव प्राप्त किया था। इसकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था, जिसके प्रभाव से इसने दिग्विजय कर तीन खण्ड को जीत लिया था। नारद के मुख से किसी समय इसने सुप्रभ व पुरुषोत्तम के वैभव को सुना, तब उसने एक दूत को भेजकर इन दोनों से हाथी, रत्न आदि ‘कर’ के रूप में मांगे। यह सुनकर सुप्रभ व पुरुषोत्तम ने दूत की तर्जना करके उसे भगा दिया। तभी मधुसूदन ने सेना लेकर आकर द्वारावती नगरी को घेर लिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अनंतर मधुसूदन ने अपना चक्र चला दिया। वह चक्र राजा पुरुषोत्तम की प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास स्थित हो गया। अंत में पुरुषोत्तम ने उसी के चक्र से उसे मार डाला। उसी क्षण ये दोनों भाई बलभद्र व नारायण के रूप में तीन खण्ड के स्वामी हो गये। बहुत काल तक इन दोनों ने न्यायपूर्वक प्रजा का पालन किया है। अंत में सुप्रभ बलभद्र ने श्रीसोमप्रभ जिनेन्द्र के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर घोर तप करके क्षपकश्रेणी में आरोहण कर केवलज्ञान को प्राप्त किया है। अनंतर केवली काल में विहार करके अगणित जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अंत में निर्वाणधाम को प्राप्त कर लिया है। ये ‘सुप्रभ’ सिद्ध परमात्मा हम सभी को सिद्धि प्रदान करें, उनके श्रीचरणों में हम यही प्रार्थना करते हुए सभी सिद्ध भगवन्तों को कोटि-कोटि नमन करते हैं।