मार्ग और अवस्थिति—सूरत पश्चिम रेलवे का प्रख्यात स्टेशन है। बम्बई नगर से यह २६३ कि.मी. है। यह ताप्ती नदी के तट पर बसा हुआ है जबकि दूसरे तट पर रांदेर है। इसका अपरनाम सूर्यपुर भी मूर्ति लेखों और प्रशस्तियों में उपलब्ध होता है। प्राचीन काल में यह एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था और यहाँ जलमार्ग द्वारा बड़े पैमाने पर व्यापार होता था। तब से इस नगर की समृद्धि निरंतर बढ़ती गयी और अब यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र बन गया है।
जैन मंदिर— सूरत में सात दिगम्बर जैन मंदिर और ६ चैत्यालय हैं। नवापुर में चार मंदिर हैैं—मेवाड़ का, गुजरातियों का, चौपड़ा का और दांडिया का। एक दिगम्बर जैन मंदिर गोपीपुरा में है, जिसमें भट्टारकों की गद्दी है। चन्दावाड़ी के पास दो दिगम्बर जैन मंदिर हैं। यहाँ पहले तीन मंदिर बहुत प्रसिद्ध थे—(१) चन्द्रप्रभ जिनालय, (२) आदिनाथ जिनालय और (३) वासुपूज्य जिनालय। इन जिनालयों के उल्लेख विभिन्न ग्रंथो, प्रशस्तियों और मूर्तिलेखों में भी मिलते हैं। इन मंदिरों में एक छोटा किन्तु सबसे पुराना मंदिर गुजरातियों के मंदिर की शाखा खपाटिया चकला में चन्दाबाड़ी धर्मशाला के पास है। इस मंदिर में भोंयरा (गर्भगृह) भी है। इसमें सबसे प्राचीन मूर्ति पार्श्वनाथ भगवान की है जो संवत् १२३४ वैशाख सुदी १० को प्रतिष्ठित हुई थी। संवत् १९५६ में मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। प्रतिमाओं को भोंयरा में से ऊपर लाया गया और एक ऊँचा शिखरबन्द मंदिर बनवाया गया। चन्दावाड़ी के पास दूसरा बड़ा मंदिर है। इस मंदिर में संवत् १३७६ से १८९९ तक की मूर्तियाँ हैं। मूलनायक प्रतिमा भगवान आदिनाथ की है। यह सं.१३७६ की है। नवापुरा में चिन्तामणि पार्श्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है जो मेवाड़ जाति के लोगों ने बनवाया था। इस मंदिर के संबंध में एक बड़ी रोचक िंकवदन्ती प्रचलित है। गोपीपुरा के भट्टारक के दो शिष्य थे—एक मूर्ख था और दूसरा विद्वान्। उन दोनों में आपस में झगड़ा हो गया। मूर्ख शिष्य को लज्जा आयी। वह विद्याध्ययन के लिए कर्नाटक चला गया और खूब विद्वान् बन गया तथा करमसद की गद्दी का भट्टारक बन गया। उसने सूरत आने का विचार किया। उसका गुरुबन्धु गोपीपुरा का भट्टारक हो गया था। गोपीपुरा के भट्टारक ने सूरत के नवाब से यह फर्मान निकलवा दिया कि करमसद के भट्टारक को नर्मदा के पार न उतरने दिया जाये। जब करमसद के भट्टारक सूरत के लिए प्रस्थान करके भड़ोंच (भृगुकच्छ) आए तो नाविकों ने उन्हें नर्मदा के पार उतारने से इनकार कर दिया। तब भट्टारक जी ने शतरंजी बिछा ली और मंत्र बल से नर्मदा के दूसरे तट पर आ गये। नाविकों ने भड़ोंच नवाब को इस अद्भुत घटना की सूचना दी। नवाब वहाँ आया और भट्टारक जी से क्षमा-याचना की। भट्टारक जी वहाँ से चलकर बरियाव आये और ताप्ती नदी पार करनी चाही किन्तु वहाँ भी नाविकों ने उन्हें पार उतारने से इन्कार कर दिया। भट्टारक जी पुन: मन्त्र बल से सूरत में बरियावी भागल द्वार पर आ गये। यहाँ उन्हें रोकने के लिए द्वार बंद कर दिये गये। तब वे मन्त्र शक्ति से आकाश मार्ग द्वारा नवापुरा में उस स्थान पर आये, जहाँ मेवाड़ का मंदिर बना हुआ है। यह घटना सुनकर सूरत का नवाब और श्रावक आये और नवाब ने अपनी भूल के लिए उनसे क्षमा माँगी। बाद में भट्टारक जी ने उसी स्थान पर यह मंदिर बनवाया। इन भट्टारक जी का नाम विजयकीर्ति था और इनके गुरु-भ्राता का नाम भट्टारक सकलकीर्ति था। इनके गुरु का नाम सुरेन्द्रकीर्ति था। विजयकीर्ति ने इस मंदिर के भोंयरे में अपने गुरु की चरण पादुका स्थापित करायी जो अब भी मौजूद है। भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति जी का एक चित्र भी इस मंदिर में है जो उनके समय में ही बनाया गया था। पहले यहाँ मेवाड़ जाति के काफी घर थे किन्तु अब केवल ८-१० ही घर जैन हैं, शेष सब वैष्णव बन गये। इस मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की एक पाषाण प्रतिमा का प्रतिष्ठाकाल उसकी चरण चौकी पर संवत् १३८० माघ सुदी १२ रविवार अंकित है। पद्मावती की एक धातु प्रतिमा संवत् ११६४ की, चौबीसी की एक धातु प्रतिमा सं. १४९० की और भगवान आदिनाथ की एक धातु प्रतिमा संवत् १४९७ की है। नवापुरा में चोपड़ा का एक जैन मंदिर है। इसमें पार्श्वनाथ की एक पाषाण प्रतिमा संवत् ११६० की है और पद्मावती की एक धातु प्रतिमा संवत् १२३५ की है। नवापुरा में तीसरा जैन मंदिर गुजराती मंदिर है। इसमें पाषाण फलक पर उत्कीर्ण चौबीसी है। उसके मूर्तिलेख में जो प्रतिष्ठाकाल दिया गया है, वह ठीक नहीं पढ़ा जाता किन्तु उसमें केवल तीन ही अंक हैंं। पहला अंक पढ़ने में नहीं आया, उसके आगे ७५ के अंक हैं। यहाँ धातु प्रतिमाएँ १३८०, १४२९, १४९९, १५०४, १५१८ की हैं। मुसलमानों के आगमन से पूर्व सूरत तथा रांदेर में जैन संख्या बहुत बड़ी थी। मुसलमानों ने मंदिरों को तोड़कर उन्हीं के मलवे से मस्जिदें बना लीं। सन् १९०८ का गजेटियर बताता है कि रांदेर की जामा मस्जिद, मियाँ खरवा और मुंशी की मस्जिदें जैन मंदिरों को तोड़कर बनायी गयी हैं।
भट्टारक पीठ– सूरत में मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के भट्टारकों का पीठ भट्टारक पद्मनंदी के शिष्य भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने स्थापित किया था। चन्दाबाड़ी के पास वाले बड़े मंदिर में मूलनायक आदिनाथ के पादपीठ पर जो मूर्तिलेख अंकित है, उससे ज्ञात होता है कि इस परम्परा में निम्नलिखित भट्टारक हुए— देवेन्द्रकीर्ति, विद्यानंदी, मल्लीभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र, वादीचन्द्र, महीचन्द्र, मेरुचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दी। इसके पश्चात् निम्नलिखित भट्टारक हुए—देवेन्द्रकीर्ति, विद्याभूषण, धर्मचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, गुणचन्द्र, सुरेन्द्रकीर्ति। सूरत में बलात्कारगण के भट्टारकों ने धर्म प्रभावना के अनेक कार्य किये, अनेक स्थानों पर मंदिर निर्माण कराए, मूर्ति प्रतिष्ठाएँ करायीं। इन भट्टारकों की समाधियाँ सूरत के निकट कतारगाँव में विद्यानन्दि क्षेत्र में बनी हुई हैं। यहाँ भट्टारक विद्यानन्दि के चरण-चिन्ह बने हुए हैंं। विद्यानन्दि बड़े प्रभावशाली और चमत्कारी व्यक्ति थे। इस स्थान पर प्रथम समाधि इन्हीं की बनायी गयी थी। इसलिए इस स्थान का नाम ही विद्यानन्दि क्षेत्र हो गया।
विद्यानन्दि क्षेत्र— सूरत से ३ कि.मी. दूर कतारगाँव में विद्यानंदि क्षेत्र है। यहाँ ८२ भट्टारकों और मुनियों के चरण चिन्ह हैं। चरण-चिन्ह अलग-अलग वेदियों में विराजमान हैं। ये वेदियाँ तीन पंक्तियों में बनी हुई हैं। ये सभी वेदियाँ श्वेत संगमरमर की हैं। चरण-चिन्हों के मध्य में आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की १ फुट १ इंच ऊँची और भट्टारक विद्यानंदि की १ फुट ३ इंच ऊँची मूर्तियाँ विराजमान हैं। विद्यानंदि की मूर्ति की पृष्ठ-पंक्ति में उनके १ फुट ३ इंच लम्बे चरण बने हुए हैं। भट्टारक विद्यानंदि अपने समय के बड़े प्रभावशाली और चमत्कारी पुरुष थे। वे मन्त्र-तन्त्र में निष्णात तपस्वी साधु थे। उनके चमत्कारों की अनेक कथाएँ समाज में प्रचलित हैं। एक प्रशस्ति के अनुसार राजाधिराज वङ्काांग, गंग, जयसिंह, व्याघ्र आदि अनेक नरेश आपके भक्त थे। उनका स्वर्गवास मार्गशीर्ष वदी १०, संवत् १५३७ को हुआ था। चरण वेदिकाओं के निकट एक मानस्तम्भ भी बना हुआ है। ऊपर जाने के लिए २७ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसकी शीर्ष-वेदिका में चारों दिशाओं की ओर मुख किये हुए चार तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विराजमान हैं। यहाँ एक ओर सम्मेदशिखर की भव्य रचना निर्मित है।
धर्मशाला— यहाँ धर्मशाला बनी हुई है। विद्युत और जल की सुविधा है। स्थान अत्यन्त रमणीक है। यह पर्यटन और धर्मसाधन दोनों ही दृष्टियों से चित्ताकर्षक है। इसीलिए सूरत के जैनबन्धु समय-समय पर विशेषत: अवकाश के दिनों में यहाँ आते रहते हैं। मेला—यहाँ वर्ष में कई बार मेले होते हैं—जैसे चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, वैशाख शुक्ला पूर्णिमा और कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा। भट्टारक विद्यानंदि के समाधिमरण-दिवस मार्गशीर्ष कृष्णा १० को भी मेला होता है।