३ – चम्पापुर के राजा अरिदमन के पुत्र श्रीपाल को अकस्मात कुष्ठरोग
चम्पापुर के राजा अरिदमन ने अपने सामने विनय से बैठे हुए युवापुत्र श्रीपाल को देखकर मन में सोचा— ‘‘मेरा पुत्र श्रीपाल शास्त्र और शस्त्र विद्या में पूर्णतया निष्णात हो चुका है अब मेरा कर्तव्य है कि अपनी सनातन परंपरा के अनुसार पुत्र के कंधों पर राज्यभार डालकर स्वयं अपनी आत्मा का हित करूँ, अपना परलोक सुधारूँ।’’ इतना विचार कर राजा श्रीपाल को योग्य शिक्षास्पद बातें बताई। पश्चात् शुभमुहूर्त में राज्यतिलक कर दिया। श्रीपाल ने भी पिता के भार को कुशलता से सँभालते हुए अपनी प्रजा को अपने वशीभूत कर लिया। एक समय अकस्मात् श्रीपाल के कामदेव जैसे सौंदर्यवान् शरीर में कुष्ठ रोग हो गया। वह इतना बढ़ता गया कि उनके सारे हाथ के पैरों के अवयव भी गलने लगे और बहुत भयंकर दुर्गन्ध निकलने लगी। यहाँ तक कि लोगों के लिए उस चम्पानगरी में रहना अशक्य हो गया, कुछ लोग गाँव छोड़कर बाहर चले गये और बाहर नहीं जा सके तो लाचारी में मन मारकर रहते हुए भी क्षुब्ध हो गए। तब कुछ प्रमुख लोेगों ने साहस करके राजा श्रीपाल के काका वीरदमन के पास आकर निवेदन किया— ‘‘हे नरश्रेष्ठ! राजा श्रीपाल के पता नहीं कौन से कर्म का उदय आ गया है कि जिससे उन्हें इतना भयंकर कुष्ठरोग हो गया है। अहो! ये बालपन में भी सारी प्रजा के आँखों के तारे थे, आठ वर्ष की उम्र में इतना यज्ञोपवीत संस्कार किया गया था, तभी से ये मद्य, मांस, मधु और सप्त व्यसन के त्यागी हैं, पंचाणुव्रत पालन करते हैं, भगवान की पूजन और दान में सतत इनकी प्रवृत्ति रहती है, आज विद्या में इनकी बराबरी का कोई राजा होना कठिन है। तर्व, छन्द, व्याकरण, गणित, सामुद्रिक-रसायन, संगीत, आयुर्वेद, धनुर्विद्या, जल में तैरना, हाथी, घोड़े, रत्न के परीक्षण की विद्या आदि सर्व विद्याओं में पंडित हैं। साथ ही प्रजावत्सल हैं, न्यायप्रिय हैं। इनमें अगणित गुण होने से प्रजा इन्हें पिता के समान आदर से देखती है। किन्तु…..आजकल इनके रोग की दुर्गन्धि के कारण अपनी नगरी का उजाड़ होता चला जा रहा है। लोग घर छोड़-छोड़कर अन्यत्र चले जा रहे हैं। सो आप इसके लिए कुछ सोचिए?’’ भाई वीरदमन ने सारी बातें सुनीं और कुछ क्षण मन में गंभीरता से सोचा पुन: बोले— ‘‘हे प्रजाजनों! श्रीपाल राजा का हृदय प्रजा के प्रति बड़ा ही दयालु है आप लोगों ने आज तक स्थिति क्यों छिपाई? हो सकता था कि वे स्वयं कुछ सोचते ….खैर! अभी भी आपने जा प्रजा के संकट की बात कही है उस पर जल्दी ही प्रतिक्रिया होगी। आप लोग शांति धारण करें।’ इतना सुनकर वे लोग अपने-अपने घर चले गए। इधर काका वीरदमन ने स्वयं राजा श्रीपाल के पास आकर एकांत में बैठकर सारी स्थिति बता दी, तब बहुत कुछ परामर्श के बाद श्रीपाल ने यह निर्णय किया— ‘‘मैं स्वयं इस रोग के दूर होने तक यहाँ से निकलकर अन्यत्र निवास करूँगा, तब तक के लिए यह राज्य व्यवस्था आप सँभालें।’’ घर आकर श्रीपाल ने अपनी माता कुन्दप्रभा को बड़े ही प्रयत्न से सान्त्वना देकर और उनकी आज्ञा तथा आशीर्वाद लेकर अपने ७०० वीरों के साथ चम्पापुरी नगरी से प्रस्थान कर दिया। इन ७०० वीरों को भी श्रीपाल के साथ ही वैसा ही भयंकर कुष्ठ रोग हो गया था। ये लोग घूमते हुए उज्जैन शहर के बाहर बगीचे में आकर ठहर गये थे।