महर्षि वात्स्यायन के अनेक शिष्य थे । उन्हें इस बात का गौरव था कि मेरे शिष्य बड़े यशस्वी हैं, बड़े प्रतिभाशाली और चरित्रवान हैं। उनके ही एक शिष्य देवदत्त ने एक बार चोरी कर ली। महर्षि ने जब यह बात सुनी तो तत्काल चल पड़े देवदत्त को समझाने के लिए। उस समय अंधेरा हो चुका था। किसी आदमी के आने की पदचाप सुनकर बोला —‘ अरे! कौन है ? कौन है यह ? यों कहते—कहते देवदत्त ने तलवार उठाई और सामने वार किया। तलवार गुरूजी के मस्तक से टकरा कर गिर गई। उसी समय बिजली कौंधी, प्रकाश हुआ और देखा— ‘अरे! ये तो गुरूजी हैं ? अनर्थ हो गया, मैंने यह क्या कर दिया ?’ वह गुरूजी के निकट गया और देखा कि कुछ चोट लगी है, थोड़ा रक्त भी निकल रहा है। निवेदन किया— ‘गुरूदेव! मुझे माफ करें। मैंने आप जैसे गुरू के ऊपर प्रहार कर दिया। यह अज्ञानवश हुआ है, मुझे माफ करें।’ गुरू ने कहा—‘ वत्स ! यह मेरे किए का प्रायश्चित्त हो गया है। तुम्हें शिक्षित करते समय मैंने अवश्य ही कोई कमी रखी है, इसलिए तुममें चोरी की आदत पड़ गई। यदि मैं तुम्हें सम्यक् शिक्षण—प्रशिक्षण देता तो शायद तुम कभी चोर नहीं बनते। मेरी भूल या कमी का विशोधन हो गया। मुझे दंड मिल गया।’ तत्क्षण शिष्य का मन बदल गया। बोला—‘गुरूदेव! अब मैं आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूं कि भविष्य में कभी चोरी नहीं करूंगा।’ गुरू की अपनी विलक्षणता होती है कि वह किस शिष्य को किस तरह संबोधित करे।