राजपुत्री सुरसुंदरी ने शैवगुरु के पास वेद, पुराण, ज्योतिष, वैद्यक, छन्द, काव्य, अलंकार और संगीत आदि अनेक विद्याओं को पढ़ लिया। तब शैवगुरु ने उस विदुषी पुत्री को साथ लेकर राजा के पास आया, उसने राजा को आशीर्वाद देकर उनकी कन्या उन्हें सौंप दी। राजा ने भी उन शैवगुरु को उचित पारितोषिक देकर संतुष्ट किया और आदरपूर्वक विदा कर दिया तथा कन्या को सर्वविद्याओं के विषय में निष्णात देखकर उसके सिर पर हाथ फिराकर उसे शुभाशीर्वाद के साथ शाबासी देकर घर भेज दिया।
सुरसुन्दरी का विवाह
एक दिन राजा अपने मंत्रियों के साथ बैठा हुआ राजकार्य के विषय में विचार-विमर्श कर रहा था। उसी समय पुत्री सुरसुंदरी वहाँ आ गई। उसने विनय से पिता को प्रणाम किया और निकट में बैठ गई। राजा अपनी पुत्री को युवावस्था में देखकर एक क्षण के लिए मन में उसके विवाह के बारे में विचार करने लगे। पुन: कुछ सोचकर पुत्री से पूछा— ‘हे पुत्रि! अब तेरी उम्र विवाह के योग्य हो गई है। किसी योग्य राजपुत्र के साथ तेरा संबंध करना उचित होगा। मैं चाहता हूँ कि तू स्वयं अपने मनो अभिलषित वर को चयन कर ले, तो बहुत ही अच्छा होगा।’ पिता के वचनों को सुनकर सुरसुंदरी ने पहले तो लज्जा से शिर नीचा कर लिया पुन: पिता की प्रेरणा से उसने आँखों को नीचा कर ही उत्तर दिया— ‘हे पिताजी! विद्या, वैभव, रूप, एवं यौवन आदि उत्तम ऐश्वर्य पुण्ययोग से प्राप्त होते हैं, इन सबको आपके आशीर्वाद से मैंने प्राप्त कर लिया है। अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर अपने कर्तव्य का पालन करना ही अनादि परम्परा है।आपने जो इच्छित वर के विषय में पूछा है उसके विषय में मेरा नम्र निवेदन है कि कौशाम्बी नगरी के राजा के पुत्र हरिवाहन विद्या, वय, बुद्धि आदि अनेक गुणों से युक्त हैं। इसलिए वही वर मुझे स्वीकार है।’ पुत्री की बात सुनकर राजा पुहुपाल बहुत ही प्रसन्न हुये। मंत्रियों से परामर्श कर कौशाम्बी नगरी के राजा के पास कुशल दूत के द्वारा पत्र भेजकर विवाह के बारे में सारा निश्चय करके उत्तम मुहूर्त में पुत्री का विवाह संपन्न कर दिया।
कर्मसिद्धान्त पर अटल मैनासुन्दरी
एक दिन मैनासुंदरी ने जिनमंदिर में जाकर भगवान ऋषभदेव की जिनप्रतिमा का विधिवत् अभिषेक पूजन किया। पूजा विधि संपन्न कर स्वर्णपात्र में जिन अभिषेक का गंधोदक लेकर पिता के पास पहुँची। पिता को झुककर नमस्कार किया और सामने गंधोदक रख दिया— ‘पिताजी प्रणाम!’ पिता पुहुपाल ने बड़े प्यार से आशीर्वाद देते हुए कहा— ‘खुश रहो बेटी! आओ।’ पास में बैठने का संकेत किया। मैनासुंदरी उचित स्थान पर बैठ गई। तब पिता ने पूछा— ‘बेटी! कटोरी में यह क्या है?’ मैना ने कहा— ‘पिताजी! यह गंधोदक है, जिन भगवान के अभिषेक का जल है। इसे मस्तक पर, नेत्रों में, हृदय में, वंâठ में लगाना चाहिए। इसके लगाने से अनेक व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं तथा मस्तक पवित्र हो जाता है और जीवन भी धन्य हो जाता है। इस गंधोदक को देव, मनुष्य, विद्याधर और इंद्र भी भक्तिपूर्वक अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं। श्री तीर्थंकर देव का जन्म होते ही इंद्रगण उस जन्मजात जिनबालक को लेकर असंख्य देवों के साथ सुमेरु पर्वत पर जाते हैं, वहाँ पर जिनबालक को पांडुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल से १००८ स्वर्ण कलश भर कर लाते हैं और वहाँ पर तीर्थंकर प्रभु का अभिषेक करते हैं। उस अभिषेक का जल इतना अधिक होता है कि सुमेरुपर्वत के ऊपर से नीचे तक बहने लगता है और नदियाँ बन जाती हैं। परम भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक सुर, असुर, नर और विद्याधर अपने मस्तक पर उस गंधोदक को लगाते हैं और इतना अधिक लगाते हैं कि नदी का जल सूख जाता है। पिताजी! इस गंधोदक की इतनी अधिक महत्ता है कि हम जैसे तुच्छ बुद्धि वाले इसका वर्णन नहीं कर सकते, यह सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है इसलिए आप इसका वंदन कर इसे अपने उत्तमांगों में लगाइए।’ पुत्री की इतनी ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर पिता पुहुपाल बहुत ही प्रसन्न हुए। भक्ति से हाथ जोड़कर गंधोदक का वंदन किया पुन: उसे हाथ में लेकर अपने नेत्रों में, शिर पर और कंठ में तथा वक्षस्थल में लगाया पुन: राजा ने पुत्री को सर्वगुणसंपन्न देखकर, बड़े प्यार से उसके मस्तक पर हाथ फिराकर बार-बार प्रशंसा की और बोले— ‘बेटी! तुम आर्यिका के पास पढ़ी हो, बताओ पुण्य क्या है?’ मैना ने कहा— ‘पिताजी! अरिहंत देव, दया प्रधान धर्म और निर्ग्रंथ गुरु की भक्ति, उनकी उपासना इन कार्यों से ही पुण्य बंध होता है। यह पुण्य आत्मा को पवित्र करता है और दुर्गतियों से बचाकर उत्तम गति में ले जाता है। यही पुण्य परंपरा से मोक्ष को भी प्राप्त करा देता है।’ पुत्री के समुचित उत्तर को सुनकर पिता पुहुपाल ने मन ही मन उसके ज्ञान की सराहना की पुन: बोले— ‘पुत्रि! तुम्हें अपनी इच्छा के अनुसार जो भी वर अभीष्ट हो कहो। तुम्हारी बड़ी बहन सुरसुंदरी के समान ही तुम्हारा भी विवाह तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही वर से कर दिया जाए।’ पिता की यह बात सुनकर मैनासुंदरी ने लज्जा से माथा नीचा कर लिया और चुपचाप खड़ी रही और वह सोचने लगी— ‘माता-पिता जो भी वर कन्या के लिए उचित समझते हैं उसी के साथ उसका विवाह कर देते हैं। प्राय: यही सनातन परंपरा है पुन: पिता ने मेरे से यह प्रश्न आज क्यों कर दिया?…..’ मैना के अभिप्राय को न समझ कर पुन: राजा ने कहा— ‘बेटि! इसमें लजाने की क्या बात है? जिसे तुमने अपने मन में निश्चय किया हो, नि:संकोच भाव से उसे कह दो।’ ‘पिताजी! शीलवती कन्याएँ अपने मुख से किसी अभीष्ट वर (पति) की याचना कदापि नहीं करती हैं ।उनके माता-पिता जिस वर को योग्य जानकर कन्या का विवाह उसके साथ कर देते हैं, वही उनके लिए सर्वस्व हो जाता है।…..।’ तब राजा ने कहा— ‘बेटि! तू अपनी इच्छानुसार वर का चयन करेगी तो तू सुख- दु:ख में माता-पिता को कभी दोष नहीं देगी।’ तब मैना ने कहा— ‘पिताजी! प्रथम तो माता-पिता अपनी संतान का अहित एवं अकल्याण न तो कभी कर सकते हैं और न ही कभी सोच ही सकते हैं। फिर भी यदि कदाचित् कन्या को योग्य वर न मिल सके तो पुन: वह कन्या उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल समझे और धैर्यपूर्वक उसी पति की सेवा में अहर्निश तत्पर रहे, यही अनादि परंपरा है। इस संसार में इष्ट वस्तु का संयोग और अनिष्ट वस्तु का वियोग अथवा इष्ट का वियोग-अनिष्ट का संयोग यह सब पूर्वकर्म के अनुसार से ही होता रहता है। इसलिए मैं आपसे इस विषय में कुछ भी नहीं कहना चाहती, आपको पूर्ण अधिकार है, आप चाहे जिसके साथ विवाह कर दें। मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा।’ मैना की इस लंबी उक्ति को सुनकर राजा को क्रोध आ गया, उन्होंने कहा— ‘बस, बस, चुप रह! क्या तेरे गुरु ने तुझे यही सिखलाया है कि अपने प्रति उपकार करने वालों का अनादर करना, उनकी आज्ञा का उलंघन कर उन्हें जवाब देना? क्या जो तुझे मेरे घर में यह सब उत्तमोत्तम सुख सामग्री मिली है, वह तुझे तेरे कर्म से मिली है? अरे! इसे कृतघ्नता के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?’ राजा के क्रोधपूर्ण शब्दों को सुनकर मैना एक क्षण तो चुप रही पुन: साहस कर बोली— ‘पिताजी! आप नाराज न होइए। मैं जो आपके घर में जन्मी हूँ, तो यह सब मेरे पूर्व के पुण्य का ही फल है। अन्यथा मैं किसी गरीब या भिखारी के यहाँ जन्म ले लेती। मेरी गुर्वानी आर्यिका जी ने मुझे कर्म सिद्धांत को अच्छी तरह से पढ़ा दिया है। आप क्या और मैं क्या? इस संसार में तीर्थंकर भी कर्म के ही आधीन रहते हैं तभी तो भगवान ऋषभदेव को छह महीने तक आहार नहीं मिला था….।’ उस समय क्रोध और मान से भरे राजा को मैना की धर्मरूप युक्ति युक्त बातें अच्छी नहीं लगीं उसने पुन: क्रोध में तिलमिला कर कहा— ‘ठीक है, मैं तेरे भाग्य को देखूँगा….।’ इतना सुनते मंत्रीगण सहम गये और बोले— ‘हे नर नाथ! हम सब आपके पुण्य ही प्रताप से सुख भोग रहे हैं। यह कन्या अभी अबोध है इसके शब्दों का आपको कुछ ख्याल नहीं करना चाहिए।’ राजा ने और अधिक उग्र होकर कहा— ‘मैं इसके कर्म के अभिमान को चूर कर दूगा….।’ तब मंत्रियों ने कहा— ‘महाराज! उद्यान भ्रमण का समय हो गया है। बाहर घोड़ा तैयार खड़ा है, आप उठिए और भ्रमण के लिए चलिए। राजा उठकर मंत्रियों के साथ उद्यान भ्रमण के लिए चले गये और मैना अपने अंत:पुर में आ गई।