लेखिका—गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी, (समाधिस्थ)
‘‘स्वाध्याय: परमं तप:’’ वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए आगम को पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है। ‘‘ज्ञानाभावनाऽऽलस्यत्याग: स्वाध्याय:’’ ज्ञानभावना से आलस्य का त्याग करना स्वाध्याय है। ‘स्व’ अर्थात् अपने स्वरूप का अध्ययन करना चिन्तन करना स्वाध्याय कहलाता है।
‘‘सु’ सम्यक् रीत्या आ समन्तात् अधीयते इति स्वाध्याय:’’
अतिचार विशुद्ध्यर्थं अधीयते ह्यात्मतत्त्वं जिनवचनं वा इति स्वाध्याय:’’
बुद्धि बढ़ाने के लिए, प्रशस्त अध्यवसाय के लिये, परम संवेग के लिए, तप की वृद्धि के लिए, अतिचार विशुद्धि के लिए आत्मतत्त्व का या जिनवचन का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। ‘‘वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशा:’’वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेद से स्वाध्याय पाँच प्रकार का होता है।
(१)निरवद्य ग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना—निर्दोष ग्रंथ अर्थ अथवा उभय को पढ़ना, वाचना नाम का स्वाध्याय है।
(२) संशयोच्छेदाय निश्चित बलधानाय वा परानुयोग: पृच्छना—संशय का उच्छेद करने के लिए या निश्चित तत्व को पुष्ट करने के लिए गुरु आदि से प्रश्न करना पृच्छना नाम का स्वाध्याय है।
(३)अधिगतार्थस्य मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा—जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना अनुप्रेक्षा नाम का स्वाध्याय है।
(४)घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नाय: उच्चारण की शुद्धि पूर्वक पठित ग्रंथ को बार—बार दुहराना आम्नाय नाम का स्वाध्याय है।
(५)धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश—धर्मकथा आदि का अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है। स्वाध्याय करने योग्य ग्रंथ भी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार के हैं। इन जिन कथित ग्रंथों का मनन करने से अनादिकाल से बँधे हुए कर्म नष्ट हो जाते हैं। कश्चिदासन्नभव्य: पुरुष: वीतरागसर्वज्ञमहांश्रमणमुखाद्भवं शब्दसमयं शृणोति पश्चात् शब्दसमयवाच्यं पञ्चास्तिकाय लक्षणमर्थसमयं जानाति तदन्तर्गते शुद्धजीवास्तिकाय लक्षणार्थे वीतराग निर्विकल्पे समाधिना स्थित्वा चतुर्गति निवारणं करोति। चतुर्गति निवारणदेव निर्वाणं लभते। स्वात्मोत्थमनाकुलत्व लक्षणं निर्वाणफलभूतमन्तसुखञ्च लभते।कोई निकट भव्य पुरुष वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत शब्दागम को सुनता है। पुन: उससे पञ्चास्तिकाय लक्षण द्वारा अर्थ आगम को जानता है पुन: पदार्थ समूह से र्गिभत शुद्ध जीवास्तिकायरूप आत्मस्वरूप में स्थिर होकर चारों गतियों का निवारण करता है वहाँ अपने आत्मोत्थ निराकुलतामय सुख को भोगता है। ‘‘स्वाध्यायस्य फलं द्विविधं प्रत्यक्ष परोक्ष भेदात्। प्रत्यक्षफलं द्विविधं साक्षात्परम्पराभेदेन। साक्षात्प्रत्यक्षं अज्ञानविच्छित्ति: संज्ञानोत्पत्य संख्यात गुणश्रेणि कर्मनिर्जरा। परम्पराप्रत्यक्षं शिष्य प्रतिशिष्य पूजा प्रशंसा निष्पत्त्यादि। परोक्षफलमपि द्विविधं। अभ्युदय निश्रेयस सुखभेदात्। राजाधिराज महाराज अर्धमाण्डलिक माण्डलिक महामाण्डलिक अर्धचक्रवर्ती सकलचक्रवर्ती इन्द्र गणधरदेव तीर्थज्र्र परमदेव कल्याणत्रयपर्यन्तं अभ्युदयसुखं अर्हन्तपदं निश्रेयस सुखं।’’ प्रत्यक्ष और परोक्ष फल के भेद से स्वाध्याय का फल दो प्रकार का है। प्रत्यक्ष फल भी दो प्रकार का है। (१) साक्षात् (२) परम्परा भेद से।
(१) साक्षात्फल—अज्ञान का नाश होकर सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होना और असंख्यात गुणश्रेणीरूप कर्मों की निर्जरा होना।
(२) परम्परा प्रत्यक्षफल—शिष्य प्रतिशिष्य द्वारा प्रशंसा होना या शिष्यों की प्राप्ति होना। परोक्षफल दो प्रकार का है। (१) सांसारिक सुख ऐश्वर्य की प्राप्ति। (२) मोक्ष सुख। राजा, महाराजा, अर्धमाण्डलिक, माण्डलिक, महामाण्डलिक, अर्धचक्रवर्ती, चक्रवर्ती, इन्द्र, गणधरदेव, तीर्थंज्र्र परमदेव पद के तीन कल्याणक पर्यन्त अभ्युदयसुख इन सबको सांसारिक सुख कहते हैं। परम कल्याणमय सुख को मोक्ष सुख कहते हैं। मानव अर्घिनश सुख प्राप्त करने की चेष्टा करता है किन्तु अशान्त वातावरण के कारण उसे एक क्षण भी शान्ति नहीं मिलती है। शान्ति प्राप्तिका मुख्य कारण अपने मन को स्थिर करना है। चित्त की चंचलता के कारण ही अशान्ति के कारणभूत अनावश्यक सज्र्ल्प विकल्प उठते हैं तथा मोहजन्य विषय वासनाएँ मानव के हृदय को मन्थन कर विषयों की ओर प्रेरित करती हैं जिससे अशान्ति का अंकुर पैदा होता है। इसलिए सर्वप्रथम निराकुल आत्मीय शाश्वत सुख के इच्छुक मानव को अपने मन को स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये। जब तक हमारा मनरूपी निर्मल जल रोगद्वेष तथा सज्र्ल्प विकल्परूपी वायु के झकोरों से चंचल रहेगा तब तक आत्मानुभव नहीं हो सकता है। आत्मानुभव के बिना वास्तविक शान्ति नहीं मिल सकती है। आत्मानुभूति का कारण मन की चंचलता को रोकना है। नि:सन्देह मन की शुद्धि ही आत्म शुद्धि है। चित्त शुद्धि के बिना शरीर को क्षीण करना व्यर्थ है। मन स्थिर करने का प्रथम कारण शास्त्राभ्यास है। आत्मानुशासन में कहा है—
अनेकान्तात्मक पदार्थ रूपी फल—पूल के भार से अत्यन्त झुके हुए स्याद्वादरूपी पत्तों से व्याप्त, विपुल नय रूपी सैकड़ों शाखाओं से युक्त, अत्यन्त विस्तृत श्रुतस्कन्ध में अपने मनरूपी बन्दर को रमण कराना चाहिए। मनोमकर्ट को वश में करने के लिए इस काल में स्वाध्याय के बराबर कोई दूसरा उपाय नहीं है। आध्यात्मिक उन्नति का साधन एक स्वाध्याय है। मर्हिष कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार में सम्यक्त्व की उत्पत्ति का मुख्य कारण जिनसूत्र कहा है। बिना जिनसूत्र सुने जीवादि तत्त्वों का ज्ञान नहीं हो सकता। तत्त्वों की पहिचान के बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वैâ हो सकती है? स्वाध्याय वस्तु स्वरूप जानने का साधन है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में वेदनानुभव, जाति स्मरण, जिनबिम्ब दर्शन, देवऋद्धि दर्शन आदि कारण है। इसी प्रकार स्वाध्याय भी कारण है। ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों का समुदाय मोक्ष की प्राप्ति का कारण है। स्वाध्याय से वस्तुस्वरूप की जानकारी अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है और सम्यग्ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति हानोपदान (हेय वस्तु का त्याग और उपादेय का ग्रहण) उपेक्षा अर्थात् सम्यक््âचारित्र का परिपालन इस प्रकार रत्नत्रय की प्राप्ति स्वाध्याय से होती है। स्वाध्याय कषाय निग्रह का मूल कारण है। धर्मध्यान शुक्लध्यान का हेतु है। भेद विज्ञान के लिए रामबाण है। विषयों में अरुचि कराने का साधन है। इन्द्रियरूपी मीन को बांधने के लिए पाश के समान है। आत्मगुणों का संग्रह कराने वाला है। शारीरिक व्याधियों की चिकित्सा वैद्य, डॉक्टर कर सकते हैं परन्तु सांसारिक जन्म मरणादि व्याधियों की चिकित्सा केवल जिनेन्द्र भगवान् की विशुद्ध वाणी ही कर सकती है। जिनसूत्र के पढ़ने से मानव के हृदय में सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है जिससे आत्मा का मिथ्यात्वरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है। स्वपर भेद विज्ञानरूप प्रकाश सर्वत्र फल जाता है। भव्यजनों का चित्तकमल विकसित हो जाता है। पापरूपी उलूक छिप जाता है। आत्मारूपी चकवे को स्वपरिणतिरूपी चकवी मिल जाती है। सन्मार्ग दिखने लगता है। प्रमादरूपी निद्रा पलायमान हो जाती है। स्वाध्याय संसार समुद्र से पार करने के लिए निश्छिद्र नौका के समान है। कषायरूपी भयानक अटवी को जलाने के लिए दावानल है। स्वानुभवरूपी समुद्र की वृद्धि के लिये र्पूिणमा का चन्द्रमा है। हिमकारिणी शिक्षा जिनवचन से मिलती है। दो खण्ड श्लोक का स्वाध्याय करने वाले यम नामक मुनि ने दिव्यज्ञान प्राप्त किया था।
एक दिन छत पर बैठे हुए यम राजा ने हाथ में फल पूâल लेकर वन की ओर जाते हुए श्रावकों को देखकर मन्त्री से पूछा, ये लोग कहाँ जा रहे हैं ? परम दिगम्बर तपस्वी साधु की प्रशंसा करते हुए मन्त्री ने कहा, ये सब लोग परमपूज्य साधु के दर्शन के लिए जा रहे हैं। बहुसंख्या में जाती हुई जनता को देखकर ईष्र्याभाव से या शास्त्रार्थ करने की भावना से मन्त्री और अपने पांच सौ पुत्रों सहित राजा भी उद्यान में गया। वहाँ परम शान्त दिगम्बर तपस्वियों की शान्तमुद्रा देखकर किरणों ने राजा के हृदय में प्रवेश कर मोह एवं ईष्र्यारूपी मिथ्यात्व के निबिड़ अन्धकार को दूर किया जिससे उस नरेश ने संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर पाँच सौ पुत्रों सहित संसार नाशक भगवती जैनेश्वरी दीक्षा धारण की। परन्तु पूर्वोर्पािजत पाप कर्म के अर्थात् मुनि निन्दा के पाप के कारण ज्ञान की प्राप्ति न होने से तीर्थ यात्रा करने की इच्छा गुरु के पास प्रगट की। गुरु आज्ञा प्राप्त होते ही तीर्थयात्रा के लिए गमन किया। जाते हुए एक दिन वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। उनके सामने कुछ बालक गेंद से खेल रहे थे। उनकी गेंद उछलकर पास के गड्ढे में गिर गई। गेंद को इधर उधर ढूँढते हुए बालक को देखकर यम मुनि ने कहा ‘‘रे बाल! इतस्तत: िंक पश्यसि ? तब कोणिका तब समीपे गर्तेऽस्ति।’’ जिस प्रकार समीप के गड्ढे में पड़ी हुई गेंद उनकी नहीं दिखी उसी प्रकार अपने समीप रहने वाला अपना सुख मुझे नहीं दिख रहा है। रे बालक ! (मूर्ख मन) इधर उधर क्या देख रहा है तेरी कोणिका (गेंद या सुख) तेरे पास के गड्ढे में ही है। एक दिन यम मुनिराज मध्याह्न काल में तालाब के किनारे पर ध्यान कर रहे थे। तालाब में एक मेंढ़क कमल पर बैठकर मुनिराज की तरफ भयभीत दृष्टि से देख रहा था। उसके पीछे एक भयानक काला सर्प था। मुनिराज ने उसे देखकर कहा ‘‘आह्मादो णत्यि भयं भयं तु पच्छादो’’ तू मेरे से भय मत कर, मैं तुझे कष्ट देने वाला नहीं हूँ। तेरे पीछे जो कृष्ण सर्प है उससे भय कर। महाराज चिन्तन करने लगे कि हे आत्मन! तू अपने स्वरूप से क्यों भयभीत हो रहा है। अनादि काल से पीछे लगे हुए कृष्ण सर्प के समान यमराज से क्यों नहीं डरता है ? इस प्रकार विचार करते हुए मुनिराज जा रहे थे। रास्ते में एक मनुष्य गधे को खेत में ले जा रहा था। गधा खेत के हरे भरे धान्य को देखकर मुख पैâला रहा था। मालिक धान्य को भक्षण करता हुआ देख कर उसको डण्डे से मारता था। मुनिराज ने उसे देखकर एक श्लोक का चरण बनाया ‘‘रे गर्दभ! खादिष्यसि तिंह पश्चातापो भविष्यति।’’ रे गर्दभ! यदि खायेगा तो पश्चाताप होगा। मुनिराज निरन्तर इन चरणों का चिन्तन करते थे। एक दिन वे भ्रमण करते करते अपने नगर में पहुँच गये। उन्हें देखकर मन्त्री ने विचार किया। ये तपस्वी लोग भोले प्राणियों को अपने वाग्जालों में फसाकर भोगों से विरक्त करा देते हैं। किसी कारण से इनको नगर से निकलवाना चाहिये। ऐसा विचार कर मंत्री ने राजा को कुबुद्धि देकर मुनिराज की हत्या करने का विचार किया। आधी रात के समय गर्दभ राजा मन्त्री के साथ हाथ में तलवार लेकर मुनिराज को मारने के लिए निकला, ज्योंही गुफा के समीप पहुँचा उस समय मुनिराज स्वयं तीनों चरणों का पाठ करने लगे। ‘‘रे बाल! इतस्तत: िंक पश्यसि ? तब कोणिका तब समीपे गर्तेऽस्ति।’’ मुनिराज का यह वाक्य सुनकर गर्दभ (राजा) सोचने लगा। ये मेरा राज्य लेने के लिये नहीं आये हैं अपितु मेरी बहिन को बताने के लिए आये हैं। इसलिये ये कह रहे हैं कि रे बालक! तू इधर उधर क्या देख रहा है ? तेरी बहिन (कोणिका नामकी) तेरे पास वाले तलघर में है। फिर उन्होंने दूसरा चरण पढ़ा ‘‘रे गर्दभ! यदि खदिष्यसि तिंह पश्चातापो भविष्यति।’’ यह सुनकर राजा सोचने लगा कि इन्होंने मेरी बात जान ली। इसीलिये ये कहते हैं कि रे गर्दभ! तू मुझे मारेगा तो पश्चात्ताप होगा। फिर उन्होंने तीसरा चरण पढ़ा ‘‘आह्मादो णत्थि भयं, भयं तु पच्छादो’’ मेरे से भय मत कर, मैं तेरा राज्य लेने वाला नहीं हूँ, तेरे पीछे वाले से भय कर। पीछे था कुबुद्धि देने वाला राज मन्त्री। राजा ने तलवार निकाली, मन्त्री घबड़ा कर मुनिराज की शरण में गया और कहने लगा भी गुरुदेव! क्षमा करो, हम अज्ञानी जन हैं। आप क्षमा के भण्डार हैं। मुनिराज ने कहा भाई ! तुम कौन हो ? अर्धरात्रि के समय किसलिये आये हो ? मंत्री ने कहा गुरुदेव ! हम क्यों आये ? आप आपने हो, अभी अपने सब कुछ बता दिया था। मुनिराज ने कहा, मैं तो स्वाध्याय कर रहा था। मैं नहीं जानता हूँ कि तुम क्यों आये हो ? मन्त्री ने कहा, यह कैसा स्वाध्याय है ? मुनिराज ने कहा मन्त्रिवर! ये संसारी प्राणी सुख की इच्छा से बाह्य पदार्थों में लीन होकर व्यर्थ इधर उधर भटकते फिरते हैं। उनका अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य अपने पास ही है। जैसे हरिण की नाभि में कस्तूरी है, उसको न जानकर व्यर्थ में किसी दूसरे पदार्थ में सुगन्ध समझ कर वह हरिण इधर उधर भटकता रहता है, उसी प्रकार यह मूर्ख प्राणी विषय भोगों में आसक्त होकर सेवन करेगा तो उसे पश्चाताप ही करना पड़ेगा। हाथी, मछली, भ्रमर, पतंग और हरिण एक एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर प्राण खो देते हैं। जो पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत हैं उनका तो फिर कहना ही क्या है ? इनमें कोई सार नहीं है। इनके सेवन करने से पश्चाताप ही होता है। अपने आत्मस्वरूप से भय मत करो। अनादि काल से पीछे लगे हुए जन्म जरा मृत्यु रूपी काले सर्पों से डरो, मुनिराज के उपदेश से राजा तथा मन्त्री को वैराग्य हो गया। उन्होंने कहा,
अहो मुग्धो लोको मृतिजननदंष्ट्रान्तरगतो न पश्यत्यश्रान्तं तनुमपहरन्तं यमममुम्।
(आत्मानुशासन)
इस संसार में क्षणिक सुख के लिये पिता पुत्र को तथा पुत्र पिता को मारने के लिये तैयार हो जाता है। यमराज की डाढ़ में आये हुए अपने आपको नहीं देखता है। ऐसा विचार कर राजा ने राज्य का परित्याग कर जिन दीक्षा ग्रहण की। तीन खण्ड श्लोक का स्वाध्याय करने वाले यम मुनिराज को सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो गर्इं। स्वाध्याय का फल अनुपम है। इस भगवती वाणी के प्रसाद से जगत्प्रख्यात सत् असत् कर्म पुण्य पाप, सदाचार, हीनाचार का ज्ञान होता है। इस देवी जिनवाणी के अनुशीलन से, मनन से अनन्त दुखी भव्य जीव अनादि कालीन विकार भाव को नष्ट करके स्वभावभाव को प्राप्त हो जाते हैं। भगवती शारदा देवी का भण्डार और उसकी महिमा निराली हे, वचनातीत है, अमोघ है। अत: सर्वं बन्धु और बहिनें स्वाध्याय नित्य प्रति अवश्य किया करें जिससे शीघ्र ही दु:खों का क्षय होकर अन्त में कर्मों का क्षय भी हो जावे। इत्यलम्। शुभं भवतु।