अंकुरार्पण विधान
अनुष्टुप् छंदः-
प्रतिष्ठादिवसात्पूर्वं, नवमेऽन्हि शुभे निशि।
वक्ष्यमाणेन विधिना विदध्यादंकुरार्पणम्।।1।।
सप्तमे पंचमे वान्हि, तद्विधिर्न विरुध्यते।
इष्टत्वाद्व्यासकल्पस्य, प्रस्तुतार्थोपयोगतः।।2।।
तस्मिन्नेव दिने रात्रौ, शान्तिहोमविधिं बुधाः।
प्रारभ्य विनियुंजीत, प्रतीन्द्रांस्तत्र कांश्चन।।3।।
तेऽपि नित्यं विदध्युस्तं, यावच्चावभृथक्रिया।
तद्भस्म प्रत्यहं शान्त्यै, यष्ट्रे दद्युः समंत्रकम्।।4।।
प्रतिष्ठा दिवस-केवलज्ञान कल्याणक से नवमे दिन पूर्व शुभ दिन रात्रि में आगे कही विधि से अंकुरारोपण करे। अथवा प्रतिष्ठादिवस से सातवें या पांचवें दिन पूर्व भी यह विधि विरुद्ध नहीं है। विस्तृत प्रतिष्ठा के समय इस प्रकार अंकुरारोपण किया जाता है। उसी दिन रात्रि में सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों को लगा देवें।
वे भी मोक्ष कल्याणक से पूर्व अवभृतस्नान-1008 कलशों से महाभिषेक होने पर्यंत प्रतिदिन ‘हवन’ करके मंत्र पढ़कर शांति के लिये होम की भस्म यजमान को देते रहें ।। 1 से 4।।
तस्मिन्नेव दिने प्राण्हे, सांगं नित्यमहोत्सवम्।
प्रारभ्य विनियुंजीत, प्रतीन्द्रांस्तत्र कांश्चन।।5।।
तेऽपि कुर्युस्त्रिसंध्यं तं, यावच्चावभृथक्रिया।
जिनस्नानांबुशेषां च, यष्ट्रे दद्युः समंत्रकम्।।6।।
प्रोक्तो नांदिविधौ पूर्वं, सर्वो नित्यमहक्रमः।
यज्ञदीक्षाविधानं तु, केवलं तत्र वज्र्यते।।7।।
उसी दिन प्रातः सांगोपांग-पूर्णरूपेण नित्यमहोत्सव विधि प्रारंभ करके इस कार्य में भी सहप्रतिष्ठाचार्यों को नियुक्त कर देवें। वे सहयोगी विद्वान भी महाभिषेक पर्यंत प्रतिदिन तीनों काल नित्य अभिषेक पूजा करते हुये यजमानों को मंत्रपूर्वक गंधोदक और शेषाक्षत देते रहें।
नांदी विधि में यह सभी नित्यपूजा विधि कही गई है। प्रतिदिन यही विधि की जाती है इस नित्यपूजा में प्रतिदिन यज्ञदीक्षा विधि नहीं की जाती है। ।।5 से 7।।
तस्मिन्नेव दिने प्राण्हे, शांतिकर्मविधिं सुधीः।
प्रारभ्य विनियुंजीत, प्रतीन्द्रांस्तत्र कांश्चन।।8।।
तेऽपि नित्यं विदध्युस्तं, यावच्चावभृथक्रिया।
ते चत्वारेऽथवा शिष्टाः, शांतिमंत्रं समाहिताः।।9।।
अष्टोत्तरशतं वारान्, जपेयुश्चापराजितम्।
मंत्राक्षतांस्तदन्ते ते, यष्ट्रे दद्युः समंत्रकम्।।10।।
वक्ष्यते तद्विधिः सर्वो, यज्ञशालाप्रवेशने।
केवलं वज्र्यते तत्र, वास्तुदेवबलिक्रिया।।11।।
उसी दिन प्रातःकाल ‘शांतिकर्मविधि’ प्रारंभ करके उसमें भी सहप्रतिष्ठाचार्यों को लगा देवे। वे भी महाभिषेक होने तक नित्य ही यह शांति कर्मविधि करते रहें। चार सहप्रतिष्ठाचार्य इन सहयोगी विधि विधानों में लगे रहें। ये एकाग्रचित्त होकर शांतिमंत्र का जप करते रहें और अपराजित महामंत्र को 108 बार जपें।
पुनः वे यजमान को मंत्र पढ़कर उन मंत्राक्षतों को देवें। इस प्रकार यज्ञशाला के प्रवेश में सर्व विधि कहेंगे, इसमें केवल वास्तुदेवबलि क्रिया वर्जित है ।। 8 से 11 ।।
अंकुरार्पण की प्रयोगविधि दिखाते हैं-करोड़ों सूर्य-चंद्र की प्रभा को धारण करने वाले जगत् के एक चंद्र ऐसे जिनेंद्रदेव जगत को प्रकाशित करने वाले हैं और जगत की रक्षा करने वाले हैं उन्हें नमस्कार करके पुण्यप्रद ऐसी पुण्यांकुर अर्चन विधि को कहता हू।