अनिल जैन’
दार्शनिक विषयों के विवेचन में अनेक विषय इस प्रकार के उपस्थित होते हैं जब निश्चय पूर्वक ‘हाँ’ या ‘ना’ में कथन करना संभव नहीं होता है। ईसा पूर्व की शताब्दियों से ही जैन एवं जैनेतर आचार्यों के सम्मुख इसके कथन की पद्धति रही है, किन्तु इसका विस्तृत परिपाक आचार्य कुन्दकुन्द एवं उनके परिवर्ती जैनाचार्यों की कृतियों में देखने को मिलता है। अस्ति, नास्ति एवं अवक्तव्य को मिलाकर बनाये गये सात भंगों से गणनायक रूप में प्रायिकता के सिद्धान्तों की नीव रखी गई।सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि—निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है। ‘है’ और ‘नहीं है’ हमारे कथनों के ये दो प्रारूप हैं, किन्तु कभी—कभी हम अपनी बात को स्पष्टतया है — विधि और नहीं है — निषेध की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प अवाच्य या अवक्तव्य का सहारा लेते हैं। अवक्तव्य अर्थात् शब्दों के माध्यम से है और नहीं है की भाषायी सीमा में बाँधकर उसे कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार विधि, निषेध और अवक्तव्यता से जो सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है।
‘सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य ये तीन असंयोगी मौलिक भंग हैं। शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् अस्ति—नास्ति ,स्यात् अस्ति—अवक्तव्य और स्यात्—नास्ति अवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी और अंतिम स्यात् अस्ति—नास्ति—अवक्तव्य यह त्रिसंयोगी भंग है। निर्णयों की भाषायी अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य इन तीन ही रूपों में होती है। अत: उसके तीन ही मौलिक भंग बनते हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणित शास्त्र के संयोग नियम के आधार पर सात भंग ही बनते हैं,न कम न अधिक।
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ के समय से ही जैन विचारकों के विचार जीवन में अहिंसा, दृष्टि में अनेकान्त और वाणी में स्याद्वाद के रहे हैं। अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर (५९९—५२७ ई. पू.) ने तथा अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु (४३३—३५७ ई. पू.) ने भी अपने उपदेशों में अहिंसा, अनेकांत और स्याद्वाद पर विशेष बल दिया।
स्याद्वाद के सप्तभंगों का वर्णन सर्वप्रथम आचार्य कुंदकुंद (ई. की प्रथम शताब्दी) ने अपने प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में किया है। इसके पश्चात् आचार्य समन्तभद्र (ई. द्वितीय शताब्दी) ने तत्वार्थवार्तिक में, आचार्य सिद्धसेन गणि (ई. सातवी शताब्दी) ने न्यायावतार में, आचार्य विद्यानन्द (ई. आठवी शताब्दी) ने अष्टसहस्री, तत्वार्थश्लोकवार्तिक और युक्तयानुशासनालंकार में, आचार्य प्रभाचंद्र (ई. दसवीं शताब्दी) ने प्रमेय कमलमार्तण्ड में, आचार्य मल्लिसेन (ई. चौदहवीं शताब्दी) ने स्याद्वादमंजरी में तथा पं. विमलदास (ई. सत्रहवीं शताब्दी) ने सप्तभंग तरंगिणी में स्याद्वाद के सप्तभंगों का विस्तृत विवेचन किया है। जैनेतर दर्शनों में उपनिषदों के समय तक सत् (विधि), असत् (निषेध), सदसत (उभय) और अवक्तव्य ये चार पक्ष स्थिर हो चुके थे। इन चारों पक्षों की परम्परा बौद्धत्रिपिटक से भी सिद्ध होती है। बौद्धों के समय एक ही विषय के चार विरोधी पक्ष उपस्थित करने की शैली बौद्ध दार्शनिकों में प्रचलित थी। इस संदर्भ में जैनेतर व्यक्तियों के शोध पत्रों की गवेषणा करने पर ज्ञात होता है कि स्याद्वाद के सप्तभंगी पर प्रथम शोध पत्र सांख्यिकी विज्ञान के प्राध्यापक प्रो. महालानोंबीस (१९५७) का प्रकाशित हुआ हैं जिसमें प्रायिकता की परिभाषा से स्याद्वाद के सप्तभंगी को समझने की कोशिश की है। इसी प्रकार प्रो. हाल्डन (१९५७) एवं प्रो. र्मिडया (१९७५) ने स्याद्वाद के सप्तभंगी का संबंध सांख्यिकी विषय के प्रमुख तत्वों से जोड़ने का प्रयत्न किया है।