इत्यादि प्रकार से दर्शन स्तोत्र पढ़कर अनुचर जनों के हाथ से अष्टद्रव्य की सामग्री लेकर राजा ने रानी और पुत्री के साथ भगवान की अष्टद्रव्य से पूजा की पुन: वहीं पर विराजमान मुनिराज के निकट पहुँचकर उन्हें नमस्कार किया—‘हे भगवन्! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु।’मुनिराज ने तीनों को आशीर्वाद दिया— ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु।’ पुन: राजा ने पूछा— ‘भगवन्! आपके रत्नत्रय में कुशलता तो है?’ मुनिराज ने कहा— ‘हे वत्स! जिनेन्द्रदेव की कृपाप्रसाद से मेरा रत्नत्रय सकुशल है। जिनेन्द्रदेव के चरणकमल का प्रसाद ही भव्यों को सर्व कुशल मंगल देने वाला है। राजा-रानी बहुत ही प्रसन्न हुए और मैनासुंदरी भी बहुत ही प्रसन्न हुई। पुन: राजा ने कहा— ‘प्रभो! मेरी यह पुत्री मैना आपके पास विद्या अध्ययन करना चाहती है। सो आप कृपा कर इस पुत्री को विद्यादान देकर कृतार्थ करें।’ इतने में ही मैना ने भी हाथ जोड़कर विनय से प्रार्थना की— ‘‘हे गुरुदेव! कृपा करके आप मुझे विद्यारूपी निधि दीजिये। मुनिराज ने प्रसन्नमुद्रा में कहा— ‘‘राजन्! आप की तथा आपकी पुत्री मैना की भावना बहुत ही उज्ज्वल है जो कि जैनगुरु के पास पढ़ानें का आपने निर्णय लिया है। सचमुच में समीचीन विद्या ही इस जीव को संसार समुद्र से पार कर देती है।…. अच्छा तो आप इस कन्या को आर्यिका के पास ले जाओ। वहीं पर इसे पढ़ने के लिए छोड़ दो।’’ राजा पुहुपाल बहुत ही प्रसन्न हुए और पुन: पुन: मुनिराज को नमस्कार कर आर्यिका जी के पास पहुँच गये। तीनों ने विनय से आर्यिका को नमस्कार किया— ‘‘हे माताजी! वंदामि,वंदामि।’ आर्यिका ने तीनों को आशीर्वाद दिया— ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु।’ ‘आपके रत्नत्रय की कुशलता तो है?’ ‘अरिहंत प्रभु की कृपा से सब कुशल है।’ पुन: राजा विनय से निवेदन करते हैं— ‘माताजी! यह मेरी कन्या है, इसका नाम मैनासुंदरी है। यह मुनिराज के पास विद्या पढ़ना चाहती थी किन्तु मुनिराज जी ने इसे आपके पास भेजा है। सो अब आप कृपाकर इसे अपना वरदहस्त प्रदान कीजिए।’ इतना सुनकर आर्यिका ने प्रसन्नता से उत्तर दिया— ‘‘बहुत अच्छी बात है। मुझे मुनिराज की आज्ञा स्वीकार है। मैं इस बालिका को इसकी इच्छा के अनुसार ही विद्या अध्ययन कराऊँगी।’’ तब मैनासुंदरी ने हाथ जोड़कर गदगद वाणी में कहा— ‘‘अहो! आज मेरा जीवन धन्य हो गया, आज मुझे साक्षात् धर्म की प्रतिमूर्ति आर्यिका जी गुर्वानी के रूप में मिल गर्इं। मैं कृतार्थ हो गई। ऐसा कहते हुए मैना ने आगे बढ़कर माताजी के चरण- कमलों का स्पर्श कर उनकी चरणरज को मस्तक पर चढ़ाया और उन्हीं के पास बैठ गई। आर्यिकाजी ने भी मैना के शिर पर पिच्छिका रखकर शुभ आशीर्वाद प्रदान किया और वात्सल्य भाव से उसकी पीठ पर हाथ फिराकर आश्वासन दिया। पिता पुहुपाल आर्यिका जी के इस वात्सल्य प्रेम को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और अपनी रानी से बोले— ‘‘इस कन्या को यहाँ धर्म माँ मिल गई हैं जो कि हम और आप से भी अधिक प्यार देंगी तथा अमृत के समान विद्यादान भी देंगी।’’ रानी ने भी पुत्री वियोग का किंचित् शोक और उचित स्थान मिलने का हर्ष इन दोनों से मिश्रित भाव को मन में धारण करते हुए संतोष की सांस लेकर कहा– ‘बड़े ही संतोष की बात है कि कन्या की इच्छा के अनुरूप ही उसे जैनगुरु—आर्यिका जी के पास पढ़ने का सौभाग्य मिल गया है। अब अपने को कोई चिंता नहीं रही।’ इतना कहकर राजा पुहुपाल रानी के साथ ही आर्यिका माता को नमस्कार कर पुत्री को यथोचित शिक्षा देकर वहीं मंदिरजी में माताजी के पास उसे छोड़कर वापस अपने राज- महल में आ गये।