वाक्यै: शिवपथमुचितान् शास्ति योऽर्हन् स नोऽव्यात्।।१।।
अर्थ- इस संसाररूपी भीषण वन में दु:खरूपी दावानल अग्नि अतिशय रूप से जल रही है। जिसमें श्रेयोमार्ग-अपने हित के मार्ग से अनभिज्ञ हुए ये बेचारे प्राणी झुलसते हुए अत्यंत भयभीत होकर इधर-उधर भटक रहे हैं। ‘‘मैं इन बेचारों को इससे निकाल कर सुख में पहुँचा दूँ।’’ पर के ऊपर अनुग्रह करने की इस बढ़ती हुई उत्कृष्ट भावना के रस विशेष से तीर्थंकर सदृश पुण्य संचित कर लेने से दिव्यध्वनिमय वचनों के द्वारा जो उसके योग्य मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं वे अर्हंतजिन हम लोगों की रक्षा करें। ‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’ कर्मरूपी शत्रुओं को जो जीतते हैं, वे जिन कहलाते हैं। ‘जिनो देवता अस्येति जैन:’ और जिनदेव जिसके देवता हैं-उपास्य हैं वे जैन कहलाते हैं। जिनेन्द्र देव के इस जैनशासन में प्रत्येक भव्य प्राणी को परमात्मा बनने का अधिकार दिया गया है। धर्म के नेता अनंत तीर्थंकरों ने अथवा भगवान महावीर स्वामी ने मोक्षमार्ग के दर्शक ऐसा मोक्षमार्ग के नेता बनने के लिए उपाय बतलाया है। इसी से आप इस जैनधर्म की विशालता व उदारता का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इस उपाय में सोलहकारण भावनाएं भानी होती हैं और इनके बल पर अपनी प्रवृत्ति सर्वतोमुखी, सर्वकल्याणमयी, सर्व के उपकार को करने वाली बनानी होती है।‘‘दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनति-चारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधु-समाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका-परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।।२४।।’’दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति,आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह कारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव के लिए हैं अर्थात् इनसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है। इन सोलह भावनाओं में से दर्शनविशुद्धि का होना अत्यन्त आवश्यक है।
अन्य सभी भावनाएं हों अथवा कुछ कम भी हों फिर भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है अथवा किन्हीं एक, दो आदि भावनाओं के साथ सभी भावनाएं अविनाभावी हैं तथा अपायविचय धर्मध्यान भी विशेषरूप से तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारण माना गया है। वैसे यह ध्यान तपो भावना में ही अंतर्भूत हो जाता है। यह अनादिनिधन षोडशकारण पर्व वर्ष में तीन बार आता है। भादों वदी एकम् से आश्विन वदी एकम् तक, माघ वदी एकम् से फाल्गुन वदी एकम् तक एवं चैत्र वदी एकम् से वैशाख वदी एकम् तक। इस पर्व में षोडशकारण भावनाओं को भा करके परम्परा से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया जा सकता है। इन सोलहकारण भावनाओं के नाम इस प्रकार हैं- १. दर्शनविशुद्धि २. विनयसम्पन्नता ३. शीलव्रतेष्वनतिचार ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ५. संवेग ६. शक्तितस्त्याग ७. शक्तितस्तप ८. साधु समाधि ९. वैय्यावृत्यकरण १०. अर्हद्भक्ति ११. आचार्यभक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति १३. प्रवचनभक्ति १४. आवश्यक अपरिहाणि १५. मार्गप्रभावना १६. प्रवचनवत्सलत्व। इन सोलह कारण भावनाओं में दर्शनविशुद्धि भावना मूल-जड़ हैअर्थात् दर्शनविशुद्धि भावना के बिना सभी भावनाएँ अधूरी हैं। इस दर्शनविशुद्धि भावना का अर्थ है- ‘‘जिनोपदिष्टे निग्र्रन्थे मोक्षवत्र्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगादर्शनविशुद्धि:।’’ अर्थात् जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट निर्ग्रन्थ दिगम्बर मोक्षमार्ग में रुचि होना और नि:शंकित आदि आठ अंगों का पालन करना दर्शनविशुद्धि है। इसी प्रकार अंतिम प्रवचनवत्सलत्व भावना का अर्थ कितना सुन्दर है-‘‘वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्।’’जैसे गाय अपने बछड़े को अकृत्रिम स्नेह करती है, वैसे ही धर्मात्माओं को देखकर उनके प्रति स्नेह से आद्र्रचित्त का हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। उपरोक्त सोलहकारण भावनाओं के नाम तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के आधार से हैं परन्तु षट्खण्डागम ग्रंथ में इन भावनाओं के नामों में कुछ अन्तर है, जो कि इस प्रकार है- १. दर्शनविशुद्धता, २. विनयसम्पन्नता ३. शीलव्रतों में निरतिचारता ४. छह आवश्यकों में परिहीनता ५. क्षणलवप्रतिबोधनता ६. लब्धिसंवेग सम्पन्नता ७. यथाशक्तितथातप ८. साधुओं के लिए प्रासुक परित्यागता ९. साधुओं की समाधिसंधारण १०. साधुओं की वैयावृत्य योगयुक्तता ११. अरिहंत भक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति १३. प्रवचन भक्ति १४. प्रवचन वत्सलता १५. प्रवचनप्रभावनता १६. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग। इन सोलहकारणों के होने पर जीव तीर्थंकर नामकर्म को बाँधते हैं अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि कारणों के संयोग से भी तीर्थंकर नामकर्म बंध सकता है। चातुर्मास के भाद्रपद मास में विशेषरूप से मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका सभी षोडशकारण व्रत को यथाशक्ति करते हैं। श्रावक लोग इस पर्व में हर्ष विभोर होकर पूजा-उपासना करते हैं तथा विद्वत्जन इन सोलहकारण भावनाओं को अपने प्रवचन द्वारा लोगों को सुनाकर शांति और सुख का मार्ग दिखाते हैं। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सोलहकारण पूजा की जयमाला में सोलह भावनाओं का सार भरा है-दर्श की विशुद्धि जो पच्चीस दोष शून्य है। आठ अंग से प्रपूर्ण सप्तभीति शून्य है।। सत्य ज्ञान आदि तीन रत्न में विनीत जो। साधुओं में नम्रवृत्ति धारता प्रवीण वो।।पुन: अब इस षोडशकारण पर्वराज के व्रत की विधि एवं कथा को कहते हैं-
सोलह कारण व्रत विधि-
भादों वदी एकम् से आश्विन वदी एकम् तक, माघ वदी एकम् से फाल्गुन वदी एकम् तक और चैत्र वदी एकम् से वैशाख वदी एकम् तक ऐसे वर्ष में तीन बार एक महीने तक यह व्रत किया जाता है। उत्कृष्ट विधि तो एक महीने के उपवास की है, मध्यम विधि में एक उपवास, एक पारणा के प्रकार से अथवा बेला, तेला आदि करते हुए बहुत से भेद हो जाते हैं। जघन्य विधि में शुद्ध एकाशन करना चाहिए। ‘व्रत तिथि निर्णय’ पुस्तक में तीनों प्रतिपदा को उपवास करना ऐसा कहा हुआ है। इस व्रत में प्रतिदिन अभिषेक, पूजन और सोलह कारण भावना की जाप्य करना चाहिए। प्रतिदिन सोलह भावनाओं का चिंतवन करना चाहिए। यह व्रत उत्कृष्ट १६ वर्ष, मध्यम ५ या २ वर्ष और जघन्य १ वर्ष करना चाहिए पुन: यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिए।
इस व्रत की कथा-राजगृही नगरी में राजा हेमप्रभ के यहाँ महाशर्मा नाम का नौकर था। उसकी पुत्री कालभैरवी अत्यन्त कुरूप और कुलक्षणी थी। एक दिन मतिसागर नामक चारण ऋद्धिधारी के उपदेश को सुनकर महाशर्मा ने पूछा-भगवन्! मेरी पुत्री कुरूपा क्यों है? गुरु ने कहा-पूर्वजन्म में यह उज्जैन की अतिशय सुन्दरी राजपुत्री थी। रूप के मद में आकर एक ज्ञानसूर्य नामक दिगंबर मुनि के ऊपर इसने थूक दिया। राजपुरोहित ने क्रोधित होकर कन्या को फटकारा तथा मुनिराज के शरीर का प्रक्षालन कर उसकी वैयावृत्य की। इससे कन्या ने लज्जित होकर गुरु के पास जाकर पश्चाताप करते हुए अपराध की क्षमा मांगी पुन: धर्मोपदेश सुनकर यथाशक्ति व्रत आदि धारण किया। इस निमित्त से कुछ पुण्य प्राप्त कर तुम्हारे यहाँ कन्या हुई है। मुनि उपसर्ग के पाप से ही यह कुरूपा हुई है क्योंकि गुरु की आसादना का फल बिना भोगे नहीं छूटता है। यह सब सुनकर उपशांत भाव को प्राप्त हो कन्या ने संसार दु:ख से छूटने के लिए मुनिराज से उपाय पूछा। मुनिराज ने सम्यक्त्व, अणुव्रत आदि का उपदेश देकर उसे सोलह कारण का व्रत दिया। कालभैरवी ने विधिवत् व्रत का पालन करके समाधि से मरण करके सोलहवें स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया। वहाँ से चयकर विदेह क्षेत्र के गंधर्वनगर में सीमंधर तीर्थंकर हो गया, तीर्थंकर पद को प्राप्त कर असंख्यों भव्य जीवों को संबोधकर निर्वाण पद को प्राप्त कर लिया। इस कथा को पढ़कर सभी स्त्री-पुरुषों को सोलहकारण व्रत का अनुष्ठान करना चािहए। इस व्रत की निम्नलिखित जाप्य हैं इन्हें प्रतिदिन करना चाहिए। कहीं-कहीं एक जाप्य को दो दिन करते हैं अत: भादों वदी एकम् से आश्विन वदी दूज तक ३२ दिन में ये १६ जाप्य पूरी हो जाती हैं-