यह पर्व जीवन में नया परिवर्तन लाता है। दश दिवसीय यह पावन पर्व पापों और कषायों को रग रग से विसर्जन करने का संदेश देता है।
क्षमा धर्म—क्रोध अग्नि के समान है तो क्षमा जल के समान है, क्षमा का नीर क्रोध की अग्नि में लगातर पड़ता रहे तो क्रोध के अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है। क्षमारूपी जल को धारण करने वाले के पास किसी प्रकार के क्रोध के अंगारे आयें तो वे स्वत: ही कुछ समयों परान्त बुझ जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक बार क्रोध करने करने से साढ़े आठ घंटे कार्य करने की क्षमता समाप्त हो जाती है। ये क्रोध रूपी आंधी
क्षमा—दया—ज्ञान मित्रता रूपी दीपक को बुझा देती है अत: क्षमा जल में सतत अवगाहन करो।
मार्दव धर्म—मान को मारना ही मार्दव को स्वीकारना है। जब व्यक्ति का अहम् पना समाप्त हो जाता है, अहंकार गिर जाता है तब उसके लिये परमात्मा का द्वार स्वत: ही खुल जाता है। बीज मिटता है तभी वृक्ष बनता है। अहंकार हटता है तभी व्यक्ति परमात्मा से जुड़ता है। जिन्होंने अहंकार को छोडऋा है, नम्र हुए है, वे ही मार्दवता की मृदुता को उपलब्ध होकर परमात्मा बने हैं।
आर्जव धर्म—आर्जव धर्म ऋजुता—सरलता—प्रमाणिकता व बच्चों जैसे भोलेपन को लिए होता है। जिस प्रकार रूई में लपेटी आग नहीं छिप सकती है वह नियम से प्रगट हो जाती है। उसी प्रकार मायाचारी छिपाये नहीं छिपती। मायाचारी करने वाला ढोंग में ज्यादा जीता है—ऋजुता में जीने वाला ढंग से जीता है। ढंग का जीवन ही परमार्थ में कारण है।
शौच धर्म—शौच धर्म का अर्थ है—लोभ का अभाव। आत्मा में लोभ का अंकुर फूटे उसके पहले ही उसे मिटा डालना। संसार को धन (सम्पत्ति) को संसार वृद्धि का कारण समझना। क्योंकि धन आशक्ति का भाव उत्पन्न करता है जो देता है वह देवता है और जो रखता है वह राक्षस होता है। लोभी के हाथों में पूरा विश्व भी ला जाये तो भी उसे संतोष नहीं मिलता है। लालच की दुर्गन्ध का न होना ही शौच धर्म है। क्रोध प्रीति का, मान विनय का—माया मैत्री का और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है।
सत्य धर्म—सत्य मानव जीवन का शृंगार है। आत्मा की सफाई होने के उपरान्त आत्मा के दिव्य आसन में सत्य का देवता विराजमान हो जाता है। सत्य मिश्री की भाँति है। मिश्री कहीं से भी खाई जाये मीठा ही स्वाद आता है। सत्य का अनुभव कहीं से भी किया जाये आनंद की ही अनुभूति होती है। सत्य चर्चा का विषय नहीं, चर्या का विषय है। सत्य को पाने के लिये स्वयं को मिटना पड़ता है। बीज मिटता है तभी वृक्ष के लिए अंकुर का रूप पाता है। सत्य की महिमा का गुणगान नहीं किया जा सकता है।
संयम धर्म—संयम जीवन को पापी बनाने से रोकता है। संयम हमेशा अच्छाईयों को ग्रहण करता है, बुराईयों को छोड़ता है। मन को स्थिर करने का प्रयास ही संयम है। परिणामों की निर्मलता संयम की आधार शिला है। संयम जीवन की दिशा बोध प्रदान करता है।
तप धर्म—विषय भोगों के प्रति उदासीन होने का नाम तप है। जब आत्मा में संयम का जागरण होता है। तभी व्यक्ति तपस्या को अंगीकार करता है। संसारी सभी परमात्मा बनने वाली आत्मायें तपस्या के बल पर ही परमात्मा बन सही है। अंतरंग तप और अहिरंग तप के भेद से तप दो प्रकार कहा है। बहिरंग तप का अर्थ शरीर को कष्ट देना नहीं, बल्कि आत्मा को पवित्र बनाना है।
त्याग धर्म—धर्म की इमारत त्याग की नींव पर खड़ी होती है, त्याग के बिना कोई भी धर्म जीवित नहीं रह सकता। धर्म तथा आत्मा को जीवित रखने के लिये त्याग अत्यन्त आवश्यक है।
त्याग तीन प्रकार का होता है- सात्विक त्याग, राजसिक त्याग और तामसिक त्याग।
१. सात्विक त्याग — जो फल की आकांक्षा के बिना होता है।
२. राजसिक त्याग — यश कीर्ति— ऐश्वर्य — प्रतिष्ठा के लिये होता है। ३. तामसिक त्याग — स्वयं को धोखा देने व पर को ठगने के लिये होता है। इन सब में सात्विक त्याग ही पूज्य है।
आकिंचन्य धर्म—परिग्रह में आनंद लेने के कारण मनुष्य स्वयं के परमात्मा को पाने से वंचित रह जाता है। मनुष्य जब जन्म लेता है तब नग्न ही जन्म लेता है, जहा यहाँ से जाता है तब नग्न ही जाता है। लेकिन जब तक यहाँ रहता है तब तक परिग्रह को एकत्रित करने में लगा रहता है। परिग्रही संसार से पार कभी नहीं हो सकता है। पदार्थ से परमार्थ की यात्रा का शुभारम्भ करके अपने आराध्य को प्राप्त करना ही आकिंचन्य धर्म है।
ब्रह्मचर्य धर्म—रोग से मुक्ति के लिये औषधि सेवन आवश्यक है। भव रोग से मुक्त होने के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। संसार में जितनी भी आत्माएँ पवित्र हुई हैं वे सब ब्रह्मचर्य से ही हुई हैं। स्त्री तो वास्तव में अमर बेल के समान है। जो दिखने में सुन्दर दिखाई देती है, परन्तु जिस पुरुष के ऊपर छा जाती है, उसे चूस लेती है। मैथुन संज्ञा सभी जीवों में विद्यमान है। ब्रह्मचर्य पराधीनता की जंजीर को तोड़ने वाला कुशल योद्धा है। स्वयं के परमात्मा को प्रगट करने के लिये ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करें।