एक बार नारद जी किसी व्यक्ति को लेकर वैकुण्ठ की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक कल्पवृक्ष के नीचे उसे विश्राम करने के लिए कहकर वे कुछ समय के लिए विष्णु के पास चले गये। कल्प —वृक्ष तो, जो मांगों सो देता है। वहाँ बैठे उस व्यक्ति ने सोचा—ओहो, इस समय यदि भव्य महल बन जाय तो मुझे बहुत सुख मिलेगा। उसके ऐसा सोचते ही वहां एक भव्य प्रासाद तैयार हो गया। फिर सोचने लगा — मुझे भूख लगी है, यदि मिठाइयों का थाल सामने आ जाय तो मैं अपनी भूख शान्त कर सकू। ऐसा सोचने लगा कि इस समय कुछ परियां आ जाय तो मेरे पैर दबाने लगे, इससे मेरे मन को बहुत शान्ति मिले । वहां तो कल्पवृक्ष था, जो विचार करता वही उसे मिल रहा था । फिर सोचा—यदि यह दृश्य मेरी घरवाली देख ले तो वह झाडू लेकर मेरे पीछे ही पड़ जायेगी। ऐसा सोचते ही, हुआ भी यही। उसकी घरवाली झाडू लेकर उसे मारने दौड़ रही थी। आगे—आगे वह पीछे—पीछे उसकी घरवाली । नारद ने भी जब यह दृश्य देखा तो कहा—भले मानुष! सोचना ही था तो कुछ अच्छा सोचता, ऐसी बात क्यों सोची ?