स्वास्थ्य हेतु सम्यक चिंतन आवश्यक
हमारा शरीर हमारे लिये दुनिया की सर्वश्रेष्ठ निधि है। अमूल्य अंगों, उपांगों, इंद्रियों, मन, मस्तिष्क और विभिन्न अवयवों द्वारा निर्मित मानव जीवन का संचालन और नियंत्रण कौन करता है? यह आज भी वैज्ञानिकों के लिये शोध का विषय है।
स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विज्ञान के विकास एवं लंबे चौड़े दावों के बावजूद शरीर के लिये आवश्यक रक्त, वीर्य, मज्जा, अस्थि जैसे अवयवों का उत्पादन तथा अन्य अंगों, इन्द्रियों का निर्माण आज तक संभव नहीं हो सका। मानव शरीर में प्राय: संसार में उपलब्ध अधिकांश यंत्रों से मिलती जुलती प्रक्रियाँ होती हैं।
मानव मस्तिष्क जैसा सुपर कम्प्यूटर, आँखों जैसा कैमरा, हृदय जैसा अनवरत चलने वाला पम्प, कान जैसी श्रवण व्यवस्था, आमाशय जैसा रासायनिक कारखाना आदि एक साथ अन्यत्र मिलना प्राय: बहुत दुर्लभ है। उससे भी आश्चर्यजनक बात तो यह है कि सारे अंग, उपांग, मन और इंद्रिय के बीच में आपसी तालमेल।
यदि कोई तीक्ष्ण पिन, सुई अथवा काँच आदि शरीर के किसी भाग में चुभ जाये तो सारे शरीर में कप—कपी हो जाती है। आँखों से आँसू और मुँह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इंद्रियाँ एवं मन क्षण भर के लिये अपना कार्य रोक कर शरीर के उस स्थान पर केन्द्रित हो जाती हैं उस समय न तो मधुर संगीत अच्छा लगता है और न ही मनभावन दृश्य ।
न हँसी मजाक में मजा आता है और न खाना पीना अच्छा लगता है। मन जो दुनिया भर में भटकता रहता है, उसस्थान पर अपना ध्यान केन्द्रिय कर लेता है। हमारा सारा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है हम राहत का अनुभव करते हैं।
जिस शरीर में इतना आपसी सहयोग, समन्वय समर्पण, अनुशासन और तालमेल हो अर्थात् शरीर के किसी भी भाग में दर्द, पीड़ा और कष्ट होने की स्थिति में सारा शरीर प्रभावित हो तो क्या ऐसे स्वचलित स्वनियंत्रित स्वानुशासित शरीर में असाध्य एवं संक्रामक रोग पैदा हो सकते हैं।’
चिंतन का प्रश्न है। मानव जीवन अनमोल है। अत: उसका दुरुपयोग न करें। वर्तमान की उपेक्षा भविष्य में परेशानी का कारण बन सकती हैं। वास्तव में हमारे अज्ञान, अविवेक, असंयमित , अनियंत्रित, अप्राकृतिक जीवन चर्या के कारण जब शरीर की प्रतिकात्मक क्षमता से अधिक शरीर में अनुपयोगी, विजातीय तत्व और विकार पैदा हो पाते हैं, तो शारीरिक क्रियाएँ पूर्ण क्षमता से नहीं हो पाती, जिससे धीरे—धीरे रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
अनेक रोगों की उत्पत्ति के पश्चात् ही कोई रोग हमें परेशान करने की स्थिति में आता है। उसके लक्षण प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्षरूप से प्रकट होने लगते हैं। शरीर में अनेक रोग होते हुए भी किसी एक रोग की प्रमुखता हो सकती है।
अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँ उसके आधार पर रोग का नामकरण, निदान और उपचार करती हैं। प्राय: रोग के अप्रत्यक्ष और सहयोगी कारणों की उपेक्षा के कारण उपचार आंशिक एवं अधूरा ही होता है। सही निदान के अभाव में उपचार हेतु किया गया प्रयास अधूरा ही होता है।
जो कभी कभी भविष्य में असाध्य रोगों के रूप में प्रकट होकर अधिक कष्ट,दुख और परेशानी का कारण बन सकते हैं।
जनसाधारण किसी बात को तब तक स्वीकार नहीं करता, जब तक उसे आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रमाणित और मान्य नहीं कर दिया जाता। परंतु चिकित्सा के क्षेत्र में आधुनिक चिकित्सकों की सोच आज भी प्राय: शरीर तक ही सीमित होती है। मन एवं आत्मा के विकारों को दूर कर मानव को पूर्ण स्वस्थ बनाना, उनके सामथ्र्य से परे है।
फलत: आधुनिक चिकित्सा में प्राथमिकता रोगी के रोग से राहत की होती है और उसके लिए हिंसा, अकरणीय, अन्यास, अवर्जित, अभक्ष्य का विवेक उपेक्षित एवं गौण होता है।अत: ऐसा आचरण कभी कभी प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों के विपरीत होने के कारण उपचार अस्थायी, दुष्प्रभावों की संभावनाओं वाला भी हो सकता है।
वास्तव में जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ शक्तिशाली ताकतवर रोगमुक्त बनाने के साथ—साथ मन को संयमित, नियंत्रित, अनुशासित और आत्मा को निर्विकारी पवित्र एवं शुद्ध बनाती है, वे ही चिकित्सा पद्धतियाँ स्थायी, प्रभावशाली एवं सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति होने का दावा कर सकती है।
चिकित्सा पद्धति की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है उसकी प्रभावशीलता, तुरंत राहत पहुँचाने की क्षमता तथा दुष्प्रभावों से रहित स्थायी रोग मुक्ति। अत: जो चिकित्सा पद्धतियाँ जितनी ज्यादा स्वावलंबी होती हैं।
रोगी की उसमें उतनी ही अधिक सजगता भागीदारी एवं सम्यक् पुरूषार्थ होने से वे प्रभावशाली ही होती है। अधिकांश चिकित्सा पद्धतियों का उद्देश्य मानव के शरीर को स्वस्थ रखने तक ही सीमित होता है।
अत: उपचार करते समय हिंसा को बुरा नहीं मानते। स्वयं को तो एक पिन की चुभन भी सहन नहीं होती, परन्तु आज वीडियो, कम्प्यूटर और मोबाइल जैसे वैकल्पिक साधनों की उपलब्धता होने के बावजूद शारीरिक ज्ञान की प्राप्ति के लिये मूक , असहाय , बेकसूर जीवों का अनावश्यक विच्छेदन कर हिंसा करना, निर्मित दवाइयों के परीक्षणों हेतु जीव जन्तुओं पर बिना रोक टोक हृदय विदारक यातनाएँ देना, मानव की स्वार्थी एवं अहं मनोवृत्ति का प्रतीक है।
भोजन में माँसाहार, अण्डों और मछलियों को पौष्टिक बतलाकर प्रोत्साहन देना पाश्वकता का द्योतक है। किसी प्राणी को दुख दिए बिना हिंसा, करना, निर्दयता हो नहीं सकती, जो प्राण हम दे नहीं सकते, उसको लेने का हमें क्या अधिकार है? दुख देने से दुख ही मिलेगा।
प्रकृति के न्याय में देर हो सकती है, अंधेर नहीं। जो हम नहीं बना सकते उसको स्वार्थवश नष्ट करना बुद्धिमत्ता नहीं। अत: चिकित्सा के नाम पर प्रत्यक्ष,परोक्षरूप से हिंसा करना—कराना और करने वालों को दवाओं के माध्यम से शरीर में जाने वाली उन बेजुबान प्राणियों की बददुआएँ शरीर को दुष्प्रभावों से ग्रसित करें तो आश्चर्य नहीं।
अत: चिकित्सा की दूसरी प्राथमिकता होती है अहिंसक उपचार । जिसके लिए हिंसा और अहिंसा के भेद को समझ अनावश्यक हिंसा से यथासंभव बचना होगा। चिकित्सा पद्धतियाँ जितनी अधिक अहिंसा के सिद्धातों पर आधारित होती हैं, वे शरीर के साथ—साथ मन और आत्मा के विकारों को भी दूर करने में सक्षम होने के कारण शीघ्र, स्थायी एवं अत्यधिक प्रभावशाली होती हैं।
हम साल के ३५६ दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियनों को प्राय: ८ से १० बार से अधिक नहीं बुलाते। ३५५ दिन जैसे स्विच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है, उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने , कब और कहाँ किया ? बिजली घर से बिजली कैसे आती है ? कितना वोल्टेज, करण्ट और प्रिक्वेन्सी है?
मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं अपने आपको स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुष्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है।
बिना दवा उपचार की स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ सहज, सरल, सस्ती,स्थायी, दुष्प्रभावों से रहित, शरीर की प्रतिकात्मक क्षमता को बढ़ाने वाली होती हैं। जो व्यक्ति का स्वविवेक जागृत कर, स्वयं की क्षमताओं के सदुपयोग की प्रेरणा देती हैं।
वे हिंसा पर नहीं, अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर, नहीं, साधना पर, दूसरों पर नहीं, स्वयं पर, क्षणिक राहत पर नहीं, अपितु अंतिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती हैं ।
रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को नष्ट करती हैं, जो शरीर के साथ—साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने में सक्षम होती हैं, जो जितना महत्वपूर्ण होता है,उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्व एवं प्राथमिकता देती हैं। यह प्रकृति के सनातन सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण अधिक प्रभावशाली, वैज्ञानिक, मौलिक एवं निर्दोष होती हैं।
‘‘सन्मतिवाणी ’’ २५ जुलाई २०१४