निर्नष्टवंशाद्रिवचाः स तस्माद्रविप्रभो रामगिरिः प्रसिद्धः।।४५।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन्! उस वंशगिरि पर जगत् के चन्द्रस्वरूप राम ने जिनेन्द्र भगवान् की हजारों प्रतिमाएँ बनवायीं थीं।।२७।। तथा जिनमें महामजबूत खम्भे लगवाये थे, जिनकी चौड़ाई तथा उँचाई योग्य थी, जो झरोखे, महलों तथा छपरी आदि की रचना से शोभित थे, जिनके बड़े-बड़े द्वार तोरणों से युक्त थे, जिनमें अनेक शालाएँ निर्मित थीं, जो परिखा से सहित थे, सफेद और सुन्दर पताकाओं से युक्त थे, बड़े-बड़े घण्टाओं के शब्द से व्याप्त थे, जिनमें मृदंग, बाँसुरी और मुरज का संगीतमय उत्तम शब्द फैल रहा था, जो झाँझों, नगाड़ों, शंखों और भेरियों के शब्द से अत्यन्त शब्दायमान थे और जिनमें सदा समस्त सुन्दर वस्तुओं के द्वारा महोत्सव होते रहते थे ऐसे राम के बनवाये जिनमन्दिरों की पंक्तियां उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं।।२८-३१।। उन मन्दिरों में सब लोगों के द्वारा नमस्कृत तथा सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएँ सुशोभित थीं।।३२।। इधर जिसकी मेखलाएँ शोभा से सम्पन्न थीं तथा जिसके शिखर अनेक धातुओं से युक्त थे ऐसा यह ऊँचा उत्तम पर्वत दिशाओं के समूह को लिप्त करने वाली जिनमन्दिरों की पंक्ति से अतिशय सुशोभित होता था।।४४।। चूँकि उस पर्वत पर रामचन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान् के उत्तमोत्तम मन्दिर बनवाये थे इसलिए उसका वंशाद्रि नाम नष्ट हो गया और सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला वह पर्वत ‘रामगिरि’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।।४५।।