हिंसा और अहिंसा की वर्तनी को कोई समझे या नहीं जीवन में दोनों का अस्तित्व है। जब तक जीवन तब तक हिंसा, यह एक अभिमत है। इसमें आस्था का अर्थ है हिंसा की अपरिहार्य था। हिंसा के बिना जीवन नहीं चलता तो अहिंसा के बिना भी जीवन नहीं चल सकता। विश्व की व्यवस्था बनाए रखने में हिंसा से भी अधिक अवदान अहिंसा का है। हिंसा में शक् है और अहिंसा में भी शक् अहिंसा केवल नेगेटिव ही नहीं है, पाजेटिव भी है। आवश्यकता है अहिंसा की शक्ति को उभारने की। अहिंसा में तेज है पर वह मंद हो रहा है। अहिंसक लोग उसकी तेजस्विता को बढ़ाएं और उसका उपयोग करें। अन्यथा हिंसा के सामने अहिंसा की अस्मिता को खतरा हो जाएगा। हिंसा व्यक्ति को आग्रही बनाती है, व्रूर बनाती है और आक्रान्त बनाती है। आक्रमण शस्त्र से हेता है, विचारों से भी होता है।
वैचारिक आग्रह का शस्त्र इतना तीखा होता है कि वह बहुत गहरे में वार करता है। यह ऐसा शस्त्र है जो दिखाई नहीं देता है पर व्यक्ति को आहत करता रहता है। जातिवाद, रंगभेद और छूआ छूत के घाव इसी शस्त्र की देन है शस्त्र से हमला करने वाला आक्रान्त कहलाता है, हत्यारा कहलाता है और कानून की दृष्टि से अपराधी होता है। किन्तु किसी संम्पूर्ण जाति या वर्ग के प्रति घृणा फैलाना, उसे मानवीय अधिकारों से वंचित करना तथा मानवता के दर्जे से नीचे उतार देना कितनी गहरी हिंसा है, इसे कौन देखता है ? जिन लोगों का अहिंसा में विश्वास है, जो अहिंसा की जयकार करते हैं वे लोग भी हिंसा के हाथ मजबूत करें, यह कितना बड़ा आश्चर्य है ? अहिंसा या धार्मिक कहलाने वाले लोग जाति, रंग आदि भेदों में उलझे मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करें तो विश्व मानव में एकत्व कैसे होगा ? आज जातिवाद की बुकनियाद पर संघर्ष हो रहे हैं, रंगभेद की नीति सक्रिय है और छूआछूत की समस्या सिर उठाकर खड़ी है, इन समस्याओं से निपटने के लिए भगवती अहिंसा की शरण में जाना होगा।
अहिंसा कोई नारा नहीं है। वह एक चिरंतन सिद्धांत है। इस सिद्धांत को समझना है और जीना है। इसके लिए अपेक्षित है आधुनिक संदर्भों में इस पर शोध। शेध के बाद प्रयोग का स्थान है। जिन प्रयोगों की सफलमता असंदिग्ध है, उनका प्रशिक्षण देने से अहिंसा की शक्ति और तेज उजागर हो सकता हैं मनुष्य के मस्तिष्क में हिंसा के संस्कार हैं। वह हिंसा पर शोध कर रहा है। उसका प्रयोग हो रहा है और उसके प्रशिक्षण की भी व्यवस्था है। हिंसा और अहिंसा के कम्पीटिशन में अहिंसा तभी चल पाएगी जब तक प्राणवान् होगी। युग की चुनौतियों का मुकाबला करने में अहिंसा सक्षम है पर उसे शास्त्र से निकालकर जीवन में प्रतिष्ठित करना होगा। अन्यथा अहिंसा के स्वर को बुलंदी देने का सपना मात्र सपना बनकर रह जाएगा। हिंसा दो दिशाओं से आगे बढ़ रही है। एक ओर वैचारिक हिंसा का दौर। दूसरी ओर स्टार की विभीषिका। न्यूक्लीयर शस्त्र निर्माण की अंधी दौड़ में बड़े-बड़े राष्ट्र बेभान है। वे अपनी बुद्धि, शक्ति और संपत्ति का अधिक व्यय इसी में कर रहे हैं। उनकी आकांक्षा है, सुख, समृद्धि और शान्ति की, पर उन्होंने रास्ता चुना है दुख, संघर्ष और अशांति का। रेत से प्यास बुझाने की कल्पना जितनी वायवीय है, उतनी ही वायवीय है युद्ध, शस्त्र या हिंसा से विश्व शांति की बात। बहुधा एक प्रश्न सामने आता है कि क्या हिंसा के बिना संसार चल सकेगा ? अथवा यों भी पूछा जा सकता है कि क्या अहिंसा के आधार पर विश्व की व्यवस्था संभव है ? अतिवाद से बचकर इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो समाधान मिलता है कि अहिंसा प्रधान विश् व की संरचना संभव है।
जैन आगम में अहिंसा का एक प्रयोग निर्दिष्ट है- ‘सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा’- संसार के किसी भी प्राणी का हनन करना, उस पर बलात् अनुशासन करना, उसे अपने अधीन रखना, परिताप देना और उसका प्राण वियोजन करना अपराध है। अपराध से बचने का उपाय है प्रशिक्षित मस्तिष्क। मस्तिष्क के प्रशिक्षण से उसके स्राव बदलेंगे और विश्वात्मा के साथ तादात्म्य जुड़ेगा। संसार का कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो हमारा आत्मीय न हो। इस आत्मीयता की विस्मृति ही मनुष्य में हिंसा के संस्कारों को सक्रिय करती है। हिंसा तनाव को जन्म देती है। हिंसा से संवेदना का स्रोत सूखता है। हिंसा के साथ अपने-पराए की भावना गुंथी रहती है। हिंसा प्रतिक्रिया है। वह सह-अस्तित्व, समन्वय और सद्भावना का लोप करती है। इन तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित होता है कि विश्व शान्ति की कल्पना को आकार देने के लिए अहिंसा विश्व व्यवस्था का निर्माण आवश्यक है। विश्व मंच पर अहिंसा का वर्चस्व बढ़े, व्यक्ति-व्यक्ति अहिंसा को जीने का संकल्प करे और अहिंसा में विश्वास करने वाली सभी शक्तियां एकनिष्ठ होकर काम करें तो विश्व व्यवस्था में अहिंसा की प्रतिष्ठा होगी। आज संसार को तेजस्वी अहिंसा की अपेक्षा हैं