मैनासुंदरी अपने पति की सेवा में अहर्निश लगी रहती थी। घाव धोकर औषधि लगाती, पट्टी बाँधती और प्रकृति के अनुकूल भोजन कराती थी। वह रंचमात्र भी ग्लानि नहीं करती थी। कभी-कभी अनेक तत्त्व चर्चा और धर्म कथाओें के द्वारा पति का मन अनुरंजित किया करती थी। कभी-कभी रात्रि में भी नींद न लेकर सेवा में संलग्न रहती थी। इतनी सेवा परायणता देखकर एक दिन श्रीपाल ने कहा— ‘‘प्रिये! तुम अत्यंत कोमलांगी हो, बचपन में कभी भी इतना श्रम नहीं किया होगा और फिर मेरा शरीर इतना घृणित, दुर्गंधित है और यह मेरा रोग संसर्ग से हो जाता है अत: आप कुछ दिन मेरे से दूर ही रहा करो। जब मेरे असाता का उदय मिट जायेगा, तब आप निकट में बैठो।’’ इतना सुनकर मैना को बहुत ही दु:ख हुआ, उसने कहा- ‘‘हे नाथ! आपने आज ऐसे शब्द क्यों कह दिये? क्या कुलीन महिलायें रोग, कष्ट आदि में पति से दूर रह सकती हैं? मेरा तो कर्तव्य यही है कि हर समय आपकी सेवा करना, आपके शरीर और मन के अनुकूल कार्य करना। यदि मेरे असाता कर्म का उदय होगा तो मुझे भी रोग हो जायेगा, नहीं तो संसर्ग मात्र से नहीं होगा। आपको मुझे कभी भी नहीं रोकना चाहिए। हाँ, यदि कुछ प्रतिकूलता हुई हो तो अवश्य कहिये।’’ मैनासुंदरी के युक्तिपूर्ण वचन सुनकर श्रीपाल का हृदय भर आया और वे कहने लगे— ‘‘लगता है कि अब मेरे पुण्य का उदय आ गया है तभी तो तुम जैसी राजपुत्री विदुषी रानी मिली है। आपकी भक्ति और सेवा से तो मेरा बहुत कुछ कष्ट अपने आप ही दूर हो जाता है।….’’ दूसरे दिन मैनासुंदरी ने अपने पतिदेव के साथ परामर्श करके जिनमंदिर में जाकर दर्शन किया, भगवान की पूजन की पुन: वहीं पर विराजमान मुनिराज के सान्निध्य में पहुँचकर उनकी वंदना करके पास में बैठ गये, गुरु से धर्मोपदेश सुना पुन: मैनासुंदरी ने प्रार्थना की कि— ‘‘हे भगवन्! तीव्र असाता के उदय से मेरे पतिदेव कुष्ठ रोग से दु:खी हैं, इस रोग को दूर करने का उपाय बतलाइये।’’ मैनासुंदरी की प्रार्थना सुनकर महामुनि बोले— ‘‘ हे पुत्रि! जिनेन्द्रदेव की भक्ति के प्रसाद से संसार में कुष्ठ आदि रोग तो क्या, जन्म-मरण के रोग भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिये तुम दृढ़ श्रद्धा के साथ आष्टान्हिक पर्व में नंदीश्वरव्रत करके सिद्धचक्र की आराधना करो। इस व्रत और सिद्धचक्र के प्रभाव से तुम्हारे पति का कुष्ठ सर्वथा नष्ट हो जायेगा।’’ मैनासुंदरी ने गुरु के वचनामृत सुनकर प्रसन्न होकर पुन: पूछा— ‘‘हे भगवन्! आप इस व्रत की पूर्णविधि बतला दीजिये।’’ मुनिराज ने कहा— ‘‘बेटी! कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ इन तीनों महीनों में शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमापर्यंत नंदीश्वर पर्व मनाया जाता है। इन दिनों देवगण यहाँ से आठवें नंदीश्वर द्वीप मे जाकर बराबर आठ दिनों तक अखंड पूजा करते हैं। तुम इन्हीं पर्व के दिनों में नंदीश्वर व्रत (अष्टान्हिक व्रत) धारण करो और विधिवत् सिद्धचक्र विधान की आराधना करो। यह व्रत वर्ष में तीन बार आता है और आठ वर्ष तक किया जाता है। व्रत के दिनों में शक्ति हो तो आठ उपवास अन्यथा बेला या एकांतर से अथवा एक भुक्तिपूर्वक भी जैसी शक्ति हो उसी के अनुसार उत्तम, मध्यम अथवा जघन्य रीति से व्रत करना चाहिए। जब व्रत पूर्ण हो जाए तो उद्यापन करना चाहिए।’’ मैनासुंदरी और श्रीपाल ने व्रत विधि समझकर उन्हीं गुरुदेव के पादमूल में इस व्रत को सहर्ष ग्रहण कर लिया और उनकी पुन: पुन: वंदना करके अपने स्थान पर वापस आ गये।
मैनासुन्दरी द्वारा आष्टान्हिक पर्व में सिद्धचक्र विधान का आयोजन एवं पति का कुष्ठरोग ठीक होना
कुछ ही दिनों बाद कार्तिक महीने का आष्टान्हिक पर्व आ गया। मैनासुंदरी ने विधिवत् सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान किया और बराबर आठ दिन व्रत किया। वह प्रतिदिन स्नानादि से शुद्ध हो मंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का अभिषेक करती थी१। पुन: अष्टद्रव्य से पूजन विधान करती थी। अनंतर गंधोदक लाकर अपने पति के शरीर पर लगाती थी और उसी गंधोदक को ७०० वीरों के शरीर पर भी छिड़क देती थी जो कि कुष्ठ रोग से ग्रसित थे। धीरे-धीरे इन लोगों के असाता कर्म उदय मंद होने लगा और रोग घटने लगा। यहाँ तक कि इस व्रत के प्रभाव से केवल आठ ही दिनों में राजा श्रीपाल का शरीर एकदम कंचन जैसा सुंदर हो गया। देखने वाला कोई यह भी नहीं कह सकता था कि इन्हें कुष्ठ रोग हुआ था। साथ ही ७०० वीर योद्धाओं के शरीर भी स्वस्थ हो गये। यह अतिशय देखकर राजा श्रीपाल कहने लगे— ‘‘अहो! इस व्रत का कितना बड़ा माहात्म्य है कि जिसने इतने दिनों के असाध्य भी भयंकर कुष्ठ रोग को मात्र आठ दिन में जड़मूल से खत्म कर दिया।’’ इसके उपरांत प्रसन्न चित्त हुए राजा श्रीपाल भी प्रतिदिन मंदिर में जाकर भगवान की भक्ति, पूजा और स्तुति करते थे तथा मुनिराज के चरणों के निकट बैठकर उनकी भी अष्टद्रव्य से पूजा करके उनके श्रीमुख से धर्मोपदेश सुना करते थे। मैनासुंदरी भी अब बहुत ही प्रसन्न थी और प्रतिदिन जिनपूजा, पात्रदान आदि करके अपने पातिव्रत्य आदि गुणों से पति को प्रसन्न रखती थीं।
कुछ ही दिनों के बाद राजा श्रीपाल अपने महल में सुखपूर्वक बैठे हुए थे कि अकस्मात् द्वारपाल ने आकर कहा— ‘‘हे नरश्रेष्ठ! आपकी माता बहुत ही परिकर के साथ यहाँ पर आई हुई हैं।’’ श्रीपाल इतना सुनते ही अपने आसन से उठ खड़े हुए और मैनासुंदरी से बोले— ‘‘प्रिये! मेरी माता यहाँ आ गई हैं अत: हमें उनका स्वागत करके उन्हें आदर से घर में लाना है।’’ मैनासुंदरी स्वयं सर्वगुणसंपन्न थी और समयोचित कर्तव्य को समझती थी अत: उसने शीघ्र ही हाथ में मंगल कलश लिया और महल के बाहर आ गई। राजा श्रीपाल के साथ मैनासुंदरी ने सासु का स्वागत किया। श्रीपाल के साथ ही माता के चरणों में विनय से प्रणाम किया पुन: पुन: उनके चरण छुये और लज्जा से मस्तक नीचा कर अपनी सास के एक तरफ खड़ी हो गई। श्रीपाल ने भी माता के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया था। तब माता कुंदप्रभा ने बड़े ही स्नेह से उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और उसके मस्तक पर हाथ फैरते हुए बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। चिरवियोग के बाद तथा दु:ख से सुख में मिलने से माता के नेत्रों में आँसू आ गए। राजा श्रीपाल माता को, और साथ में आए अपने अनेक प्रमुख लोगों को साथ लेकर अंदर महल में आ गए। माता घर में आकर चारों तरफ का सुंदर वातावरण देखकर प्रसन्न होती है और बैठकर श्रीपाल से सारी बातें पूछती है। श्रीपाल भी घर से निकलने से लेकर उस दिन तक की सारी अपनी सुख-दुख मिश्रित बातें सुना देते हैं और पुन: कहते हैं— ‘हे मात:! मेरे कोई विशेष ही पुण्य का उदय था कि जिससे राजा पुहुपाल ने अपनी पुत्री के कर्म सिद्धांत की बातों से चिढ़कर मुझ जैसे कोढ़ी को अपनी कन्या विवाह दिया और उस सुकुमारी ने मेरी जो सेवा की है सो मैं क्या कहूँ?…..इसके पश्चात गुरु की कृपा से सिद्धचक्र का अनुष्ठान करके मुझे स्वस्थता प्रदान की है।’’ इत्यादि प्रकार से मैनासुंदरी की प्रशंसा सुनकर माता कुंदप्रभा ने बार-बार उसके मस्तक पर हाथ फैरकर शुभाशीर्वाद दिया— ‘पुत्रि! तू आठ हजार रानियों की पट्टरानी हो। कोटिभट श्रीपाल भी चिरंजीव रहे और तेरे पिता पुहुपाल भी सदा यश वैभव से समृद्धिमान् हों।’ माता के आशीर्वाद को पाकर दोनों प्रसन्न हुए और बोले— ‘यह सब आपके ही आशीर्वाद का सुफल है।’ पुन: श्रीपाल ने पूछा— ‘हे मात:! आपको मेरे यहाँ रहने का पता कैसे मिला?’ माता ने कहा— ‘हे पुत्र! तेरे वियोग से दु:खी हो मैं रात-दिन चिंता किया करती थी, एक दिन मैंने मंदिर में विराजमान अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा— ‘भगवन्! मेरा पुत्र आज किस स्थिति में है? सुखी है या दु:खी?’ मुनिराज ने कहा— ‘वह बहुत ही सुखी है। उसके साथ उज्जैन के राजा ने अपनी कन्या विवाह दी थी। वह कन्या सम्यग्दृष्टि और शील शिरोमणि सती है। उसने व्रत और सिद्धचक्र की आराधना के बल से श्रीपाल के तथा सभी के कुष्ठ रोग को दूर भगा दिया है।’ मुनिराज के मुख से यह सब सुनकर मेरी इच्छा तेरे से मिलने की हो गई और मैं तेरे काका वीरदमन से अनुमति लेकर यहाँ आ गई।’ इतना सुनकर श्रीपाल प्रसन्न हुए। मैनासुंदरी ने भी सासु को स्नान आदि से निवृत्त कराकर भोजन कराया और उनके चरणों को दबाकर सेवा करके उनका मन प्रसन्न किया। इसी प्रकार प्रसन्नपूर्ण वातावरण में ये सभी लोग रह रहे थे।