हिंसा में जो कत्लखाने/बूचड़खाने, पौल्ट्रियाँ, मत्स्यालय आदि हैं, वे अन्तत: है क्या ? क्या ये हिंसा के बर्बर अड्डे नहीं है ? ये सब सारे तो हमारे देश में हैं ही, अब यहाँ कीड़े-मकोड़ों को मारने-खाने के लिए आधुनिक संयन्त्र और रोप दिये जाएँगे ताकि यहाँ जैव मण्डियाँ कायम हो सवेंâ और इन अरबों-खरबों प्राणियों की लाशोें को मनुष्य अपने पेट में डाल सकेँ । क्या मनुष्य का पेट इन कीड़े-मकोड़ों से भी ठीक से भर पायेगा ? या इसके आगे वह और नयी विनाशकारी संभावनाओं की खोज करेगा ? ख्याल रहे-भारत जैव वैविध्य के लिए विश्व-विख्यात है। कई देशों की नजर इस वैविध्य पर लगातार बनी हुई है। हमारा निष्कर्ष है कि अहिंसा की तुलना में हिंसा साधन-स्रोतों का उपयोग किया है। यही वहज है कि उसकी तकनीके और अन्य साधन इतने प्रखर और प्रच्छन्नत: सक्षम हुए है कि उन पर किसी तरह का आरोप लगाना कठिन हो गया है। जब से हिंसा माँग में विज्ञान ने सिंदूर भरा है; स्थिति गंभीरतम हो गयी है। हिंसा और विज्ञान के परिणय ने मानव-समाज को कई समस्याओं में उलझ दिया है। जैसा कि हिंसा की तुलना में अहिंसा ने अपने विस्तार में उपलब्ध साधनों और शक्तियों का उपयोग नहीं किया, अत: वह विफल हुई है, वैसी ही दुर्दशा मनुष्य के अन्य मूल्यों और गुणों की भी होने को है। स्पष्ट है कि हिंसा मनुष्य को दिन-प्रतिदिन क्रूर -कठोर, बर्बर-हिंसक बना रही है, किन्तु इससे विपरीत अहिंसा मनुष्य को प्रीतिमय और स्निग्ध करने में सफल नहीं हुई है।
बीज कथा
१.वे वनस्पतियाँ जिनका मूल अर्थात् जिनकी जड़ ही बीज हो (जो जड़ के बोने से उत्पन्न होती है) मूलबीज कहीं जाती हैं; जैसे-अदरक, हल्दी आदि।
२. अग्रभाग ही जिनका बीज हो अर्थात् जतो कलम लगाने से उत्पन्न हों वे अग्रबीज हैं; जैसे- गुलाब आदि।
३. पर्व (पौरा, जोड़) ही है बीज जिनका वे पर्वबीज हैं; जैसे-ईख, बेंत, बाँस आदि।
४. जो वनस्पतियाँ कन्द से उत्पन्न होती हैं, वे कन्दबीज कहलाती हैं; जैसे- आलू, सूरन, अरबी आदि।
५. जो स्कन्ध से उत्पन्न होती है उन्हें स्कन्धबीज कहते हैं; जैसे-कुंदरु, ढाक आदि।
६.जो वनस्पतियाँ बीज से उत्पन्न होती हैं वे बीजरुह कहलाती हैं, यथा- गेहूँ, ज्वार, चावल आदि।
७.जो नियत बीज आदि की अपेक्षारहित सिर्फ मिट्टी और जन के संबन्ध में उत्पन्न होती है उन्हें सामूछिम कहते हैं, जैसे फफूंद काई आदि।