राजा पुहुपाल मैनासुंदरी से चर्चा के बाद विहार के लिए यहाँ आ गए। उन्होंने श्रीपाल को देखा और पूछा— ‘‘आप कौन हैं? और यहाँ कैसे आ गए?’’ श्रीपाल ने कहा— ‘‘नरनाथ! अपने अशुभ कर्मों का फल भोगता हुआ, इष्ट मित्रों सहित यहाँ आकर ठहरा हूँ।’’ ‘कर्मों का फल’ शब्द सुनते ही राजा ने सोचा— ‘‘मेरी पुत्री भी कर्मों की प्रधानता मानती है और यह भी कर्मों की प्रधानता मानकर उसी का फल भोग रहा है। …..यही वर पुत्री के योग्य होगा, वह अपने कर्मों का फल पा जायेगी।’’ राजा ने श्रीपाल से पूछा— ‘‘आपकी जाति क्या है? और धर्म क्या है?’’ श्रीपाल ने कहा— ‘‘मैं क्षत्रियराजा हूँ और जैनधर्म का मानने वाला हूँ।’’ तब राजा ने कहा— ‘‘ठीक है, आप यहाँ आये हैं तो अच्छा ही हुआ। मैं अपनी पुत्री का विवाह आपसे कर दूँगा।’ श्रीपाल आश्चर्यचकित हो बोले— ‘‘राजन्! कहाँ मैं एक कुष्ठ रोगी और कहाँ….’’ राजा ने बोले— ‘‘सो तो मैं देख ही रहा हूँ।’’ इतना सुनते ही मंत्री चुप नहीं रह सके और बोले— ‘‘ राजन्! आप यह कैसा अनर्थ करने जा रहे है? इस विषय में कुछ परामर्श तो कर लेना उचित था। ओह! कहाँ तो आपकी कन्या अत्यन्त सुकुमार, लोकोत्तर सुंदरी और कहाँ यह कुष्ठ रोगी?’’ राजा ने कहा— ‘‘मैंने सोचकर ही निर्णय लिया है इसलिए आप लोग चुप बैठें।’’ मंत्री ने कहा— ‘‘महाराज! इस विवाह की सभी निंदा करेंगे और आप भी पुन: पश्चात्ताप करेंगे…। यदि अज्ञानतावश बालकों से कोई अपराध भी हो जाये तो भी माता-पिता का कर्तव्य है कि उन्हें क्षमा ही कर दें न कि इतना कठोर दण्ड?….’’ दूसरे मंत्री ने कहा— ‘राजन्! अबोध अवस्था में की गई बालिका की छोटी सी गलती से उसके सारे जीवन को दु:ख में डाल देना….।’ तब राजा ने कड़क कर कहा–चुप रहो, तुम लोगों से हम कुछ परामर्श नहीं ले रहे पुन: क्यों बोलते ही चले जा रहे हो? फिर भी साहस कर एक मंत्री ने कहा— ‘महाराज! अभी आप आवेश में आकर नीतिकारों का वचन भूल रहे हैं। देखो, ‘बालक, वृद्ध, स्त्री, निर्बल, पशु, अधीनस्थ, शरणागत एवं पीठ दिखाकर भागने वालों के प्रति क्षत्रियों का क्रोध करना अनुचित है…..।’ राजा ने बीच में ही बात काटकर कहा— ‘बस, मैंने जो कह दिया, वह अटल है…अच्छा, श्रीपाल आप लोग हमारे साथ शहर में चलें।’ वे लोग राजा के साथ आ गये। राजा ने महल में जाकर रानी से यह समाचार सुनाया। तब वे आश्चर्यचकित हो राजा का मुख ही देखती रह गर्इं। राजा ने खुलासा करते हुए मैना के साथ हुये कर्मवाद के विसम्वाद को बतलाकर कहा— ‘मैं इस पुत्री को इसके कर्मों का मजा चखाऊँगा।’ उस समय रानी का धैर्य टूट गया। वे रो पड़ीं और रुँधे कंठ से बोली— ‘आपने यह क्या सोच लिया? इतना बड़ा अनर्थ देखकर मैं कैसे जीवित रहूँगी?’ रानी के सब कुछ समझाने के बाद भी राजा नहीं माने और वे उठकर अलग चले गये। मैनासुंदरी को बुलाकर बोले— ‘पुत्रि! देख, मैं तेरे कर्म सिद्धांत से कुपित हो तेरा कुष्ठी के साथ विवाह कर दूँगा। देख, अभी भी तू मेरा कहना मान ले और अपनी इच्छानुसार वर का चयन कर ले अन्यथा मैं तेरे भाग्य की कड़ी परीक्षा लेऊँगा।’ राजा बोलते ही गये। मैनासुंदरी चुपचाप सुनती रही। पुन: धैर्य के साथ बोली— ‘पिताजी! आपने जो भी निर्णय लिया है मुझे स्वीकार है। मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि शुभ कर्म के उदय से अनिष्ट वस्तु भी इष्ट हो जाती है और अशुभ कर्म के उदय से इष्ट भी अनिष्ट अशोभन हो जाते हैं ….।’ पुन: कर्म की ही पुष्टि सुनकर राजा पुहुपाल ने कहा— ‘ठीक है, अब मैं देखूँगा तेरा कर्म सिद्धांत!…..’ राजा ने ज्योतिषी को बुलाकर मुहूर्त पूछा, ज्योतिषी ने कहा— ‘महाराज! विवाह का मुहूर्त तो आज ही सबसे श्रेष्ठ है। ऐसा मुहूर्त तो अगले तीस वर्ष में भी आने की संभावना नहीं है। आज के मुहूर्त में रवि, सोम और गुरु तीनों ग्रह वर तथा कन्या के लिए अत्यन्त शुभप्रद हैं।’ मुहूर्त सुनकर राजा प्रसन्न हुए और पंडित को दक्षिणा देने लगे। पंडित ने कहा– ‘महाराज! आपकी इस दक्षिणा को मैं नहीं ले सकता। ऐसे अयोग्य विवाह से भला किसको प्रसन्नता है? परन्तु क्या किया जाए? कन्या का भाग्य ही जब ऐसा है, तब आपको क्या दोष दिया जाए?’ इत्यादि प्रकार से ज्योतिषी पंडित के बहुत कुछ समझाने के बावजूद राजा टस से मस नहीं हुए। प्रजा के प्रमुख लोग भी राजा को समझा चुके थे। शहर में घर-घर में यही चर्चा हो रही थी। ‘अहो! राजा क्या कर रहे हैं? ऐसी अबोध बालिका के साथ ऐसा अन्याय?….’ किन्तु राजा ने पुन: सबको डाँटकर कहा— ‘मैं जो भी कर रहा हूँ, बिल्कुल ठीक है। क्या तुम लोगों ने नहीं सुना है कि—
सिंहलगन, कदली फलन, नृपति वचन इकबार। त्रिया तेल अमीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।
फिर भी सब लोग विरोध करते ही रहे और विवाह की बेला आ गई। राजा ने श्रीपाल को विधिवत् संकल्प करके कन्यादान दे दिया। माता निपुणसुंदरी और बहन सुरसुंदरी बहुत ही रो रही थीं। विदाई के समय उनकी छाती फटी जा रही थी किन्तु मैनासुंदरी की आँखों में एक बूँद भी अश्रु नहीं थे प्रत्युत् वह यही कह रही थी कि—‘आप लोग अब मेरे पतिदेव को कोढ़ी-कोढ़ी कहकर मेरे मन को दु:खी न करें। कुलीन कन्या के लिए पति देवता है, वह चाहे जैसा क्यों न हो।’ मैनासुंदरी माँ और बहन को भी समझा रही थी कि— ‘हे मात:! यदि मेरा भाग्य प्रतिकूल था तो माता-पिता द्वारा उचित अच्छे वर के साथ विवाह होने के बाद भी पति रोगी हो सकता था और यदि मेरा भाग्य अनुकूल होगा तो ये आपके जामाता भी नीरोग हो जायेंगे। आप इतनी चिंता क्यों करती हैं?…’ इत्यादि शोकपूर्ण वातावरण में ही मैना की विदाई हो गई और राजा श्रीपाल अपनी पत्नी तथा इष्ट मित्र-वीरों सहित उज्जैन के बगीचे में ही आकर ठहर गये। राजा ने विवाह में भरपूर राजकीय वस्तुएँ दीं और मैना की विदाई कर दी थी किन्तु अब राजा का हृदय टूट गया और वे शिर धुन-धुनकर पश्चात्ताप करने लगे और रोने लगे— ‘हाय! मैंने यह क्या कर डाला?….मेरी बुद्धि कैसी मारी गई थी? मेरी प्यारी पुत्री कोढ़ी के साथ कैसे अपना जीवन बितायेगी?….’ किन्तु ‘अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।’ इस कहावत के अनुसार अब भला क्या हो सकता था?