।। श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर देवाय नमः ।।
तद्भव मोक्षगामी हनुमान की कथा
जैनधर्म के बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत भगवान मोक्ष पधारे, उसके बाद उनके शासन में श्री रामचन्द्र, श्री हनुमान वगैरह अनेक महापुरुष मोक्षगामी हुए; उनमें से श्री हनुमान की यह कथा है।
मोक्षगामी भगवान हनुमान की माता सती अंजना थी। यह अंजना पूर्वभव में एक राजा की पटरानी थी, तब अभिमान से उसने जिनप्रतिमा का अनादर किया था; उस कारण इस भाव में अशुभ कर्म के उदय से उस पर कलंक लगा और उसका अनादर हुआ । प्रथम तो उसके पति पवनकुमार उसके ऊपर नाराज हो गये। पीछे सास तथा पिता ने भी उसे कलंकित समझकर घर से निकाल दिया, इस कारण वह सखी के साथ वन-जंगल में रहने लगी, जंगल में मुनिराज के दर्शन कर उसका चित्त धर्म में स्थिर हुआ, अंजना ने जंगल में ही वीर हनुमान को जन्म दिया।
हनुमान के पूर्वभव
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के मंदिरनगर में प्रियनन्दि नामक एक गृहस्थ था, उसके ‘दमयन्त’ नामक एक पुत्र था। एकबार वह वसंतऋतु में अपने मित्रों के साथ वन-क्रीड़ा के लिये वन में गया, वहाँ उसने एक मुनिराज को देखा; जिनका आकाश ही वस्त्र था, तप ही धन था और जो निरन्तर ध्यान एवं स्वाध्याय में उद्यमवंत थे – ऐसे परम वीतरागी मुनिराज को देखते ही दमयन्त अपनी मित्र-मण्डली को छोड़कर श्री मुनिराज के समीप पहुँच गया, मुनिराज को नमस्कार कर वह उनसे धर्म-श्रवण करने लगा। मुनिराज के तत्त्वोपदेश से उसने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की और श्रावक के व्रतों एवं अनेक प्रकार के नियमों से सुशोभित होकर घर आया ।
तत्पश्चात् एकबार उस कुमार ने दाता के सात गुण सहित मुनिराज को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान दिया और अन्त समय में मरण पूर्वक देह का परित्याग कर देवगति को प्राप्त हुआ।
स्वर्ग की आयु पूर्ण कर वह जम्बूद्रीप के मृगांकनगर में रिक राजा की प्रियंगुलक्ष्मी रानी के गर्भ से ‘सिंहचन्द्र’ नामक पुत्र हुआ। वही भी संतों की सेवापूर्वक समाधिमरण ग्रहण कर स्वर्ग गया।
वहाँ से आयु पूर्ण कर भरत क्षेत्र के विजयाई पर्वत पर अ नगर में सुकंठ राजा की कनकोदरी रानी के यहाँ सिंहवाहन नामक छ हुआ, जो महागुणवान एवं रूपवान था। उसने बहुत वर्षों तक राज्य भी किया। तत्पश्चात् विमलनाथ स्वामी के समवशरण में आत्मज्ञान पूर्वक संसार से वैराग्य उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण राज्य का भार अपने पुत्र लक्ष्मी- वाहन को सौंपकर लक्ष्मी-तिलक मुनिराज के परम शिष्यत्व को अंगीकार कर लिया अर्थात् वीतराग देव कथित मुनिधर्म अंगीकर कर लिया और अनित्यादि द्वादशानुप्रेक्षाओं का चितवन करके ज्ञान-चेतनारूप हो गया, उसने महान तप किया और निजस्वभाव में एकाग्रता के बल पर उस स्वभाव में ही स्थिरता की अभिवृद्धि का प्रयत्न करने लगा। तप के प्रभाव से उसे अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो गईं, उसके शरीर से स्पर्शित पवन भी जीवों के अनेक रोगों को हर लेती थी। अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न वे मुनीश्वर निर्जरा के हेतु बाईस प्रकार के परीषहों को सहन करते थे।
इसप्रकार अपनी आयु पूर्ण कर वे मुनिराज ज्योतिष्चक्र का उल्लंघन कर लांतव नामक सप्तम स्वर्ग में महान ऋद्धि से सुसम्पन्न देव हुये। देवगति में वैक्रियक शरीर होता है, अतः मनवांछित रूप बनाकर इच्छित स्थानों पर गमन सहज ही होता था। साथ ही स्वर्ग का वैभव होने पर भी उस देव को तो मोक्षपद की ही भावना प्रवर्तती थी, अत: वह स्वर्ग सुख में ‘जल तें भिन्न कमलवत्’ निवास करता था अर्थात् इन्द्रियातीत चैतन्य सुख की आराधना उसने वहाँ चालू रखी थी।
हनुमान का जन्म
स्वर्ग से निकलकर वह धर्मात्मा जीव अंजना की रत्न-कुक्षी से अलि में हनुमान के रूप में अवतरित हुआ।
जैसे पूर्व दिशा सूर्य को प्रगट करती है, उसी तरह अंजना ने सुर्यक्षम तेजस्वी हनुमान को जन्म दिया, उसका जन्म होते ही गुफा में अधिकार विलय हो गया और ऐसा लगता था, मानो वह गुफा ही स्वर्ण निर्मित हो।
यह उनका अंतिम भवं था, वे कामदेव होने से अत्यंत रूपवान, चहान पराक्रमी, वजशरीरधारी और चरम शरीरी थे, उन्होंने इसी भव में भव का अंत करके मोक्ष को प्राप्त किया था।
अंजना पुत्र को छाती से लगाकर दीनतापूर्ण स्वर में कहने लगी-
“हे पुत्र इस गहन वन में तू उत्पन्न हुआ है, अतः मैं तेरा जन्मोत्सव किस प्रकार मनाऊँ ? यदि तेरा जन्म दादा या नाना के यहाँ होता तो निश्चित ही उत्साहपूर्ण वातावरण में तेरा जन्मोत्सव मनाया जाता । अहो! तेरे मुखंरूपी चन्द्र को देखकर कौन आनंदित न होगा; किन्तु मैं भाग्यहीन सर्व वस्तुविहीन है, अतः जन्मोत्सव का आयोजन करने में असमर्थ हूँ। है पुत्र ! अभी तो मैं तुझे यही आशीर्वाद देती हूँ कि तू दीर्घायु हो, कारण कि जीवों को अन्य वस्तुओं की प्राप्ति की अपेक्षा दीर्घायु होना दुर्लभ है।
हे पुत्र । यदि तू पास है तो मेरे पास सब कुछ है। इस महा गहन वन में भी में जीवित हूँ- यह भी तेरा ही पुण्य-प्रताप है।”
इसी बीच आकाश मार्ग से सूर्यसम तेजस्वी एक विमान आता हुआ दिखा, जिसे देख अंजना भयभीत हो शंकाशील हो गयी और जोर- और से पुकारने लगी। अंजना की उक्त पुकार सुनकर विमान में विद्यमान विद्याधर को दया उत्पन्न हो गई, अत: उसने अपने विमान को गुफा द्वार के समीप उत्तार दिया और विनयपूर्वक अपनी स्त्री सहित गुफा में प्रवेश किया।
विद्याधर राजा और कोई नहीं थे, अंजना के ही माषामागी अर्थात् हनुमत् द्वीप के राजा प्रतिसूर्य ही राज्य प्रस्थान दुःख के बार्तालाप के पश्चात् राजा प्रतिसूर्य ने अपने राज्य प्रस्थान करने की इच्छा प्रगट की, तब अंजना ने राजन् के कथन को स्वीकार कर सर्वप्रथम में विराजमान भगवान जिनेन्द्र की भावपूर्वक वंदना की, तत्पश्चात पुत्र को गोद में लेकर प्रतिसूर्य के परिवार के साथ गुफा द्वार से बाहर निकल आई और विमान के समीप पहुँचकर खड़ी हो गई, उसे जाते देखकर मानो सम्पूर्ण वन ही उदास हो गया हो, वन के हिरणादि पशु भी भीगी पलकों से विदा करते हुये टुकुर-टुकुर उसे निहारते थे…. गुफा, वन एवं पशुओं पर एक बार स्नेहभरी दृष्टि डालकर अंजना अपनी सखी सहित विमान में बैठ गई। विमान आकाश मार्ग से प्रस्थान करने लगा।
विमान आकाशमार्ग से जा रहा है। अंजना सुन्दरी की गोद में बालक खेल रहा है। सभी विनोद कर रहे हैं कि तभी अचानक….कौतुहल से हँसते-हँसते वह बालक माता की गोद से उछलकर नीचे पर्वत पर जा गिरा। बालक के गिरते ही उसकी माता अंजना हाहाकार करने लगी। राजा प्रतिसूर्य ने भी तत्काल विमान को पृथ्वी पर उतार दिया।
उस समय अंजना के दीनता पूर्वक विलाप के स्वर सुनकर जानवरों के हृदय भी करुणा से द्रवित हो उठे –
“हा पुत्र ! यह क्या हुआ। अरे ! यह भाग्य का खेल भी कितना निराला है, पहले तो मुझे पुत्र रूपी रत्न से मिलाया और पश्चात् मेरे रत्न का ही हरण कर लिया। हा! कुटुम्ब के वियोग से व्याकुलित मुझ दुखिया का यह पुत्र ही तो एक मात्र सहारा था, यह भी मेरे पूर्वोपार्जित कमाँ ने मुझसे छीन लिया। हाय पुत्र, तेरे बिना अब मैं क्या करूँगी।”
इसप्रकार इधर तो अंजना विलाप कर रही थी और उधर पुत्र हनुमान जिस पत्थर की शिला पर गिरा था, उस पत्थर के हजारों टुकड़े हो गये थे, जिसकी भयंकर आवाज को सुनकर राजा प्रतिसूर्य ने वहाँ जाकर देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ।
“क्या देखा उन्होंने ?”
उन्होंने देखा कि बालक तो एक शिला पर आनंद से लेटा हुआ मुँह में अपना अँगूठा लेकर स्वत: ही क्रीड़ा कर रहा है, मुख पर मुस्कान की रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है, अकेला पड़ा-पड़ा ही शोभित हो रहा है। अरे ! जो कामदेव पद का धारक हो, उसके शरीर की उपमा किससे दी जावे, उसका शरीर तो सुन्दरता में अनुपम होगा ही।
दूर से ही बालक की ऐसी दशा देखकर राजा प्रतिसूर्य एवं अंजना को अपूर्व आनंद हुआ। अंजना ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक उसके सिर पर चुंबन अंकित किया और छाती से लगा लिया।
राजा प्रतिसूर्य ने अपनी पत्नी सहित बालक की तीन प्रदक्षिणा की तथा हाथ जोडकर सिर झुकाकर नमस्कार किया। तत्पश्चात् पुत्र सहित अंजना को अपने विमान में बैठाकर अपने नगर की ओर प्रस्थान किया।
राजा के शुभागमन के शुभ समाचारों को सुनकर प्रजाजनों ने नगर का श्रृंगार किया और राजा सहित सभी का भव्य स्वागत किया। देशों दिशाओं में जाद्य-वाजित्र के नाद से उन विद्याधरों ने पुत्र-जन्म का भव्य महोत्सव मनाया। जैसा उत्सव स्वर्ग लोक में इन्द्र-जन्म का होता है, उससे किसी तरह यह उत्सव कम नहीं था।
चरम शरीरी जीव हमेशा वज्र संहनन वाले होते हैं, हनुमान भी ब्रजशरीरी होने से ‘वज्र-अंग’ कहलाये। वज्र अंग शब्द से भाषा परिवर्तित होते-होते ‘बज्जर-अंग’ शब्द हो गया और अंत में ‘बजरंग’ शब्द हनुमानजी के लिए प्रसिद्ध हो गया।
उसी प्रकार पर्वत में (गुफा में) जन्म हुआ और विमान से गिरने पर पर्वत के शिला को खण्ड-खण्ड कर दिया, अतः उस बालक की माता एवं मामा ने उसका नाम ‘शैलकुमार’ रखा तथा हनुमत द्वीप में उसका जन्मोत्सव आयोजित होने के कारण जगत में वह ‘हनुमान’ नाम से विख्यात हुआ।
इस प्रकार शैलकुमार अथवा हनुमानकुमार हनुमत द्वीप में रहते हुए समय व्यतीत करने लगे। देव सदृश प्रभा के धारी उन हनुमानकुमार की चेष्टायें सभी के लिये आनंददायिनी बनी हुई थीं।
माता अंजना के साथ बालक हनुमान की चर्चा
महान पुण्यवंत और आत्मज्ञानी-धर्मात्मा ऐसा वह बालक ‘हनुमत’ नाम के द्वीप में आनंद के साथ रह रहा है। अंजना माता अपने लाड़ले बालक को उत्तम संस्कार देती हैं और बालक की महान चेष्टाओं को देखकर आनंदित होती हैं। ऐसे अद्भुत प्रतापवंत बालक को देखकर वे जीवन के सभी दुःखों को भूल गई हैं, तथा आनंद से जिनगुणों में चित्त को लगाकर भक्ति करती हैं। वनवास के समय गुफा में देखे हुए, मुनिराज को बारंबार याद करती हैं।
बालकुंवर हनुमान भी प्रत्तिदिन माता के साथ ही मंदिर जाता है। देव, शास्त्र, गुरु की पूजन करना सीखता है और मुनिराजों की संगति से आनंदित होता है।
एक बार ८ वर्ष के बालक को लाड़ करती हुई अंजना माँ पूछती हैं – “बेटा हनु ! तुझे क्या अच्छा लगता है ?”
हनुमान कहते हैं – “माँ मुझे तो एक तू अच्छी लगती है और एक (आत्मा) अच्छा लगता है।”
माँ कहती है –
“वाह बेटा ! मुनिराज ने कहा था कि तू चरम शरीरी है, अर्थात् तू तो इस भव में ही मोक्षसुख प्राप्त करके भगवान बनने वाला है।”
कुंवर कहता है – “वाह माता, धन्य वे मुनिराज ! हे माता, मुझे आप जैसी माता मिली, तब फिर मैं दूसरी माता क्यों करूँ ? माँ, आप भी इस भव में अर्जिका बनकर भव का अभाव कर एकाध भव में ही मोक्ष को प्राप्त करना।”
अंजना कहती है- “वाह बेटा! तेरी बात सत्य है, सम्यक्त्व के प्रताप से अब तो इस संसार-दुःखों का अंत नजदीक आ गया है। बेटा, जबसे तेरा जन्म हुआ है, तबसे दुःख टल गये हैं और अब ये संसार के समस्त दुःख भी जरूर ही टल जायेंगे।”
कुंवर कहता है – “हे माता ! संसार में संयोग-वियोग की कैसी विचित्रता है तथा जीवों के प्रीति-अप्रीति के परिणाम भी कैसे चंचल और अस्थिर हैं ! एक क्षण पहले जो वस्तु प्राणों से भी प्यारी लगती है, दूसरे क्षण वही वस्तु ऐसी अप्रिय लगने लगती है कि उसकी तरफ देखना भी नहीं सुहाता तथा कुछ समय बाद वही वस्तु फिर से प्रिय लगने लगती है
इसप्रकार परवस्तु के प्रति प्रीति-अप्रीति के क्षणभंगुर परिणामों द्वारा जीव आकुल-व्याकुल रहा करता है। एक मात्र चैतन्य का सहज ज्ञान स्वभाव ही स्थिर और शांत है, वह प्रीति-अप्रीति रहित है – ऐसे स्वभाव की आराधना बिना अन्यत्र कहीं सुख नहीं है।”
अंजना कहती है – “वाह बेटा ! तेरी मधुर वाणी सुनने से आनन्द आता है, जिनधर्म के प्रताप से हम भी ऐसी आराधना कर ही रहे हैं। जीवन में बहुत कुछ देख लिया, दुःखमय इस संसार की असारता जान ली। बेटा! अब तो बस, आनंद से एक मोक्ष की ही साधना करना है।”
इसप्रकार हमेशा माँ-बेटा (अंजना और हनुमान) बहुत देर तक आनंद से चर्चा कर एक-दूसरे के धर्म-संस्कारों को पुष्ट करते रहते ।
राजपुत्र हनुमान, विद्याधरों के राजा प्रतिसूर्य के यहाँ हनुमत द्वीप में देवों के समान खेलता और आनंदकारी चेष्टाओं द्वारा सभी को आनन्दित करता – ऐसा करते-करते वह नवयौवन दशा को प्राप्त हुआ। कामदेव होने से उसका रूप लावण्य परिपूर्ण खिल उठा।
भेदज्ञान की वीतरागी विद्या तो उसे प्रगट ही थी, इसके उपरांत आकाशगामिनी आदि अनेक पुण्य-विद्यायें भी उसे सिद्ध हो गईं। वह समस्त जिनशास्त्र के अभ्यास में प्रवीण हो गया। उसे रत्नत्रय धर्म की परम प्रीति थी, वह सदा देव-गुरु-धर्म की उपासना में तत्पर रहता था। अतः युवा बंधुओ! हनुमान का महान आदर्श लक्ष्य में रखकर आप भी उसके समान होने का प्रयत्न करो।
केवली के दर्शन से हनुमान को महान आनंद
एकबार श्री अनंतवीर्य मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों तथा विद्याधरों का समूह आकाश से मंगल बाजे बजाते हुए केवलज्ञान का महान उत्सव मनाने आया। हनुमान भी आनन्द से उत्सव में गये और भगवान के दर्शन किये। अहा ! दिव्य धर्मसभा के बीच निरालम्ब विराजमान अनंत चतुष्टयवंत अरहंतदेव को देखते ही हनुमान को कोई आश्चर्यकारी प्रसन्नता हुई। उसने इस जीवन में प्रथम बार ही वीतराग देव को साक्षात् देखा था। जिसप्रकार सम्यग्दर्शन के समय प्रथम बार अपूर्व आत्मदर्शन होते ही भव्यजीवों के आत्मप्रदेश परम-आनन्द से खिल उठते हैं, उसी प्रकार हनुमान का हृदय भी प्रभु को देखते ही आनन्द से खिल उठा।
अहा, प्रभु की सौम्य मुद्रा ! पर कैसी परम शांति और वीतरागता छा रही है – यह देख-देखकर हनुमान का रोम-रोम हर्ष से उल्लसित हो गया। वह प्रभु की सर्वज्ञता में से झरता हुआ अतीन्द्रिय आनन्द रस, श्रद्धा के प्याले में भर-भर कर पीने लगा। परम भक्ति से उसकी हृदय-वीणा झनझना उठी।
अत्यंत आत्मोत्पन्न विषयातीत अनूप अनंत जो।
विच्छेदहीन है सुख अहो ! शुद्धोपयोग प्रसिद्ध का ।।
(प्रवचनसार गाथा ५० का हिन्दी पद्यानुवाद)
अहो प्रभो ! आप अनुपम अतीन्द्रिय आत्मा के सुख को शुद्धोपयोग के प्रसाद से अनुभव कर रहे हो ! हमारा भी यही मनोरथ है कि ऐसा उत्कृष्ट अनुपम सुख हमें भी अनुभव में आवे ।
ऐसी प्रसन्नता पूर्वक स्तुति करके हनुमान केवली प्रभु की सभा में मनुष्यों के कोठे में जाकर बैठे। महाराजा रावण, इन्द्रजीत, कुंभकरण, विभीषण वगैरह भी प्रभु के केवलज्ञान-उत्सव में आये तथा भक्ति भाव से प्रभु की वंदना करके धर्मसभा में बैठे। प्रभु का उपदेश सुनने के लिए सभी आतुर हैं कि अब वहाँ चारों ओर आनंद फैलाती हुई दिव्यध्वनि छूटी; भव्यजीव हर्ष-विभोर हो गये। जैसे तीव्र गर्मी में मेघवर्षा होते ही जीवों को शांति हो जाती है, वैसे ही संसार क्लेश से संतप्त जीवों का चित्त दिव्यध्वनि की वर्षा से अत्यंत शांत हो गया।
दिव्यध्वनि में प्रभु ने कहा- “अहो जीवो। संसार की तियों के शुभाशुभभाव दुःख रूप हैं, आत्मा की मोक्षदशाही परम – ऐसा जानकर सायम्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा उसकी करो। वे सायदर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों राग रहित हैं और आद है।” यहाँ भव्यजीव एकदम शांतचित्त से भगवान का उपदेश सुन रहे हैं।
भगवान की दिव्यध्वनि में आया. “आत्मा के चैतन्यसुख के अनुभव बिना अज्ञानी जीव पुण्य-पाप में मूर्छित हो रहा है और बाड़ा वैभव की तृष्णा की दाह से दुःखी हो रहा है। अरे जीवो ! विषयों की लालसा छोड़कर तुम अपनी आत्मशक्ति को जानो, विषयातीत चैतन्य का महान सुख तुम्हारे में ही भरा है।
आत्मा को भूलकर जीव विषयों के वशीभूत होकर महानिंद्य पापकर्मों के फलस्वरूप नरकादि गतियों के महादुःख को भोगते हैं। अरे, महादुर्लभ मनुष्यपना पाकर के भी तू आत्महित को नहीं जानता तथा तीव्र हिंसा-झूठ-चोरी आदि पाप करके नरक में जाता है। माँस-मच्छी-अंडा- शराब आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करनेवाला जीव नरक में जाता है, बहाँ उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं – ऐसे महादुःखों से आत्मा को छुड़ाने के लिए, हे जीवो ! तुम अपने आत्मा को पहिचान कर, श्रद्धा कर एवं अनुभव करके शुद्धोपयोग प्रगट करो, शुद्धोपयोग रूप आत्मिक धर्म का फल ही मोक्ष है।
जीव कभी पुण्य करके देवगति में उपजा, वहाँ भी अज्ञान से बाह्य वैभव में ही मूर्छित रहा, उसने आत्मा के सच्चे सुख को जाना नहीं। अरे, अभी यह महादुर्लभ अवसर धर्म सेवन करने के लिए मिला है; इसलिए हे जीव ! तू अपना हित कर ले, ये संसार सागर में खोया हुआ मनुष्य-रत्न फिर हाथ आना बड़ा दुर्लभ है। इसलिए जैन-सिद्धांत के अनुसार तत्त्वज्ञान पूर्वक मुनिधर्म या श्रावकधर्म का पालन करके आत्मा का हित करो।”
इसप्रकार श्री अनंतवीर्य केवली प्रभु के श्रीमुख से हनुमान एकाग्रचित से उपदेश सुनकर परम वैराग्य में तन्मय हो गये। राजा रावण आदि भी भक्ति से उपदेश सुन रहे हैं- ऐसा सुन्दर बीतरागी धर्म का उपदेश सुनकर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च – सभी आनंदित हुए; कितने ही जीवों ने साक्षात मोक्षामार्गरूप मुनिपद धारण किया। कितनों ने श्रावकव्रत अंगीकार कर लिये, कितने ही जीव कल्याणकारी अपूर्व सम्यक्त्व धर्म को प्राप्त हुए।
हनुमान, विभीषण आदि ने भी उत्तम भाव से श्रावकव्रत धारण किये। हनुमान की तो यद्यपि मुनि होने की भावना थी, परन्तु माता अंजना के प्रति परम स्नेह के कारण वह मुनि नहीं बन सके। अरें, संसार का स्नेह- बंधन तो ऐसा ही है।
भगवान के उपदेश से बहुत से जीवों में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र खिल उठता है। जैसे वर्षा होने से बगीचा खिल जाता है, वैसे ही जिनवाणी की अमृतवर्षा से धर्मात्मा जीवों का आनन्द बगीचा श्रावकधर्म तथा मुनिधर्म रूप फूलों से खिल उठता है।
इसी प्रसंग पर एक मुनिराज ने रावण से कहा-
“हे भद्र ! तुम भी कुछ नियम ले लो। भगवान का यह समवशरण तो धर्म का रत्नद्वीप समान है; इस रत्नद्वीप में आकर तुम भी कुछ नियमरूपी रत्न ले लो, महापुरुषों के लिए त्याग कोई खेद का कारण नहीं।”
यह सुनकर जैसे रत्नद्वीप में प्रवेश करने वाले किसी मनुष्य का मन घूमने लगता है कि “मैं कौनसा रत्न लेऊँ ? ये लेऊँ कि ये लेऊँ?” वैसे ही राजा रावण का चित्त घूमने लगा – “मैं कौनसा नियम लेऊँ ?”
भोगों में अत्यंत आसक्त ऐसे रावण को मन में चिंता होने लगी –
“मेरा खान-पान तो सहज ही पवित्र है, माँसादि मलिन वस्तुओं से रहित ही मेरा आहार है; परंतु मतवाले हाथी के जैसा भोगासक्त मेरा मन महाव्रत का भार उठाने में तो समर्थ नहीं। अरे, महाव्रत की तो क्या बात ? परन्तु श्रावक का एक भी अणुव्रत धारण करने की मेरी शक्ति नहीं। अरेरे! मैं महा शूरवीर होने पर भी तप-व्रत धारण करने में असमर्थ हैं। अहे। वे महापुरुष धन्य है कि जिन्होंने महाव्रत अंगीकार किये हैं। वे श्रावक भी धन्य हैं कि जो अणुव्रतों को पालते हैं। मैं महाव्रत या अणुक्त तो नहीं ले सकता तो भी एक छोटा सा नियम तो जरूर लेऊँ।”
– ऐसा विचार कर राजा रावण ने भगवान को प्रणाम करके कहा-
“हे देव ! मैं ऐसा नियम लेता हूँ कि जो पर-नारी मुझे चाहती हो, उसे मैं नहीं भोगूँगा। पर-स्त्री चाहे कितनी ही रूपवान क्यों न हो तो भी मैं बलात्कार करके उसका सेवन नहीं करूँगा।”
इसप्रकार अनंतवीर्य केवली के समक्ष रावण ने प्रतिज्ञा की। उसके मन में ऐसा था कि जगत में ऐसी कौनसी स्त्री है कि जो मुझे देखकर मोहित न हो जाय ? अथवा ऐसी वह कौन परस्त्री है, जो विवेकी-पुरुष के मन को डिगा सके ?
रावण के भाई कुंभकरण ने भी इस प्रसंग पर प्रतिज्ञा ली – कि “प्रतिदिन सुबह से उठकर मैं जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक-पूजन करूंगा; तथा आहार के समय मुनिराज पधारें तो उनको आहारदान देकर पीछे मैं भोजन करूँगा। मुनि के आहार के समय से पहले मैं आहार नहीं करूँगा।”
इसप्रकार धर्मात्मा कुंभकरण (जो चरमशरीरी हैं तथा बड़वानी- चूलगिरि सिद्धक्षेत्र से मोक्ष गये हैं) ने नियम लिया। दूसरे कितने ही जीवों ने भी अपनी-अपनी शक्ति अनुसार अनेक प्रकार के व्रत-नियम लिये।
इसप्रकार केवली प्रभु की सभा में आनन्द से धर्म श्रवण करके तथा व्रत-नियम अंगीकार करके सभी अपने-अपने स्थान पर चले गये।
हनुमान को तो आज हर्ष का पार न था। आज तो उन्होंने साक्षात् भगवान को देखा था, उनके हर्ष की क्या बात करनी ! घर आते ही अपने महान हर्ष की बात उनने अपनी माता से कही –
“अहो माँ ! आज तो मैंने अरहंत परमात्मा को साक्षात् देखा है।
अहो, कैसा अद्भुत उनका रूप ! कैसी अद्भुत उनकी शांत मुद्रा ! और कैसा आनन्दकारी उनका उपदेश ! माँ आज तो मेरा जीवन धन्य हो गया।”
माँ बोली – “वाह बेटा ! अरिहंत देव के साक्षात् दर्शन होना तो वास्तव में महाभाग्य की बात है, तथा उनके स्वरूप को जो पहिचाने, उसे तो भेदज्ञान प्रगट हो जाता है।”
हनुमान कहते हैं – “वाह माता ! आप की बात सत्य है। अरिहंत परमात्मा तो सर्वज्ञ हैं, वीतराग हैं; उनके द्रव्य में, गुण में, पर्याय में सर्वत्र चैतन्य भाव ही है, उनमें राग का तो कोई अंश भी नहीं है अर्थात् उनको पहिचानते ही आत्मा का राग रहित सर्वज्ञ-स्वभाव पहिचान में आ जाता है – ऐसी पहिचान का नाम ही सम्यग्दर्शन है।
कहा भी है –
जो जानता अरिहन्त को, चेतनमयी शुद्धभाव से ।
वह जानता निज आत्मा, समकित ग्रहे आनन्द से ।।
हे माता, अनुभवगम्य हुई इस बात को श्री प्रभु की वाणी में सुनते ही कोई महान प्रसन्नता होती है।”
माता अंजना भी पुत्र का हर्ष देखकर आनन्दित हुई और बोली-
वाह बेटा ! सर्वज्ञ भगवान के प्रति तेरी परिणति ऐसा बहुमान का भाव देखकर मुझे बहुत आनन्द होता है। भगवान की वाणी में तूने और क्या सुना, वह तो कह ?”
हनुमान ने अत्यंत उल्लास से कहा- “अहो माता ! आत्मा का अद्भुत आनन्दमय स्वरूप भगवान बताते थे। वीतराग रस से भी चैतन्यतत्त्व की कोई गंभीर महिमा भगवान बतलाते थे, उसे सुनते ही भव्यजीव शांतरस के समुद्र में सराबोर हो जाते थे। माता, वहाँ तो बहुत से मुनिराज थे, वे तो आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द में झूलते थे। अहो, ऐसे आनन्द में झूलते मुनिवरों को देखकर मुझे उनके साथ रहने का मन हुआ, परन्तु…. (इतना कहकर हनुमान रुक गए)”
अंजना ने पूछा “क्यों बेटा हनुमान ! तू बोलते-बोलते स्क क्यों गया ?”
“क्या कहती हो माँ ! मुझे मुनिदशा की बहुत भावना हुई, परन्त हे माता मैं तेरे स्नेह-बंधन को तोड़ नहीं सका; तुम्हारे प्रति परम प्रेम के कारण मैं मुनि नहीं हो सका। माता, सारे संसार का मोह मैं एक क्षण में छोड़ने को समर्थ हूँ, परन्तु तेरे प्रति उत्पन्न मोह नहीं छूटता है, इसलिए महाव्रत के बदले मैंने मात्र अणुव्रत ही धारण किये।”
“अहो पुत्र ! तू अणुव्रतधारी श्रावक हो गया – ये महा आनन्द की बात है। तेरी उत्तम भावनाओं को देखकर मुझे हर्ष होता है। मैं ऐसे महान धर्मात्मा और चरमशरीरी मोक्षगामी पुत्र की माता हूँ – इसका मुझे गौरव है। अरे, वन में जन्मा हुआ मेरा ये पुत्र अंत में तो वनवासी ही होगा और आत्मा की परमात्मदशा को साधेगा।”
माता-पुत्र बहुत बार ऐसी आनन्दपूर्वक धर्मचर्चा करते थे। ऐसे धर्मात्मा जीवों को अपने आंगन में देखकर राजा प्रतिसूर्य (अंजना के मामा) भी खुश होते थे…. कि वाह ! ऐसे धर्मी जीवों की सेवा क अनायास ही लाभ मिला – यह हमारा धन्य भाग्य है ! यथासमय युन समाप्त होने पर श्री पवनजय भी यहाँ आकर राजा प्रतिसूर्य का आतिथ एवं अंजना और पुत्र हनुमान को पाकर आनन्दित हो रहे थे।
रणशूर हनुमान…. रावण की मदद में
प्रतिसूर्य राजा का राजदरबार भरा हुआ है। श्री पवनकुमार, हनुमान आदि भी राजसभा में शोभायमान हो रहे हैं, तेजस्वी हनुमान को देखकर सभी मुग्ध हो रहे हैं, इतने में रावण के एक राजदूत ने राजसभा में प्रवेश किया और प्रतिसूर्य राजा से रावण का संदेश देते हुए कहने लगा –
“हे महाराज ! मैं लंकाधिपति रावण महाराज का संदेश लेकर आया हूँ; पहले जिस वरुण राजा को पवनकुमार ने जीत लिया था, वह वरुण राजा अब फिर से महाराजा रावण की आज्ञा के विरुद्ध आचरण कर रहा है; इसीलिए उसके साथ युद्ध में मदद करने के लिए आपको तथा पवनकुमार को महाराजा रावण ने पुनः आमंत्रित किया है।”
रावण की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा प्रतिसूर्य तथा पवनकुमार युद्ध में जाने की तैयारी करने लगे और हनुमत द्वीप का राज्यभार हनुमान को सौंपने का विचार कर उसके राज्याभिषेक की तैयारी करने लगे। यह देखकर वीर हनुमान ने कहा –
“पिताजी ! आप दोनों वृद्ध (बुजुर्ग) हो, मेरे होते हुए आपका युद्ध में जाना उचित नहीं। मैं ही युद्ध में जाऊँगा और वरुण राजा को जीत कर आऊँगा।”
यह सुनकर पवनकुमार बोले
“बेटा हनुमान ! तुम शूरवीर हो, ये सत्य है; परंतु अभी तुम बालक हो, तुम्हारी उम्र छोटी है, तुमने रणभूमि कभी देखी नहीं, दुश्मन राजा बड़ा बलवान है, उसके पास बड़ी सेना है, तथा उसका किला बहुत मजबूत है; इसलिए तू युद्ध में जाने का आग्रह छोड़ दे, हम ही जायेंगे।”
तब हनुमान कहते हैं – “भले मैं छोटा हूँ, परन्तु शूरवीर हूँ; रणक्षेत्र पहले कभी नहीं देखा – इससे क्या ? ऐसे तो हे पिताजी ! चारों
गतियों में अनादिकाल से भ्रमण करते हुए जीवों ने मोक्षगति कभी नहीं देखी, फिर भी उस अभूतपूर्व ऐसे मोक्षपद को क्या मुमुक्षुजीव आत्म- उद्यम द्वारा नहीं साधते ? पहले कभी नहीं देखी हुई मोक्षपदवी को भी मुमुक्षुजीव पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर ही लेते हैं- इसी प्रकार पहले कभी नही सुख हुरा, आत्मतत्त्व को अपूर्व सम्यग्ज्ञान द्वारा भव्य जीव देख ही लेते हैं, तो फिर पहले नहीं देखा – ऐसे रणक्षेत्र में जाकर शत्रु को जीत लेना कीना बड़ी बात है ? इसीलिए हे पिताजी ! मुझे ही युद्ध में जाने दो, मैं यहण राजा को जीत लूँगा। जिसप्रकार शेर का बच्चा बड़े हाथी के सामने जाने से नहीं डरता, उसी प्रकार मैं भी निर्भय होकर वरुण राजा के सामने जाने से नहीं डरता, अवश्य ही मैं उसे जीत लूँगा।”
हनुमान की वीरताभरी बातें सुनकर सभी प्रसन्न हुए। वाह, देखो मोक्षगामी जीव की भणकार ! युद्ध की बात से भी उसने मोक्ष का दृष्टांत प्रस्तुत किया है। यद्यपि अनादि अज्ञानदशा में जीव ने कभी आत्मा को जाना नहीं था, न सिद्धपद का स्वाद ही चखा था, फिर भी जब वह मुमुक्षु हुआ और मोक्ष को साधने तैयार हुआ; तब आत्मस्वभाव में से ही सम्यग्ज्ञान प्रगट करता हुआ, चैतन्य की स्वाभाविक वीरता द्वारा आत्मा को जान लेता है और अनादि के मोह को जीतकर सिद्धपद को साध लेता है। लोक में कहावत है कि- ‘रणे चढ़ो राजपूत छिपे नहीं’
इसप्रकार हनुमान का अति आग्रह देखकर उसे कोई रोक नहीं सका, अन्त में सभी ने उसे युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी।
प्रसन्नचित्त से विदाई लेकर हनुमानजी जिन-मंदिर में गये; वहाँ बहुत ही शांतचित्त से अष्ट मंगल द्रव्यों द्वारा अरहंत देव की पूजा की, सिद्धों का ध्यान किया और भावना भायी –
“अहो भगवंतो ! आप समान मैं भी मोहशत्रु को जीतकर आनन्दमय मोक्षपद को कब साहूँगा।”
इसप्रकार पंच परमेष्वी भगवत्तों की पूजत करने के बाद हनुमान के माता के पास जाकर विदाई मांगी –
“हे माँ। में सुद्ध में जीतने जा रहा हूँ, तुम मुझे आशीर्वाद दो।”
माता अंजना तो आश्चर्य में पड़ गई ऐसे शूरवीर पुत्र को देखकर उसके हृदय में स्नेह उमड़ आया… पुत्र को युद्ध के लिए विदाई देते समय उसकी अध्धिों में आंसू भर आगे; परंतु पुत्र की शूरवीरता का उसे विश्वास थी, इसलिए आशीर्वाद पूर्वक विदाई दी –
“बेटा । जा, जिसप्रकार वीतरागी मुनिराज शुद्धोपयोग द्वारा मोह को जीत लेते हैं, उसीप्रकार तू भी शत्रु को जीतकर जल्दी वापिस आना।”
माता के चरणों में नमस्कार करके हनुमान ने विदाई लेकर, लश्कर सहित लंका नगरी की तरफ प्रस्थान किया। रास्ते में अनेक शुभ शगुन हुये।
जब बीर हनुमान रावण के पास जा पहुँचे; तब दिव्यरूपधारी हनुमान को देखते ही राक्षसवंशी-विद्याधर राजागण विस्मित होकर बातें करने लगे –
“ये हनुमानजी महान भव्योत्तम हैं, इन्होंने बाल्यावस्था में ही पर्वत की शिला चूर-चूर कर डाली थी, ये तो वज्र-अंगी हैं। महाराजा रावण ने भी प्रसन्नता से उसका सन्मान किया तथा स्नेहपूर्वक हृदय से लगाकर उसे अपने पास बैठाया; उसका रूप देकर हर्षित हुए और कहा कि पहले इनके पिताजी पवनकुमार ने हमारी मदद की थी और अब ऐसे बीर तथा गुणवान हनुमान को भेजकर हमारे ऊपर बहुत ही स्नेह प्रदर्शित किया है। इसके समान बलबान योद्धा दूसरा कोई नहीं, इसलिए अब रण- संग्राम में वरुण राजा से हमारी जीत निश्चित है।”
(यद्यपि रावण के पास दैवी आयुध होने से उनके द्वारा हव राजा को आसानी से जीत सकता था, परंतु उसने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि वरुण राजा को दैवी शस्त्रों के बिना ही जीतना है।)
अब पुनः रावण ने वरुण राजा के साथ संग्राम शुरू किया। वण राजा की पुंडरीक नगरी लवण समुद्र के बीच में थी; हनुमान ने समुद्र को राजा की पुरम प्रवेश किया। भयानक लड़ाई या हुई। बरुण के पुत्रों के रावण को चारों ओर से घेर लिया। एक बार विद्या के बल से कैलाश पर्यंत को भी हिला देने वाला राजा रावण शत्रुओं से घिर गया यह हनुमान तुरन्त ही वहाँ दौड़कर आये और उन राजपुत्रों पर झपट पड़े। जैसे हवा के थपेडों से पत्ते काँपने लगते हैं, वैसे ही पवनपुत्र के हमले से शत्रुओं के हृदय काँप उठे। जैसे जिनमार्ग के अनेकांत के सामने एकांत रूप मिथ्यामत टिक नहीं सकते, वैसे ही हनुमानजी के सामने वरुण की सेना टिक नहीं सकी। हनुमान ने विद्या के बल से वरुण के सौ के सौ पुत्रों को पकड़ कर बाँध लिया। दूसरी ओर रावण ने भी वरुण राजा को पकड़ कर बंदी बना लिया। देखकर
इस तरह रावण की जीत होते ही उसके लश्कर ने वरुण राजा की पुंडरीक नगरी में प्रवेश किया तथा लश्कर के सैनिक उस नगरी को लूटने का विचार करने लगे, परन्तु नीतिवान राजा रावण ने उनको रोकते हुए कहा
“प्रजा को लूटना – ये राजा का धर्म नहीं है; अपना वैर तो राजा वरुण के साथ था, प्रजा के साथ नहीं; प्रजा का क्या अपराध ? प्रजा को लूटना बड़ा अन्याय है – ऐसा दुराचार अपने को शोभा नहीं देता, इसलिए प्रजा की रक्षा कर उसे निर्भय बनाओ तथा वरुण राजा को छोड़कर उसका राज्य उसे सौंप दो” .. रावण का ऐसा उदार व्यवहार देखकर सभी उसकी प्रशंसा करने लगे।
लड़ाई के ठीक मौके पर आकर हनुमानजी ने रावण की रक्षा की, इससे रावण उसके ऊपर बड़ा खुश हुआ अतः उसने अपनी भानजी (खरदूषण की पुत्री) अनंगकुसुमा के साथ विवाह कर उसे कर्णकुंडलपुर नगरी का राज्य उसको दिया।
जैसे भरत चक्रवर्ती के भाई बाहुबली प्रथम कामदेव थे, वैसे ही बजरंगबली हनुमान भी आठवें कामदेव थे, उनका रूप बेजोड़ था; पवनकुमार नाम के विद्याधर राजा और अंजना सती के वे पुत्र थे; उस राजपुत्र की ध्वजा में कपि (बंदर) का निशान था।
जैसे बाहुबली कामदेव होने से अद्भुत रूपवान थे; अनेक रानियाँ, पुत्र-पुत्रियाँ, राज परिवार वगैरह विशिष्ट पुण्य वैभव था; वैसे ही हनुमान कामदेव थे, उनका भी विशिष्ट पुण्य वैभव था। बाहुबली तथा हनुमान दोनों कामदेव होने पर भी निष्काम आत्मा को जाननेवाले थे, चरमशरीरी थे, आत्मा के ब्रह्मस्वरूप के ज्ञानपूर्वक अन्त में राजपाट, रानियाँ आदि सभी को छोड़कर, परमब्रह्मस्वरूप निजात्मा में लीनता द्वारा मोक्षपद को प्राप्त हुये।
वरुण से युद्ध करके वापिस आते समय वह पर्वत भी बीच में आया तथा वह वन और वह गुफा भी आई कि जिसमें वनवास के समय अंजना रहती थी, हनुमान उसे देखने के लिए नीचे उतरे और माता के वनवास के समय का निवासस्थान देखकर उन्हें बहुत वैराग्य जागृत हुआ। अहा, यहीं इसी वन में और इसी गुफा में मेरी माता रहती थी।
इस गुफा में विराजमान मुनिराज ने मेरी माता को धर्मोपदेश दिया था, तथा पूर्वभव भी कहे थे। अहा, यहीं मुनिसुव्रतनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान है। मेरी पी उनके दर्शन-पूजन करते ही सभी दुःख भूल जाती थी, यहाँ इसी गुफा में मेरा जन्म हुआ था। इसप्रकार विचार कर अपने जन्मधाम (गुफा) में बैठकर हनुमान चैतन्य का ध्यान करने लगे।
अहो, कुछ समय पहले लड़ाई और कुछ समय बाद ही निर्विकार शांति का ध्यान ! वाह ! साधक धर्मात्मा की परिणति कैसी विचित्र है!! कैसी अद्भुतता भरी है उसके चैतन्यभाव में !!! अन्य भावों के समय वह उससे न्यारा ही न्यारा वर्तता है। वाह साधक ! धन्य है आपका जीवन ! आपका जीवन अन्य जीवों को भी भेदज्ञान और आराधना का ही बोध दे रहा है।
अहो जीवो ! हनुमान जैसे धर्मसाधक जीवों के जीवन में उदयभाव के अनेक प्रसंगों को देखते हुए भी उनकी उदयातीत चैतन्यदशा को भूलना मत। औदयिक भावों से जो भिन्न है, औदयिक भाव से भी जो अधिक बलवान है – ऐसे सम्यक्त्वादि चैतन्यभावों से सुशोभित साधक जीवों के जीवन को पहचान कर उनका सन्मान करना। अकेले औदयिकभावों को ही देखने मत लग जाना।
मार्ग में किष्किंधापुर नगरी आई, वहाँ का विद्याधर राजा सुग्रीव बड़ा ही पराक्रमी था, उसकी पुत्री पद्मरागा हनुमान पर मोहित हो गई। हनुमान का चित्त भी उसका चित्र देखकर आसक्त हो गया। इस कारण दोनों की शादी हुई। उसके बाद हनुमान हनुमत द्वीप पहुँचे – ऐसे शूरवीर प्रतापवंत एवं धर्मात्मा पुत्र को देखते ही माता अंजना तथा पिता पवनकुमार आदि सभी बहुत प्रसन्न हुए तथा विजयोत्सव मनाया।
(लंकानगरी का महाराजा रावण, हजारों राजा जिसकी सेवा करते हैं, १८,००० जिसकी रानियाँ हैं, भरत क्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत की
उक्षिण दिशा के तीन खंडों का जो अधिपति है, जिसके यहाँ देवी सुदर्शन ● इगट हुआ, सभी राजाओं ने मिलकर अर्द्धचक्रवर्ती के रूप में जिसका राज्याभिषेक किया; वह राजा रावण मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के हास्यकाल में आठवाँ प्रतिवासुदेव हुआ था; राक्षसवंशी विद्याधर राजाओं के कुल का वह तिलक था, वह माँसाहारी नहीं था, वह तो शुद्ध भोजन इसने वाला जिनभक्त था। उसकी लंकानगरी की शोभा अद्भुत थी तथा वहाँ के राजमंदिर में शांतिनाथ भगवान का अति मनोहर एक जिनालग श्री: वहाँ जाकर रावण जिनेन्द्र भक्ति करता और विद्या भी साधता था। लका प्रवेश के बाद रामचन्द्रजी ने भी उस जिनमंदिर में शांतिनाथ भगवान की अद्भुत भक्ति की थी। हनुमान भी कोई बंदर नहीं थे, परन्तु आठवें कामदेव थे तथा चरमशरीरी महात्मा थे। शास्त्रकार कहते हैं –
“अहो भव्यजीवो ! तुम जिनशास्त्र के अनुसार भगवान रामचंद्र, भगवान हनुमान, इन्द्रजीत, कुंभकरण वगैरह के वीतरागी स्वरूप को पहिचानो, जिससे तुम्हें उन मोक्षगामी महान सत्पुरुषों के अवर्णनाद का दोष न लगे तथा रत्नत्रयमार्ग का उत्साह जागृत हो। जिन-शास्त्र तो रत्नों के भंडार हैं। इन जिन-शास्त्रों के अनुसार वस्तु के सत्य स्वरूप को जानते ही मिथ्यावादी पाप धुल जाते हैं, और अपूर्व हितकारी भाव प्रगट होते हैं।”)
(बंधुओ, अपनी इस कथा का सम्बन्ध हनुमान के जीवन-चरित्र से सम्बन्धित हैं। हनुमान राजा रावण को लड़ाई में मदद देकर वापिस हनुरुह द्वीप आये। आगे के प्रकरण में हनुमान सीता को खोजने में रामचन्द्रजी की मदद करेंगे। इतना ही नहीं, रावण के साथ हुए युद्ध में लक्ष्मण को बचाने में भी हनुमान बहुत मदद करेंगे, परन्तु उसके पहले अपने को रामचन्द्र और सीता सम्बन्धी थोड़ा इतिहास जान लेना भी जरूरी है। अभी तो हनुमान अपनी माता अंजना के पास वरुण के साथ युद्ध की वार्ता और बीच वन में आये अपने जन्मधाम की वार्ता करने में
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