प्रतिष्ठादिवसात्पूर्वं, नवमेऽन्हि शुभे निशि।
वक्ष्यमाणेन विधिना विदध्यादंकुरार्पणम्।।1।।
सप्तमे पंचमे वान्हि, तद्विधिर्न विरुध्यते।
इष्टत्वाद्व्यासकल्पस्य, प्रस्तुतार्थोपयोगतः।।2।।
तस्मिन्नेव दिने रात्रौ, शान्तिहोमविधिं बुधाः।
प्रारभ्य विनियुंजीत, प्रतीन्द्रांस्तत्र कांश्चन।।3।।
तेऽपि नित्यं विदध्युस्तं, यावच्चावभृथक्रिया।
तद्भस्म प्रत्यहं शान्त्यै, यष्ट्रे दद्युः समंत्रकम्।।4।।
प्रतिष्ठा दिवस-केवलज्ञान कल्याणक से नवमे दिन पूर्व शुभ दिन रात्रि में आगे कही विधि से अंकुरारोपण करे। अथवा प्रतिष्ठादिवस से सातवें या पांचवें दिन पूर्व भी यह विधि विरुद्ध नहीं है। विस्तृत प्रतिष्ठा के समय इस प्रकार अंकुरारोपण किया जाता है। उसी दिन रात्रि में सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों को लगा देवें।
वे भी मोक्ष कल्याणक से पूर्व अवभृतस्नान-1008 कलशों से महाभिषेक होने पर्यंत प्रतिदिन ‘हवन’ करके मंत्र पढ़कर शांति के लिये होम की भस्म यजमान को देते रहें ।। 1 से 4।।
तस्मिन्नेव दिने प्राण्हे, सांगं नित्यमहोत्सवम्।
प्रारभ्य विनियुंजीत, प्रतीन्द्रांस्तत्र कांश्चन।।5।।
तेऽपि कुर्युस्त्रिसंध्यं तं, यावच्चावभृथक्रिया।
जिनस्नानांबुशेषां च, यष्ट्रे दद्युः समंत्रकम्।।6।।
प्रोक्तो नांदिविधौ पूर्वं, सर्वो नित्यमहक्रमः।
यज्ञदीक्षाविधानं तु, केवलं तत्र वज्र्यते।।7।।
उसी दिन प्रातः सांगोपांग-पूर्णरूपेण नित्यमहोत्सव विधि प्रारंभ करके इस कार्य में भी सहप्रतिष्ठाचार्यों को नियुक्त कर देवें। वे सहयोगी विद्वान भी महाभिषेक पर्यंत प्रतिदिन तीनों काल नित्य अभिषेक पूजा करते हुये यजमानों को मंत्रपूर्वक गंधोदक और शेषाक्षत देते रहें।
नांदी विधि में यह सभी नित्यपूजा विधि कही गई है। प्रतिदिन यही विधि की जाती है इस नित्यपूजा में प्रतिदिन यज्ञदीक्षा विधि नहीं की जाती है। ।।5 से 7।।
तस्मिन्नेव दिने प्राण्हे, शांतिकर्मविधिं सुधीः।
प्रारभ्य विनियुंजीत, प्रतीन्द्रांस्तत्र कांश्चन।।8।।
तेऽपि नित्यं विदध्युस्तं, यावच्चावभृथक्रिया।
ते चत्वारेऽथवा शिष्टाः, शांतिमंत्रं समाहिताः।।9।।
अष्टोत्तरशतं वारान्, जपेयुश्चापराजितम्।
मंत्राक्षतांस्तदन्ते ते, यष्ट्रे दद्युः समंत्रकम्।।10।।
वक्ष्यते तद्विधिः सर्वो, यज्ञशालाप्रवेशने।
केवलं वज्र्यते तत्र, वास्तुदेवबलिक्रिया।।11।।
उसी दिन प्रातःकाल ‘शांतिकर्मविधि’ प्रारंभ करके उसमें भी सहप्रतिष्ठाचार्यों को लगा देवे। वे भी महाभिषेक होने तक नित्य ही यह शांति कर्मविधि करते रहें। चार सहप्रतिष्ठाचार्य इन सहयोगी विधि विधानों में लगे रहें। ये एकाग्रचित्त होकर शांतिमंत्र का जप करते रहें और अपराजित महामंत्र को 108 बार जपें।
पुनः वे यजमान को मंत्र पढ़कर उन मंत्राक्षतों को देवें। इस प्रकार यज्ञशाला के प्रवेश में सर्व विधि कहेंगे, इसमें केवल वास्तुदेवबलि क्रिया वर्जित है ।। 8 से 11 ।।
अंकुरार्पण की प्रयोगविधि दिखाते हैं-करोड़ों सूर्य-चंद्र की प्रभा को धारण करने वाले जगत् के एक चंद्र ऐसे जिनेंद्रदेव जगत को प्रकाशित करने वाले हैं और जगत की रक्षा करने वाले हैं उन्हें नमस्कार करके पुण्यप्रद ऐसी पुण्यांकुर अर्चन विधि को कहता हू।
इन्द्रवज्रा-श्रीमज्जिनेन्द्रं जगदेकचंद्रं, चंद्रार्ककोटिप्रभमिद्धलोकम्।।
लोकानवन्तं प्रणिपत्य पुण्यं, पुण्यांकुराभ्यर्चनमातनोमि।।
गद्य त्रिजगदेकसारसर्वानुल्लंघनीयपरमप्रकर्षप्रतिष्ठाधिष्ठितविशिष्टानंतचतुष्टयजुष्टस्य भगवज्जिनेन्द्रस्य पादारविन्दं शुभगमकहिमकुंदस्वर्णहाटकहटत्पुण्यांकुरपटलैः समर्चयितुकामा एते वयं साक्षादकृत्रिमचैत्यालय लक्ष्मीमात्मसात्कुर्वतश्चैत्यालयस्य प्राच्यामुदीच्यां वा दिशि, प्रकल्पितकूटमंडपसभान्यतमाश्रये,
भूम्यपतितगोमयक्षीरद्रुमत्वक्कषायकन्यकाकरसंमार्जितवेदिकास्थलरचितनानाविधरुचिर- रंगवलिपुष्पोपहारशोभिते, विचित्रवितानमुक्तादामदर्भमालादिगर्भिते, चतुर्दिग्द्वारतोरणदिक्पालकेतनध्वजामालादिविविधमंडनमंडिते मध्येमंडपं, पंचवर्णचूर्णैः सुवर्णवर्णकर्णिकमरुणवर्णदलाष्टकमंभोरुहं विलिख्य, तत्कर्णिकायां मायाबीजाक्षरोपरि मुकुरफलपल्लवफुल्लाक्षतलक्षितं,
श्वेतसूत्रपरिवेष्टितमभिवेष्टितग्रीवाप्रदेशं, पंचरत्नसुवर्णौषधोपहितसुधाक्षराभिमंत्रिततीर्थांभःपूर्णकलशमवस्थाप्य, पूर्णकुंभतिरीटचतुर्भुज- पद्मकुड्मलहस्तप्रशस्तश्र्यादिपुष्ट्यंतदेवतानां मंत्रान्पूर्वादिदलेषु विलिख्य, बहिश्चतुष्कोणमंडले दिक्पालमंत्रान्, तद्बहिस्तथाविधमंडले भेर्यादिमंगलाष्टकमवस्थाप्य, बहिर्मंडलत्रयं विरचय्य,
तदेतत्पंचमंडलपश्चिमभागरचितरमणीयविष्टरे, विघ्नविक्षेपणदक्षं सर्वाण्हयक्षं विनिक्षिप्य, तत्पंचमंडलपूर्वभागे यावदमंत्रं विरचितेष्वंशेषु प्रत्यंशं प्रस्तीर्णप्रस्थशालिविलिखितस्वस्तिकेषु प्रत्येकं दशद्वादशाष्टसंख्या वा,जिनाध्वरदिनसंख्या वा, पालिकाघटिशरावपटलीः कल्पेशभावनज्योतिष्कदेवताः क्रमेण विन्यस्य, तत्कोणेषु पूर्णकुंभान् शोभार्थं पटलीरवस्थाप्य, समुचितसपर्याविशेषैः ससंभ्रममिज्यारक्षकयक्षादीनां पूजाक्रममुपक्रमामहे।।
तीन जगत के लिये एक अद्वितीय, जिनकी परमप्रकर्ष प्रतिष्ठा सर्वजनों से अनुल्लंघ्य है, जो अनंत चतुष्टय से सहित हैं, ऐसे जिनेंद्रदेव के चरणकमलों को शुभ स्वर्ण आदि के सदृश उगे हुये धान्यांकुरों से अर्चन करने की इच्छा करते हुए ऐसे हम सभी-प्रतिष्ठाचार्य, यजमान आदि अंकुरारोपण विधि को करने के लिये उत्साहित हो रहे हैं।
साक्षात् अकृत्रिम चैत्यालयों की लक्ष्मी-शोभा को आत्मसात् करने वाले ऐसे जिनमंदिर के पूर्व में या उत्तर में एक मंडप बनाकर उसमें एक वेदी बनावें। उस वेदी को पीली मिट्टी, क्षीरीवृक्ष का काढ़ा, गोमय आदि से कुमारी कन्याओं से लेपन कराकर सुंदर रंगावली बनवावें, पुष्पों से सुशोभित करें। सुंदर चंदोवा, मोतियों की मालायें, दर्भ की माला आदि सजावें, चारों द्वारों पर तोरण बांधें। दिक्पालों को ध्वजायें, माला आदि से सुसज्जित करें।
पंचवर्णी चूर्णों से मंडल की रचना करें। जिसमें सुवर्णवर्ण की कर्णिका बनावें और लाल वर्ण की आठ पांखुडी बनावें। उस कर्णिका में मायाबीज अक्षर लिखें। पुनः दर्पण, फल, पत्ते, फूल, अक्षत से युक्त ऐसे जल से भरे कुंभ उस पर स्थापित करें।
इस कुंभ को श्वेत सूत्र से वेष्टित करें, उसमें पंचरत्न, स्वर्ण, सर्वौषधि डालें और अमृते अमृतोद्भवे’ इत्यादि मंत्र से मंत्रित तीर्थजल भर देवें। कर्णिका के बाहर आठों पांखुड़ियों में क्रम से जिनके हाथ में पूर्णकुंभ है, मुकुटसहित चार भुजा वाली कमल हाथ में लिये हुये ऐसी ‘श्री, आदि से पुष्टि पर्यंत देवताओं के मंत्र लिखें।
पुनः इस कमल से बाहर चतुष्कोण मंडल में दिक्पालों को, दूसरे चतुष्कोण मंडल में ‘भेरी’ आदि आठ मंगलों को स्थापित करें। इसके बाहर पुनः तीन चैकोन मंडल बनावें, उनमें एक सेर-किलो प्रमाण तंदुल के एक-एक ‘स्वास्तिक’ बनाकर दश, बारह या आठ ऐसी संख्या से युक्त अथवा जिनयज्ञ की संख्या से युक्त ‘पालिका, घटी, सराव और पटलिका’ स्थापित करें।
वैमानिक, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क इन देवों को क्रम से स्थापित करें। पुनः कोनों पर शोभा के लिये पूर्ण कुंभों को और ‘पटली’ को स्थापित करें। इन पांचों मंडलों के पश्चिमभाग में बनाये हुए सुंदर सिंहासन पर विघ्न निवारण में दक्ष ऐसे सर्वाण्हयक्ष को विराजमान करें। इसके अनंतर योग्य पूजा विशेष से आदरपूर्वक इज्या-पूजारक्षक ऐसे यक्षादिकों की पूजा करने का उपक्रम करें।
उत्तंगंशरदभ्रशुभ्रमुचितं, सद्विभ्रमं बिभ्रतं।
यो दिव्यद्विपमारुरोह शिरसि, श्रीधर्मचक्रं दधौ।।
हस्ताभ्यामसितद्युतिं करयुगे-नान्येन बद्धांजलिं।
तं जैनाध्वररक्षणक्षममिमं, सर्वाण्हयक्षं यजे।। 1।।
ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण हे सर्वाण्हयक्ष! एहि एहि संवौषट् ।
ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण हे सर्वाण्हयक्ष! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण हे सर्वाण्हयक्ष! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
ॐ ह्रीं सर्वाण्हयक्षाय इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं अक्षतान् पुष्पं दीपं चरुं बलिं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा ।।
इन्द्रवज्राछंद- यक्षेश्वरोऽयं जिनमार्गरक्षा-दक्षः सदा भव्यजनैकपक्षः।
निर्दग्धनिःशेषविपक्षकक्षो, भूयात्प्रतीक्ष्यो मखरक्षणाय।।2।।
ॐ ह्रीं सर्वाण्हयक्ष यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरु कुरु स्वाहा ।। पूर्णाघ्र्यं ।।
श्रीशातकुंभमयकुंभमुतान्यकुंभं, गर्भीकृतामलपयोेमणिशातकुंभम्।।
शुंभंतमब्दफलपल्लवसूत्रवस्त्रैः, संस्थापये स्थिरतरं वरकर्णिकायां।। 3 ।।
ॐ ह्रीं स्वस्तये कलशस्थापनं करोमि स्वाहा ।
शार्दूलविक्रीडितं- स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः।।
सूक्ष्मत्वायति शालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः।।
धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, कुंभं समभ्यर्चये।।
ॐ ह्रीं नेत्राय संवौषट् कलशार्चनम् करोमि स्वाहा।।
मेरोर्दक्षिणतो महाकुलकुभृत्पद्माकराम्भोरुह-प्रासादस्थितिकाः शचीपतिवधूः श्री–धृतीरंबिकाः।
तस्यैवोत्तरतस्तथोत्तरसुरेड्गृह्यां च कीर्तिं धियम्।।
लक्ष्मीं शांतिकरीं च शांतिमिह सत्पुष्टिं च पुष्टिं यजे।। 4 ।।
आवाहनादिपुरःसरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञापनाय पत्रेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते श्रीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते श्रीदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते श्रीदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् ।। ॐ श्रीदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा ।।1।।
ॐ रक्तवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते देवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।। ॐ रक्तवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते देवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ रक्तवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते देवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् ।। ॐ देव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।2।।
ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते धृतिदेवि ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते धृतिदेवि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते धृतिदेवि ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ धृतिदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।3।।
ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते कीर्तिदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते कीर्तिदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते कीर्तिदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट्। ॐ कीर्तिदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। 4।।
ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते बुद्धिदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते बुद्धिदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते बुद्धिदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट्। ॐ बुद्धिदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।5।।
ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते लक्ष्मीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते लक्ष्मीदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते लक्ष्मीदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् ।। ॐ लक्ष्मीदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।6।।
ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते शांतिदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते शांतिदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते शांतिदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् ।। ॐ शंतिदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।7।।
ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते पुष्टिदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते पुष्टिदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशकमलहस्ते पुष्टिदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् ।। ॐ पुष्टिदेव्यै इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।8।।
सप्तमातर इति व्यपदेशं या वहंति जिनमातृसमेताः।। श्र्यादयः षडपि ताः सुखपुष्टिं शांतिपुष्टिसहिता वितरंतु।।
(श्री, ह्रीं, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी और जिनमाता इन सात को ‘सप्तमातरः’ यह संज्ञा दी है।) ॐ ह्रीं प्रशस्तवर्णाः चतुर्भुजाः पुष्पमुखकलशकमलहस्ताः श्र्याद्यष्टदिक्कन्यका यजमानप्रभृतीनां सर्वशांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा ।। पूर्णाघ्र्यं.।।
(प्रथम कोष्ठक में पूजा करना)
शार्दूलविक्रीडितं- श्रीमत्सर्वजनीनजैनसवन-प्रत्यूहप्रध्वंसन।
प्रोद्भूताऽप्रतिमप्रभावविहित-प्रख्यातिपूजांचितान्।
स्वस्वातुच्छपरिच्छदान् दशदिशा-मान्याप्रधृष्यामितान् ।
दिक्पालान् जगदेकपालकजिना-धीशाध्वरे व्याव्हये।।
आवाहनादिपुरःसरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञापनाय पुष्पाक्षतं प्रक्षिपेत्।।
ॐ हीं कनकवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे इंद्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं कनकवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे इंद्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं कनकवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवार हे इंद्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।।
(स्थापना करके आगे का मंत्र पढ़कर अघ्र्य चढ़ावें, ऐसे ही आगे के नव दिक्पालों की भी स्थापना व अघ्र्य हैं) इंद्राय स्वाहा । इंद्रपरिजनाय स्वाहा। इंद्रानुचराय स्वाहा । इंद्रमहत्तराय स्वाहा । अग्नये स्वाहा । अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। इंद्राय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा ।। 1 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं क्रों रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे अग्ने! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं क्रों रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे अग्ने! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रों रक्तवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे अग्ने! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।।
अग्नये स्वाहा। अग्निपरिजनाय स्वाहा। अग्निअनुचराय स्वाहा। अग्निमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा।ॐ¬ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा।ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। अग्नये स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 2 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं क्रों कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे यम! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं क्रों कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे यम ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रों कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे यम ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।।
यमाय स्वाहा। यमपरिजनाय स्वाहा। यमानुचराय स्वाहा। यममहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ¬ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। यमाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा ।। 3 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं क्रों श्यामवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे नैऋत्य! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं क्रों श्यामवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे नैऋत्य! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।। ॐ ह्रीं क्रों श्यामवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे नैऋत्य ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।।
नैऋत्याय स्वाहा। नैऋत्यपरिजनाय स्वाहा। नैऋत्यानुचराय स्वाहा। नैऋत्यमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। नैऋत्याय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 4 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं क्रों धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे वरुण! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं क्रोंध्धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे वरुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।। ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे वरुण ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
वरुणाय स्वाहा। वरुणपरिजनाय स्वाहा। वरुणानुचराय स्वाहा। वरुणमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। वरुणाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 5 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे पवन! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे पवन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं कृष्णवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे पवन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
पवनाय स्वाहा। पवनपरिजनाय स्वाहा। पवनानुचराय स्वाहा। पवनमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। पवनाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 6 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं पीतवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे कुबेर! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं पीतवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे कुबेर ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।। ॐ ह्रीं पीतवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे कुबेर ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
कुबेराय स्वाहा। कुबेरपरिजनाय स्वाहा। कुबेरानुचराय स्वाहा। कुबेरमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। कुबेराय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 7 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे ईशान ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे ईशान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे ईशान ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
ईशानाय स्वाहा। ईशानपरिजनाय स्वाहा। ईशानानुचराय स्वाहा। ईशानमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। ईशानाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 8 ।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे धरणीन्द्र ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे धरणीन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।। ॐ ह्रीं धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे धरणीन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
धरणींद्राय स्वाहा। धरणींद्रपरिजनाय स्वाहा। धरणींद्रानुचराय स्वाहा। धरणींद्रमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐभूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। धरणींद्राय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।9।। (अघ्र्य समर्पित करें)
ॐ हीं क्रों धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे चंद्र ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं क्रोंध्धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे चंद्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं क्रों धवलवर्ण सर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवार हे चंद्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
चंद्राय स्वाहा। चंद्रपरिजनाय स्वाहा। चंद्रानुचराय स्वाहा। चंद्रमहत्तराय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भूः स्वाहा। भुवः स्वाहा। स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा। चंद्राय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 10 ।। (अघ्र्य समर्पित करें) पृथ्वीछंदः- शतमखशिखिकाला यातुधानप्रचेताः, पवनधनदनागाकल्पनागेन्द्रचन्द्राः। मखमुखविहितार्घाः येऽप्रधृष्यप्रभावाः, प्रकृतयजनविघ्नान्घ्नन्त ते मंत्रनिघ्नाः।।11।। पूर्णाघ्र्यः।। (दश दिक्पालकेभ्यः पूर्णाघ्र्यं समर्पयामि) ==
(द्वितीय कोष्ठक में अष्टमंगलद्रव्य स्थापित करना ) उपजातिछंद- न्यसामि भेरीरवशंखघंटा-प्रदीपचंद्रार्करथांगकाब्दान्। मंत्रात्मकान्पूर्वमुखासु दिक्षु, क्रमादिहाष्टावपि मंगलानि।।1।।
(1) ॐ भेरीश्रियै स्वाहा। (2) ॐ शंखश्रियै स्वाहा । (3) ॐ घंटाश्रियै स्वाहा । (4) ॐ प्रदीपश्रियै स्वाहा। (5)ॐ चंद्रश्रियै स्वाहा। (6) ॐ आदित्यश्रियै स्वाहा। (7) ॐ चक्रश्रियै स्वाहा। (8) ॐ दर्पणश्रियै स्वाहा।।
लेखनमंत्राः।। (यहां भेरी, शंख, घंटा, प्रदीप, चंद्रमा, सूर्य, चक्र और दर्पण ये आठ मंगल द्रव्य माने हैं इन्हें अंकुरारोपण की आठ दिशाओं में लिखावें।)
वार्दर्भगंधैः सुमनोक्षतौघैः, धूपप्रदीपैरमृतोपमान्नैः।
अभ्यर्चये मंगलमष्टभेदं, भूम्यर्चनाया विधिनार्चनीयम्।।2।।
ॐ नीरजसे नमः जलं निर्वपामीति स्वाहा। शीलगंधाय नमः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। अक्षताय नमः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। विमलाय नमः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। दर्पमथनाय नमः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ज्ञानोद्योताय नमः दीपं निर्वपामीति स्वाहा। श्रुतधूपाय नमः धूपं निर्वपामीति स्वाहा। परमसिद्धाय नमः फलं निर्वपामीति स्वाहा। (इन मंत्रों से अष्टद्रव्य चढ़ावें) अथ घटीनामभ्यन्तरेषु (छोटे घड़ों के अन्दर पुष्पांजलि आदि से पूजा करें)
गद्यॐ भगवदर्हन्महामहप्रथमोत्सवांकुरार्पणपंचसप्तनवदिनविकल्पापेक्षया जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदद्वादशचतुर्दशषोडशमात्रा-मितोत्सेधान्यतमघटगितोत्सेधानाम्। तदुत्सेधार्धोत्सेधतदर्धव्यासव्यासचतुर्थांशव्यासरंध्रान्वितदंडमंडितानां। दंडोत्सेधसमन्वितव्यासान्वितपादानां दंडरंध्रव्याससमव्यासोष्ठानां।
व्यासद्विमात्रव्यासैकमात्रोत्सेधवदनचतुष्टयोपलक्षितकुक्षीणां। मात्रात्रयसंमितनिजोध्र्ववदनानां। अष्टादशद्वादशान्यतमसंख्यानां। जिनाध्वरदिनसंख्यानां वा। घटीवत्प्रथितघटीनामभ्यंतरेषु चमरवैरोचनादिसर्वभवनेन्द्राणां आव्हानादिपुरःसरं समुचितसपर्याक्रमं यथाक्रममुपक्रमामहे।
(इस गद्य को बोलकर आगे के मंत्रों से घटी के भीतर दशविध भवनवासी देवों की स्थापना करके पूजा करें।)
द्वासप्ततिर्यानि भवंति लक्षाः, कोट्यश्च सप्तातिमहांति तानि।
प्रपालयन्तो भवनानि सर्वेऽप्यायात यूयं भवनामरेन्द्राः ।।3।।
आव्हानादिपुरःसरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञापनाय घटीषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
ॐ हीं असुरकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं असुरकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं असुरकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं असुरकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा ।। 1 ।। एवं सर्वत्र योज्यम् ।।
(असुरकुमारेन्द्र की स्थापना करके अघ्र्य चढ़ावें। ऐसे ही आगे के 9 इन्द्रों की स्थापना करके अघ्र्य चढ़ाना है)
ॐ हीं नागकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं नागकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं नागकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं नागकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 2।।
ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 3 ।।
ॐ ह्रीं द्वीपकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं द्वीपकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं द्वीपकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं द्वीपकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 4 ।।
ॐ ह्रीं उदधिकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं उदधिकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं उदधिकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं उदधिकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 5 ।।
ॐ ह्रीं स्तनितकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं स्तनितकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं स्तनितकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं स्तनितकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 6 ।।
ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 7 ।।
ॐ ह्रीं दिक्कुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं दिक्कुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं दिक्कुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं दिक्कुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 8 ।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ हीं अग्निकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं अग्निकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं अग्निकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 9।।
ॐ ह्रींवातकुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं वातकुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं वातकुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ हीं वातकुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 10।।
पूर्णाघ्र्य
मालिनीछंद- असुरफणिसुपर्ण-द्वीपशेषाधिपा ये।
परमुदधित्रिपल्यार्धार्धहीनायुषः स्युः।
प्रवरमहिषमुख्यैः सप्तभेदैरनीकैः ।।
कृतपरिवृतयोऽप्राक् तेर्घिताः सन्तु शान्त्यै।।11।।
ॐ ह्रीं असुरेन्द्रादिदशविधभवनेन्द्रेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। पूर्णाघ्र्यं.।। ॐ ह्रीं असुरेन्द्रादिदशविधभवनेन्द्रा यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा ।। शरावाणामभ्यन्तरेषु (चतुर्थ कोष्ठक में सराव के अंदर व्यंतर देवों की पूजा करें)
गद्य-ॐ विश्वजनीनजिनाध्वरदिनसंख्यात्रययथासंख्याभिहिताष्टदशद्वादशांगुलमितवक्त्रव्यासानां, वक्त्रव्यासार्धसंपादितप्रादप्रततीनां, पादप्रतत्यर्धप्रमितदंडततीनां, दंडततीसमानसंघटितोष्ठव्यासानां, ओष्ठघटितमुखव्यासत्रयसमानोत्सेधानां, जघन्यादिविकल्पविवक्षि- ताष्टादशद्वादशसंख्यानां वा शरावाणाभ्यंतरेषु किन्नरकिंपुरुषादिसर्वव्यंतरेन्द्राणां आवाहनादिपुरःसरसमुचितसपर्याक्रमं यथाक्रमं उपक्रमामहे।। संख्याव्यतीताश्रयवर्तमान,भौमामराणां प्रभवो भवंतः। आयांतु तिष्ठंतु ममात्र साक्षाद्-भवंतु गृण्हंतु च यज्ञभागम्।।1।।
आव्हानादिपुरःसरप्रत्येकप्रतिज्ञापनाय शरावाणामभ्यंतरेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।। ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 1।।
ॐ ह्रीं किंपुरुषेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं किंपुरुषेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं किंपुरुषेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं किंपुरुषेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 2।।
ॐ ह्रीं महोरगेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं महोरगेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं महोरगेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं महोरगेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 3 ।।
ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्र ! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं गन्धर्वेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 4 ।।
ॐ ह्रीं यक्षेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं यक्षेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं यक्षेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं यक्षेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 5 ।।
ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 6 ।।
ॐ ह्रीं भूतेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं भूतेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं भूतेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं भूतेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 7 ।।
ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ हीं पिशाचेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 8 ।।
पूर्णाघ्र्य शालिनीछंद- त्रायस्ंित्रशैर्लोकपालैव्र्यपेतैर्ये सेव्यंते सप्त सामानिकाद्यैः। तेऽमी युक्ता द्विद्विदेवीसहस्रैः सर्वे शान्त्यै संतु भौमामरेन्द्राः।।9।।
ॐ हीं किन्नराद्यष्टविधव्यंतरेन्द्रेभ्यः इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। ॐ हीं किन्नराद्यष्टविधव्यंतरेन्द्रा यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा ।।
(पूर्णाघ्र्यं) अथ पटलिकानामभ्यंतरेषु (पटलिका के अंदर ज्योतिष्क देवों की अर्चा करें) गद्य-ॐ विकल्पत्रयाकलितशरावमुखव्याससमानव्यासपादबंधबंधुराणां, पादबंधसमानप्रततिप्रमित- प्रथमपटलिकानां, उपर्युपरि अल्पविहीनमानोपघटितद्वितीयतृतीयपटलिकानाम् ।
तत्प्रमाणमंडितनववंशदंडानाम् । अग्रविरचितसरोरुहाणां अर्हदातपत्रत्रयसंस्थानमात्मसात्कुर्वाणानाम् । अष्टदशद्वादशसंख्यानां वा। पटलिकानामभ्यंतरेषु सकलसूर्याचंद्रमसामाव्हानादिपुरःसरं समुचितसपर्याक्रमं यथाक्रममुपक्रमामहे।। (ज्योतिषी देवों की पूजा)
कायप्रवीचारसुखानुरक्तान्, पीतांतलेश्यांस्त्रिविधानवंतौ।
ज्योतिष्कदेवानपि चंद्रसूर्या-वायातमात्मीयपरिच्छदाभ्याम्।।1।।
आवाहनादिपुरःसरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञापनाय पटलिकासु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।। ॐ ह्रींसूर्येन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।। ॐ ह्रीं सूर्येन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रींसूर्येन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सूर्येन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।1।।
ॐ ह्रीं चन्द्रेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्।। ॐ हीं चन्द्रेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं चन्द्रेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं चन्द्रेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।2।।
पूर्णाघ्र्य यो योजनान्यष्टशतीं व्यतीत्य, भूमेश्चरन्व्योमनि भानुमाली।। यो योजनाशीतिमतीत्य तस्माच्चंद्रोर्धितौ तौ भवतां प्रसन्नौ।।3।।
ॐ ह्रीं सूर्याचंद्रमसौ इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां शांतिं कुरुतां कुरुतां स्वाहा ।। पूर्णाघ्र्यः ।। अथ पालिकानामभ्यंतरेषु (पालिका के अंदर में वैमानिकदेवों की अर्चा करें।)
गद्य-ॐ सर्वज्ञमहायज्ञदिनसंख्याविकल्पत्रयक्रमसंभवद्द्वादशषोडशविंशतिमात्रमितव्यासान्यतममुखव्यासानाम् । मुखव्यासार्धं- प्रमाणचरणागतव्यासानां। मुखव्यासचतुर्थांशसंभितदंडविस्ताराणां । मुखव्यासाष्टमभागप्रमितरंध्रोष्ठगतततीनाम् मुखव्याससमानोत्सेधकलितानां।
अष्टदशद्वादशसंख्यानामिज्यादिनसंख्यानां वा। पालिकानामभ्यंतरेषु। सौधर्मैशानादिद्वादशकल्पेन्द्राणां आवाहनादिपुरःसरं समुचितसपर्याक्रमं यथाक्रममुपक्रमामहे।। उपजातिछंद- द्वौ सागरौ सप्तदश द्विसप्त-स्थितिः क्रमाद्द्विद्यधिका च यावत्। द्वाविंशतिर्येषु सुराधिपास्ते सर्वे समायांतु भजंतु पूजाम्।। 1 ।।
आवाहनादिपुरःसरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञापनाय पालिकासु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।।
ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 1 ।।
ॐ ह्रींईशानेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं ईशानेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं ईशानेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं ईशानेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 2 ।।
ॐ ह्रीं सानत्कुमारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं सानत्कुमारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सानत्कुमारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं सानत्कुमारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 3 ।।
ॐ ह्रीं माहेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ हीं माहेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं माहेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं माहेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 4 ।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ हीं ब्रह्मेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 5 ।।
ॐ ह्रीं लांतवेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं लांतवेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं लांतवेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं लांतवेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 6 ।।
ॐ ह्रीं शुक्रेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ हीं शुक्रेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं शुक्रेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं शुक्रेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 7 ।।
ॐ ह्रीं शतारेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं शतारेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं शतारेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं शतारेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 8 ।।
ॐ ह्रीं आनतेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रींआनतेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं आनतेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं आनतेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 9 ।।
ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 10 ।।
ॐ ह्रीं आरणेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं आरणेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं आरणेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं आरणेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 11 ।।
ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्र! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् । ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्राय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। 12 ।।
शार्दूलविक्रीडितं- पूर्णाघ्र्य-हस्तान्सप्त षडेव पंच चतुर-स्त्रीनर्धयुक्तानथ।। त्रीनुत्सेधमुशंति जैनमुनयो, येषु द्वयोश्च द्वयोः। तेऽमी सारसुखानुभावकलिता, नन्दन्ति चेंदंति च ।। स्वर्लक्ष्मीपतयः सदा विदधतां, शांतिं सतामर्धिताः।।13।।
ॐ ह्रीं सौधर्मादिद्वादशकल्पेन्द्राः इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां यजमानप्रभृतीनां शांतिं कुरुत कुरुत स्वाहा ।। पूर्णाघ्र्यः ।। अथ मृत्तिकासंग्रहः
गद्य-अथ पीठमंडलपात्रेषु न्यक्षेण यक्षादिदेवतानां अधिवासनं निर्वत्र्य मृत्तिकायां संजिघृक्षितायां शुभ्रादभ्रविभ्रमविभ्राजितातिविचित्रातपत्रेषु विनेयजनैः समुच्छ्रितेषु, कुंदेंदुहारनीहारगौरचामरनिकुरुंबेषु ।
विलासादिविलसद्वारविलासिनीवाराभिवीज्यमानेषु वृषभध्वजविजयध्वजध्वजायमान- विविधध्वजेषु समुच्छ्रितेषु । मंगलालंकारचंचत्कन्यकाकरांभोरुहप्रतिष्ठितेषु सुप्रतिष्ठादिमंगलेषु।
कराहतांगुलिहतदंडाहतान्योन्याहताना- हतपंचमहावाद्यध्वानेन भव्यजयजयध्वानद्विगुणितेन बधरितेषु सकलदिक्तटेषु, कल्याणसमयसुरसंुदरीरचितगानायमानमतिमधुरगानमातन्वतीषु सुकंठीषु, प्रेक्षकजनश्चेतश्चमत्कारिविद्युल्लताविलासानुकारिलास्यादिनृत्यमत्याहितमानटंतीषु, हूंकारमुखरप्रतीहारनिकरैः परितो निवारितेषु नीचमत्र्येषु श्वेतवस्त्रामाल्याभरणभूषितसल्लक्षणोपलक्षितप्रशस्तहस्त्यश्वारूढमस्तकन्यस्तकार्तस्वरादिपात्रेषु त्रैवर्णिकजनेषु,
यक्षाग्रतो गच्छत्सु, भगवद्गुणस्तोत्रपठनपरायणेषु ऋष्यार्यिकाविद्वद्विशिष्टजनेष्वन्वतो गच्छत्सु, संमार्जनसुगंधिजलसेचनपुष्पोपपहारादिसंस्कारपृथूकृतशोभासु पुरवीथिषुु, समुत्तंभितपताकातोरणपूर्णकलशरंगवलिसपर्याकरपुरंध्रीजनप्रविराजितेषु गृहद्वारेषु,
समुचितोत्सेधायामचतुःस्तंभसंभृतवितानमुक्ता- दामादिमंडितमंडपमधिष्ठितं त्रिजगदेकचक्रवर्तिश्रीजिनेश्वरधर्मचक्रं मस्तकेन कराभ्यां बिभ्राणं कराभ्यामपराभ्यां रचितांजलिं श्यामांगमुत्त्तुंगगजाधिरूढं सर्वज्ञयज्ञरक्षादक्षं पुरं परिगमय्य सरोवरसरित्पतिसरित्तटाकादितटं वा नगरप्रागुत्तरवप्रादिक्षेत्रं वा पुरानयामहे ।।
इति पुष्पांजलिं कृत्वा पुरविहाराय यक्षं नयेत् ।। (नगर में शोभायात्रा में सर्वाण्ह यक्ष को ले जावें)
गद्य-अथ अनन्यसाधारणसमवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यचतुस्त्रिंशदतिशयपंचकल्याणसमलंकृतस्य, सर्वदा सर्वक्लेश- कर्मविपाकाशयपाशैरपरामृष्टस्य, सर्वज्ञवीतरागपरमाप्तार्हत्परमेश्वरस्य महामहरक्षादक्षं सर्वाण्हयक्षं पुरं परिगमय्य समुचितोद्देशं समानीय, पूर्वाननमुत्तराननं वा समुपनिवेश्य, निर्वातनिस्तरंगसमुद्र इव भव्यसमूहे समुत्सृष्टान्यव्यासंगे, विधीयमानजिनयज्ञनिध्यानैकताने, वयमिमे जिनयज्ञदीक्षिता यक्षाग्रतः क्षेत्रं करपरिमितं परिगृह्य, तत्र पुष्पांजलिपुरःसरं वायुमेघाग्निदेवान्सम्मान्य, तैर्भूमिं विशोध्य, नागामरानमृतेन संतप्र्य, क्षेत्रपालस्य तैलाभिषेकाभ्यर्चनविधिं विधाय, प्राङ्मुखमुदङ्मुखं वा निखन्योध्र्वमृत्तिकामपसार्य, पुनः खात्वा,
अधःस्थितशुद्धस्निग्ध- सद्वर्णभेकभक्षणीयत्वादिगुणोपलक्षितां प्रशस्तमृत्तिकां भूम्यर्चनविधानेनाभ्यच्र्य, स्वकीयवामकरतलं धरामभिमं×य शंखभुंभुंकारनादेषु सकलजगदुदरविवरमापूरयत्सु, तत्करेण तां मृत्तिकामुद्धृत्य कार्तस्वरादिपात्रेषु विनिक्षिप्य भगवज्जिनांकुराभ्यर्चनविधानमूलभूतां पुण्यांकुरजननावस्थानवृद्धिफलोदयैकसाधकतमीं मृत्स्नामेनां तत्पात्रधरैर्मूध्र्ना दृढं ध्रीयमाणां यक्षनायकेनाभिरक्ष्यमाणां परया विभूत्या नीत्वा नगरं चलत्केतनजिनकेतनं प्रदक्षिणपुरःसरं पुरमानयामहे ।।
घटी, शराव, पटलिका और पालिका में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की अर्चाविधि करके पुनः मृत्तिका संग्रह के लिये निकलें। कुमारी कन्याओं के हाथ में कलश, दर्पण, आदि मंगलद्रव्य देवें, अनेक प्रकार के बाजे बजवावें, सुवासिनी स्त्रियां तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक आदि के भजन गावें, मिट्टी भरने के लिये सोने, चांदी आदि धातु के थाल सदाचारी पुरुषों को लेना चाहिये। सर्वाण्हयक्ष को आगे करके शोभायात्रा निकालें, उसमें मुनि, आर्यिका विद्वानजन पीछे-पीछे चल रहे हों, जिनेंद्रदेव का स्तोत्रपाठ चल रहा हो। लोग ध्वजा, चंवर, छत्र आदि हाथ में लेकर चल रहे हों जब शोभायात्रा शुरू हो, तभी प्रारंभ में-
मंत्र बोलकर सर्वाण्हयक्ष को नगर में विहार करावें। श्रीजिनेंद्रदेव के यज्ञ-पूजनविधि के रक्षण में समर्थ, ऐसे सर्वाण्हयक्ष को योग्य स्थान पर लाकर पूर्व या उत्तर दिशा में उनका मुख करके स्थापित करें। भव्यजीव शांति से उचित स्थान पर बैठ जावें तब जिनयज्ञदीक्षा विधि जिन्होंने ग्रहण की है ऐसे प्रतिष्ठाचार्य आदि यक्ष के सामने एक हाथ जमीन निश्चित करें उसमें पुष्पांजलि पूर्वक आगे कही विधि से वायुकुमार आदि पंचकुमार पूजा करके भूमि शुद्धि करें।
अनंतर पूर्व या उत्तर तरफ मुख करके भूमि खोदें, ऊपर की मिट्टी हटाकर पुनः खोद करके शुद्ध, स्निग्ध मिट्टी निकलेगी वहां भी ‘भूमिपूजन विधि’ करके अपने बायें हाथ को और भूमि को मंत्रित करके शंख आदि बाजे बजवाते हुये उस मिट्टी को निकाल कर सोने, चांदी आदि के पात्रों में भर लेवें। (जहां की मिट्टी लेनी है, उस स्थल को शुद्ध करने की विधि) ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा ।। विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिः ।।
सर्वेषु वास्तुषु सदा निवसन्तमेनं, श्रीवास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकारं।
प्रागेव वास्तुविधिकल्पितयज्ञभाग-स्येशानकोणदिशि पूजनया धिनोमि।।1।
। ॐ ह्रीं वास्तुकुमारदेवाय इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं, दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
विहारकाले जगदीश्वराणा-मवाप्तसेवार्थकृतापदान ।
हुत्वार्चितो वायुकुमारदेव!, त्वं वायुना शोधय यागभूमिम् ।।2।।
इति वायुकुमारार्चनम्।।
(तीर्थंकरों के विहार के समय भगवान की सेवा करके तुमने जो अपनी शक्ति प्रगट की है इसलिये मैंने तुम्हें बुलाकर तुम्हारी पूजा की है। तुम वायु से इस यज्ञभूमि को शुद्ध करो।) ॐ ह्रीं वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीं पूतां कुरु 2 हूं फट् स्वाहा । षड्दर्भपूलेन भूमिं सम्मार्जयेत् ।। (षड्दर्भ पूले से भूमि को संमार्जित करें)
विहारकाले जगदीश्वराणा-मवाप्तसेवार्थकृतापदान ।।
हुत्वार्चितो मेघकुमारदेव!, त्वं वारिणा शोधय यागभूमिम्।।3।।
इति मेघकुमारार्चनम्।।
ॐ हीं क्षीं भूः शुद्ध्यतु स्वाहा । षड्दर्भपूलोपात्तजलेन भूमिं सिंचेत् ।। (दाभ के पूले से जल लेकर भूमि पर छिड़कें)
गर्भान्वयादौ महितद्विजेन्द्रैर्निर्वाणपूजासु कृतापदान ।।
हुत्वार्चितो वन्हिकुमारदेव!, त्वं ज्वालया शोधय यागभूमिम् ।।4।।
इति अग्निकुमारार्चनम्।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारदेव भूमिं ज्वालय-ज्वालय अं हं सं वं झं ठं क्षः फट् स्वाहा। (गर्भान्वय आदि में द्विजोंµविधानाचार्यों ने जिसकी पूजा की है, तीर्थंकरादि के निर्वाण कल्याणक में जिसकी पूजा की गई है, ऐसे हे अग्निकुमार देव! तुम ज्वाला से यज्ञभूमि को शुद्ध करो।)
तुष्टा अमी षष्टिसहस्रनागा, भवंत्ववार्या भुवि कामचाराः ।
यज्ञावनीशानदिशाप्रदत्त, सुधोपमानांजलिपूर्णवार्भिः ।। 5 ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः षष्टिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्यः स्वाहा । इति नागतर्पणार्थमैशान्यां दिशि जलांजलिं क्षिपेत् । (नागसंतर्पण के लिये ईशान दिशा में जलांजलि देवें)
ऊध्र्वस्थेन करद्वयेन फलकं, खड्गं३कराभ्यामधो ।
वर्तिभ्यांमुरुसारमेयमसितं, स्फूर्जद्गदां बिभ्रतम्।
प्रत्यूहक्षपणक्षमं समवित-क्षेत्रव्रजं क्षेत्रपम् ।
तैलेनाद्य सताभिषिच्य विदधे, सिंदूरकैर्धूसरम्।।1।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपाल! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् ।
ॐ हीं क्षेत्रपाल ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपाल ! अत्र मम संनिहितो भव भव वषट्।
ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय तैलाभिषेकं करोमि प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय सिंदूरसेचनं करोमि स्वाहा। क्षेत्रं मखेऽस्मिन्परिपालयन्तं । विघ्नानशेषानपसारयन्तम् ।। अग्नेर्दिशायां गुडदानपूर्वं। श्रीक्षेत्रपालं बलिना धिनोमि ।।2।।ॐ हीं क्षेत्रपालाय गुडं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा । ॐ ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपालाय इदं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा । ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय सद्वस्त्रं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।। ॐ ह्रीं क्षेत्रपालाय भूषणं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।।
(इन मंत्रों से वस्त्र एवं आभूषण अर्पित करें) प्राङ्मुखमुदङ्मुखं वा निखन्योध्र्वमृत्तिकामपसार्य पुनः खात्वाधःस्थितशुद्धमृत्तिकां पुंजीकुर्यात्। (पूर्वमुख या उत्तर मुख होकर मिट्टी खोदें पुनः ऊपर की मिट्टी हटाकर नीचे की शुद्ध मिट्टी इकट्ठी करें) (अघ्र्य समर्पण करें)
वार्दर्भगंधैः सुमनोक्षतौधै-र्धूपप्रदीपैरमृतोपमान्नैः ।
इमां समर्चामि विशुद्धमृत्स्नां, पुण्यांकुराभ्यर्चनमूलभूताम् ।।3।।
पुंजितां समभिमंत्र्य मृदं मे।
वामहस्तमपि पूर्वमुखो वा।।
तेन तामहमिहोत्तरवक्त्रो,
वा न्यसामि कनकादिसुपात्रे।।4।।
ॐ ह्रीं असुजर सुजर भव स्वाहा। इति स्वकीयवामकरतलं अभिमंत्रयेत् ।। (जल से बायें हाथ को मंत्रित करें) ॐ ह्रीं असुजर सुजर भव स्वाहा। इति धरामप्यभिमंत्रयेत् ।। (भूमि पर जल छिड़कें) ॐ ह्रीं सर्वलोकगुरुभ्यो नमः स्वाहा ।। इति मृत्स्नां गृण्हीयात् ।। (मिट्टी को पात्र में भरें)
शंखादौ सुषिरे तते च वितते, भेरीमृदंगादिके।
वीणादौ वितते घने घनतरं, तालादिके चोत्थिते ।। 5।।
शब्दे पंचविधे सगीतनिनदे, व्याजृम्भमाणेतराम्।
मृत्स्नापूरितपात्रकाणि कृतिनां, मूर्धस्विहारोपये ।। 6।।
अनेन मृत्पूरितपात्राणि विनेयोत्तमांगेषु स्थापयेत् ।। (मिट्टी से भरे पात्र शिष्यों के मस्तक पर रखावें) गद्य-अथार्हत्परमेश्वरमहाध्वरविधित्सया मृत्स्नां महोत्सवेनानीय तद्रक्षकयक्षेश्वरं यक्षपीठे निवेश्य मंगलातोद्यमहाध्वानेषु लोकाकाशावकाशमश्नुवानेषु, पूर्वाधिवासितपात्राणामग्रतो मृत्पूरितपात्राणि निधाय, गंधाक्षततांबूलादिभिः समागतान्सतः सत्कृत्य धामग्रामाश्रितदिक्पालादिकदेवताः संतप्र्य, जिनेन्द्रस्य महोत्सवेन महास्नपनमेकादशविधार्चनां पंचमंडलाराधनां श्रुतस्कंधमहर्षिणां च सपर्यां समाप्य, पात्रावस्थितमृत्तिकामादायोत्तरमुखं पाल्यादिपात्राणि समापूर्य,
अप्रतिहतांकुरशक्तियुक्तवापोचितगोधूमादिधान्यानि पवित्रतरपयोभिः प्रक्षाल्य, रात्रावभ्यर्हितमुहूर्ते प्रवर्तमाने, प्रस्फातशंखध्वाने विजृंभमाणे सति, कुलस्त्रीभिस्तानि धान्यानि वापयित्वा स्वयमुप्त्वा च पंचकुंभसंभृतांभोभिरभिसिच्यान्वतः पुण्यतीर्थजलेन पुण्याहमंत्रात्परिषिच्य, पद्मपत्रादिभिः समुचितं पात्राणि पिधाय सुखवायुसेवित- निर्बाध तमस्थाने समवस्थाप्य गंधशेषाप्रसूनतांबूलादिभिरुपासकान्प्रसाद्य, यक्षादिदेवान्विसृज्य, दिनत्रयमपि कथितकुंभाहृतशीतांभोभिः तत्सेचनं करिष्यामहे।।
अर्हंतदेव की प्रतिष्ठा-जिनयज्ञ महोत्सव को करने की इच्छा से महामहोत्सवपूर्वक मिट्टी को लाकर सर्वाण्हयक्ष देवता को उचित स्थान पर विराजमान करके मंगलवाद्य बजवाते हुये पूर्व में जिन पात्रों की घटी, शराव, पटलिका और पालिकाओं में पूजा विधि संपन्न की है, उनके पास मिट्टी से भरे पात्रों को रखें। गंध, अक्षत आदि से आगत जनों का सत्कार करके मंदिर और ग्राम के आश्रित देवताओं को यज्ञभाग समर्पित करें।
ॐ ह्रीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा ।। पुष्पांजलिः । (सर्वाण्हयक्ष को उचित आसन पर विराजमान करके मृत्तिका से भरे पात्रों को सामने रखें)
संस्थाप्य यक्षं निजपूर्वपीठे, श्रीमृत्तिकापूरितपात्रकाणि।
अमत्रकाणामधिवासितानां, पुरःप्रदेशे विनिवेशयामः।। 1 ।।
अनेन यक्षपीठे यक्षेश्वरमवस्थाप्याधिवासितपात्राणां पुरःप्रदेशे मृत्पूरितपात्राणामवस्थानं कुर्यात् ।। शार्दूलविक्रीडितं- देवर्षिद्विजपूजनं च विहितं, श्रेयोर्थिनां ते मता ।। रागद्वेषविमोहमूलविलयात्सारंभसंगोज्झनात् ।। स्थूलप्राणिवधादिवर्जनविधेर्देवानृषींस्तादृशान् ।। संपूज्य द्विजपुंगवांश्च धिनुयात्तांबूलदानादिभिः ।। 2 ।।
उपासकान् तांबूलाद्यैः प्रतोषयेत् ।। (श्रावकों को तांबूल आदि से संतुष्ट करें।) गद्य-अथ चैत्यालयस्यैशान्यां दिशि अष्टदलकमलमालिख्य चैत्यालयनगरसंबंधिदिक्पालकेभ्यो निजमंत्रपूतयज्ञांगविशेषेण सर्वतः पूजां वितीर्य ग्रामाश्रितशेषाशेषदेवताश्च सर्वशांत्यर्थं समुचितसपर्यांशप्रदानेन प्रतर्पयामहे । विधियज्ञप्रतिज्ञापनायाष्टदलकर्णिकामध्येषु पुष्पाक्षतदर्भान् क्षिपेत्। ।।
जिनमंदिर की ईशान दिशा में अष्टदल कमल बनाकर चैत्यालय और नगर संबंधि दिक्पालों को उन-उन मंत्रों से यज्ञभाग समर्पित कर ग्रामसंबंधित देवताओं को शांति के लिये यज्ञभाग देवें। पूर्वस्यां दिशि ।। उत्तुंगंशरदभ्रेत्यादिविधिनाष्टदिक्षु अष्टदिक्पालकदेवान्पूजयेत् । (पूर्वकथित दिक्पाल मंत्रों से संक्षेप में पृष्ठ 20 से दशदिक्पाल को अघ्र्य चढ़ावें।)
धामाश्रिता दिक्पतयोष्टसंख्या, ग्रामाश्रितास्ते च परे च सर्वे।
अघ्र्यप्रदानेन सुतृप्तिभाजो, निघ्नंतु विघ्नान्प्रकृताध्वरस्य।। 3 ।।
ॐ ह्रीं धामग्रामाश्रितदिक्पालकदेवाः सर्वेऽपि ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदमघ्र्यं गृण्हीत गृण्हीत यागविघ्नशान्तिं कुरुत कुरुत स्वाहा । (इस मंत्र से अघ्र्य देवें) अनंतर अठासी देवों सहित नवदेवता पूजा करें और श्रुतपूजा व गुरुपूजा करके पात्रों में रखी मिट्टी को लेकर उत्तर मुख होकर घटी आदि पात्रों में मिट्टी भर देवें। अच्छी तरह से अंकुरशक्ति वाले ऐसे बोये जाने वाले गेहूं आदि धान्यों को पवित्र जल से धोवें।
पुनः रात्रि में शुभमुहूर्त में वाद्य बजवाते हुये कुलांगनाओं से उन पात्रों में बीज डलवाकर स्वयं भी बीज बोवें, पंचकुंभ में भरे हुये जल से मंत्रपूर्वक जलसिंचन करके पुण्यतीर्थजल से पुण्याहमंत्र से जलसिंचन करके कमलपत्रादि से उन पात्रों को ढककर जहां सुखदवायु मिल सके, ऐसे निर्बाध स्थान में उन्हें रखें। पुनः गंध, पुष्प, शेषाक्षत, तांबूल आदि से श्रावकों को संतर्पित करें। यक्षादि देवताओं का विसर्जन करके तीन दिन तक कंुभों के जल से उनका सिंचन करें।
ततो जिनेन्द्रस्य महोत्सवेन महास्नपनमेकादशविधार्चनां पंचमंडलाराधनां श्रुतस्कंधमहर्षिणां च सपर्यां विधिना विदध्यात्।। (पद्य व मंत्र पढ़कर सौभाग्यवती स्त्रियों से पात्रों में मिट्टी भरावें)
आनीतमृद्भिर्विधिना सतीभिः, पात्राणि सर्वाण्यधिवासितानि ।
न्यासक्रमेणोचितमुत्तरस्याः, प्रपूरयामोद्य समंत्रमेव ।। 1।।
ॐ हीं परिपूर्णानंतचतुष्टयाय नमः ।
इति पालिकादिपात्रेषु मृत्तिकां पूरयेत् ।।
(आगे के पद्य व मंत्रों से बीज धुलावें और बीज बोवावें) उपजाति- गोधूममुद्गान् शिलशालिशिंबान् । कुलत्थमाषांस्तिलराजमाषान्।। व्रीह्याढकीकोद्रवसर्षपौघान्श्यामाककंगूंश्चणकान्यवांश्च ।। 2 ।।
सुगर्भतोष्टादश बीजधान्या-न्यमूनि धौतानि शुभैः पयोभिः ।। लग्ने प्रशस्ते सति शंखनादे, कुलांगनाभिर्निशि वापयामः ।। 3 ।। युग्मम्
ॐ ह्रीं नमो वृषभाय रोहिणि चंडे महाचंडे सर्वचंडे स्वाहा। इति बीजानि प्रक्षालयेत् (बीज प्रक्षालित करावें) ।। ॐ नमो रोहिणि वर्धमानविजये विजयचंडे बीजप्रमुखाय लोकविदिताय सर्वज्ञाय स्वाहा ।। इति सुंदरीभिर्वापयेत्स्वयं च वपेत् । (इस मंत्र से महिलाओं से बीज डलवायें एवं स्वयं भी डालें) (गेहूं, मूंग, शिल, शालि, धान्य, शिंबा, कुलथी, उड़द, तिल, राजमा, ब्रीहि, अरहर, कोदों, सरसों, श्यामातंदुल, कंगनी, चना, जौ ये अठारह प्रकार के बीज बोये जाते हैं।) (पुण्याहमंत्रों से और आगे के पद्य को पढ़कर पंचकुंभ में भरे हुये जल से घटी आदि में जल सिंचन करें)
अथ पुण्याहमंत्रः अथ निरतिशयनिजमहिमभरसमसमानमितात्मीयचरणपरिचरणचतुरचतुर्णिकायामरनिकुरुंबशुंभत्कोटीरकोटिकोटितटाव घटितस्फुटतरप्रभाभासुरानेकनूत्नरत्ननिकराकरदिवाकरशताधिकातिगंभीरविपुलप्रभामंडलक्षीरोदडिंडीरपिंडायमानचतुःषष्ठि- चामरप्रभृतिलक्ष्यमाणाप्रतिपक्षबहिरंगमहालक्ष्मीनाथस्य,
अशेषदोषावरणविगमसमसमनंतरसमुद्भूतसकललोकालोकनिरंतर- परिपूर्णसर्वद्रव्यपर्यायविषयक्रमकरणव्यवधानातिवर्तिकेवलाख्यपरंज्योतिःस्वरूपांतरंगिकाक्षय महालक्ष्मीनाथस्य, भगवदर्हत्परमेश्वरस्य पादांभोरुहं सकलमंगलपुरोगमपुण्यांकुरैरभ्यर्चयितुकामाः तमःस्थानावस्थापितपात्रप्रोद्यदंकुरान्संसेचयितुं फलपल्लवफुल्लादिचंचत्पंच-कुंभेभ्यः शीतलातिविमलसलिलमिदानीमाहरामः ।।
शार्दूलविक्रीडितं-यः पूर्णावगमः सुशीतलवचो-वार्भिर्विनेयांकुरा-नुच्चैरुन्नतिमानिनाय जगता-मीशस्य तस्यार्हतः ।। श्रीमत्पादपयोजपूजनकृते, तत्पूर्णकुंभांबुभिः। सेसिच्येह समंत्रकं जनयतः, पुण्यांकुरानंकुरान्।।1।।
ॐ नमो रोहिणि चंडे पाश्र्वचंडे विघ्नविजयचंडे अजितचंडे सर्वचंडे स्वाहा । इति जलसेचनं कुर्यात् ।। पुण्याहमंत्रेणापि जलसेचनं कुर्यात् ।। शिवमस्तु सर्वजगतां परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः ।। दोषाः प्रयांतु नाशं तिष्ठतु जिनशासनं सुचिरम् ।। 2।।
इत्याशिषं कुर्यात् ।। (आशीर्वाद देवें) देवर्षिद्विजपूजनं च विहितमिति पूर्वोक्तश्लोकेन जैनब्रह्मजनसभापूजनम्।। इष्टास्तेऽमी सुराहूताः, शिष्टार्हत्प्रभुपूजने ।। इष्टमस्माकमापाद्य, तुष्टा यांतु यथायथम्।। 3।।
ॐ ह्रीं सर्वाण्हयक्षप्रमुखदेवा आहूतार्चिताः सर्वे स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः। इति विसर्जनमंडलेषु पुष्पांजलिं वितीर्य देवता विसर्जयेत् ।।
(इस मंत्र से विसर्जन करें) (केवलज्ञान कल्याणक से नवमें, सातवें या पांचवें दिन पूर्व विधिवत् अंकुरारोपण विधि की गई। महामहोत्सव के दिन इन अंकुरों के पात्रों को सुवासिनी स्त्रियां मस्तक पर लेकर मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर भगवान के सामने इन अकुरों को चढ़ावें-स्थापित करें)
गद्य-ॐ मंगललोकोत्तमशरणार्हद्भट्टारकमहाध्वरदिवसात्पूर्वस्मिन्नवमसप्तमपंचमान्यतमदिने विधिनांकुरार्पणं विधाय, त्रिदिनमुक्तकुंभांभोभिः सेचनं निर्वत्र्य, समुत्पन्नेष्वंकुरेषेु तत्त्तृतीयदिनेऽन्यस्मिन्वा दिने जैनमहामहमत्युत्सवेन विनिर्माप्य, तदर्चनासमये समुज्जृंभमाणविचित्रवादित्रजालेषु दिग्भित्तिमासादयत्सु निजनिजोत्तमांगेषु विधृत्य, वरवर्णिनीभिर्महत्या विभूत्या चैत्यालयं प्रदक्षिणीकृत्य प्रदत्तेषु पात्रेषु प्ररूढैः प्रगाढसौंदर्यमास्कंदद्भिः, साक्षात्पुण्यांकुरैरिव कुंदेंदुहारगौरांकुरैः कीर्तनीयमूर्तिमापन्नैः
भव्यानुरागैरिव सुवर्णहाटकहटत्पि- शंगवर्णनीयांकुरैर्वा, समसमानतामरकोटीरकोटिकोटितटावघटितनानारत्नप्रभाभारांकुरैः समाराधनीयपादांभोरुहं भगवंतमर्हन्तं ईश्वरमर्चितं समर्चयामहे ।। प्रध्वस्ताशेषघातिप्रकटनिरवधिज्ञानदृग्वीर्यसौख्यः ।। कल्याणैः पंचभेदैः प्रविलसति चतुस्त्रिंशता चातिशेषैः। तैरष्टप्रातिहार्यैस्त्रिजगदधिपतिर्यस्तमेनं जिनेन्द्रं। प्रोद्यत्पुण्यांकुरौघैरनघमिह यजेऽगण्यपुण्यांकुरार्थम् ।। 4।।
ॐ ह्रीं नमः परमकल्याणेभ्यः स्वाहा। इत्यंकुरैरभ्यर्चयेत् ।। (इस मंत्र से अंकुर पात्रों से जिनेंद्रदेव की पूजा करें) प्रमादाज्ज्ञानदर्पाद्यैर्विहितं विहितं न यत् ।। जिनेन्द्रास्तु प्रसादात्ते सकलं सकलं च यत् ।। 5 ।।
क्षमापणपुरःसरं पंचांगप्रणामः ।। प्रक्षीणदोषमलविद्धनिजप्रकाशं, लोकैकभूषणमहं जिनदिव्यरत्नम् । मुक्तिश्रियं सपदि संवदनं विधातुं, पूज्यं प्रपूज्य हृदये निदधे भवन्तम् ।। 6।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः । इति जिनेश्वरविसर्जनम् ।। (विसर्जन करें) शार्दूलविक्रीडितं- मोहध्वांतविदारणं विशदविश्वोद्भासिदीप्तिश्रियं।। सन्मार्गप्रतिभासकं विबुधसंदोहामृतापादकम्।। श्रीपादं जिनचंद्रशांतिशरणं, सद्भक्तिमाने मिते ।। भूयस्तापहरस्य देव भवतो, भूयात्पुनर्दर्शनम्।। 7।।
इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचंद्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलकनाम्नि अंकुरार्पणविधिर्नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।।