किसी समय वज्रजंघ आर्य अपनी स्त्री के साथ कल्पवृक्ष की शोभा देखते हुए बैठे थे कि वहाँ पर आकाशमार्ग से दो चारण-ऋद्धिधारी मुनि उतरे। वज्रजंघ के जीव आर्य ने शीघ्र ही पत्नी सहित खड़े होकर उनका विनय करके नमस्कार किया। उस समय उन दोनों दम्पत्ति के नेत्रों से हर्षाश्रु निकल रहे थे। दोनों मुनि दम्पत्ति को आशीर्वाद देकर यथायोग्य स्थान पर बैठ गये। उनके नाम प्रीतिंकर और प्रीतिदेव थे। वज्रजंघ ने पूछा-हे भगवन् ! आप कहाँ से आये हैं? आपके प्रति मेरे हृदय में आत्मीयता का भाव उमड़ रहा है। प्रीतिंकर मुनिराज बोले-हे आर्य! आप इससे पूर्व चतुर्थ भव में विद्याधर के राजा महाबल थे और मैं आपका स्वयंबुद्ध नाम का मंत्री था। उस समय मैंने तुम्हें जैनधर्म ग्रहण कराया था, पुनः मैं जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अंत में मरकर स्वर्ग में गया। वहाँ से पूर्व विदेह के राजा प्रियसेन की रानी सुन्दरी देवी के मैं प्रीतिंकर पुत्र हुआ हूँ और यह प्रीतिदेव महातपस्वी मेरा छोटा भाई है। हम दोनों ने स्वयंप्रभ जिनराज के समीप दीक्षा लेकर अवधिज्ञान एवं चारणऋद्धि प्राप्त कर ली है। चूँकि उस भव में आप मेरे परम मित्र थे इसलिए आपको समझाने के लिए हम यहाँ आये हैं। हे भव्य! निर्मल सम्यक्त्व के बिना केवल पात्रदान के प्रभाव से तू यहाँ उत्पन्न हुआ है, ऐसा समझ। महाबल के भव में तूने हमसे ही तत्वज्ञान प्राप्त कर शरीर छोड़ा था, परन्तु उस समय भी तू सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सका था, अब हम सम्यक्त्वरूपी अमूल्य निधि को तुझे देने के लिए यहाँ आये हैं। इसलिए हे आर्य! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण करें। वीतराग सर्वज्ञ देव, आप्त कथित आगम और जीवादि पदार्थों का बड़ी निष्ठा से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह आठ अंग सहित, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता रहित होता है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य-ये चार इसके गुण हैं। इस प्रकार मुनिराज वज्रजंघ आर्य को समझाकर श्रीमती आर्या को समझाने लगे। हे मातः! सम्यग्दर्शन के बिना ही यह स्त्रीपर्याय प्राप्त होती है, सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम नरक के बिना छह नरकों में, स्त्री पर्याय में, एकेन्द्रिय पर्याय, विकलत्रय पर्याय आदि निंद्य योनियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। हे मातः! तू भी सम्यग्दर्शन धारण कर और इस स्त्रीपर्याय से छूटकर क्रम से सप्तपरमस्थानों को प्राप्त कर। दोनों दम्पत्ति ने अत्यधिक प्रसन्नचित्त होकर सम्यक्त्वरत्न को ग्रहण किया। पहले कहे हुए वङ्काजंघ पर्याय में आहारदान के समय जो सिंह, सूकर, वानर और नेवला थे, वे दान की अनुमोदना से वहीं पुरुष पर्याय में जन्मे थे। वे भी इस समय प्रीतिंकर गुरुदेव के मुख से उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शनरूपी अमृत को प्राप्त हुए थे। दोनों ही दम्पत्ति को दोनों ही मुनिराज ने बार-बार धर्म-प्रेम से स्पर्श किया और आशीर्वाद देते हुए आकाशमार्ग से विहार कर गये। जब वे मुनिराज चले गये, तब आर्य वङ्काजंघ ने बहुत देर तक उनके वियोगजन्य दुःख का अनुभव किया। अनन्तर उनके गुणों का चिंतवन करते हुए सोचने लगा कि देखो! महाबल के भव में भी वे स्वयंबुद्ध नामक मेरे गुरु हुए थे और इस भव में सम्यग्दर्शन देकर विशेष गुरु हुए हैं। सचमुच में जैसे सिद्धरस ताँबा आदि धातुओं को स्वर्ण बना देता है वैसे ही गुरु संगति भी भव्यजनों को शुद्ध सिद्ध बना देती है। गुरु उपदेशरूपी नौका के बिना यह घोर संसार-समुद्र नहीं तिरा जाता है, गुरु ही अकारण बन्धु हैं, इस प्रकार सम्यक्त्व से विशुद्ध उन भोगभूमिज आर्यों ने कल्पवृक्ष के उत्तम भोगों का अनुभव करते हुए और तत्त्वभावना में मन को लगाते हुए तीन पल्य की आयु को समाप्त कर दिया। वज्रजंघ का जीव ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ। श्रीमती आर्या भी सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्रीपर्याय से छूटकर उसी स्वर्ग में स्वयंप्रभ नाम का उत्तम देव हुआ। सिंह, सूकर, वानर, नकुल के जीव भी उसी स्वर्ग में उत्तम ऋद्धि के धारक देव हो गए। ये वज्रजंघ का जीव भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव होगा और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होगा। प्रश्न-मुनियों के उपदेश के सिवाय भोगभूमिज में क्या और भी कोई सम्यक्त्व के कारण हैं? उत्तर-हाँ, जातिस्मरण हो जाने से, उपदेश श्रवण से, देवद्र्धि आदि देखने से भी सम्यक्त्व प्रगट हो सकता है। कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमि में नहीं जा सकता। सम्यग्दृष्टि पात्रदान के प्रभाव से स्वर्ग ही जायेगा। हाँ, यदि किसी ने पहले मनुष्यायु, तिर्यंचायु का बंध कर लिया, अनन्तर सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है तब वह जीव नियम से कर्मभूमि का मनुष्य या तिर्यंच न होकर भोगभूमि में ही मनुष्य या तिर्यंचयोनि में जन्म लेगा और वहाँ से सौधर्म-ईशान स्वर्ग में जन्मेगा। सचमुच में पूर्व जन्म के स्नेह के संस्कार से ही प्रीतिंकर महामुनिराज ने उन भोगभूमिजों को सम्यक्त्व ग्रहण कराया अन्यथा वहाँ भोगभूमि में वे मुनिराज क्यों जाते ? स्नेह और बैर दोनों के संस्कार जीवों के कई भवों तक चलते रहते हैं अतः बैर का संस्कार कभी नहीं बनाना चाहिए।