इतो जलनिधेस्तीरे बले यादवभूभुजाम्।
निविष्टवति निर्मापयितुं स्थानीयमात्मनः।।१८।।
अष्टोपवासमादाय विधिमन्त्रपुरस्सरम्।
कंसारिःशुद्धभावेन दर्भशय्यातलं गतः।।१९।।
अश्वाकृतिधरं देवं मामारूह्य पयोनिधेः।
गच्छतस्ते भवेन्मध्ये पुरं द्वादशयोजनम्।।२०।।
इत्युक्तो नैगमाख्येन सुरेण मधुसूदन:।
चक्रे तथैव निश्चित्य सति पुण्ये न कः सखा।।२१।।
प्राप्तवेगोद्धतौ तस्मिन्नारूढे तुरगद्विषा।
हये धावति निद्र्वन्द्वं निश्चलत्कर्णचामरे।।२२।।
द्वेधाभेदभयाद्वार्धिर्भयादिव हरेरयात्।
भेद्यो धीशक्तियुत्तेन सङ्घातोऽपि जलात्मनाम्।।२३।।
शक्राज्ञया तदा तत्र निधीशो विधिवधतम्।
सहस्रकूटं व्याभासि भास्वद्रत्नमयं महत्।।२४।।
कृत्वा जिनगृहं पूर्वं मङ्गलानाञ्च मङ्गलम्।
वप्रप्राकारपरिखागोपुराट्टालकादिभिः ।।२५।।
राजमानां हरेः पुण्यात्तीर्थेशस्य च सम्भवात्।
निर्ममे नगरीं रम्यां सारपुण्यसमन्विताम्।।२६।।
सरित्पतिमहावीचीभुजालिङ्गितगोपुराम्।
दीप्त्या द्वारवतीसञ्ज्ञां हसन्तीं वामरीं पुरीम्।।२७।।
सपिता साग्रजो विष्णुस्तां प्रविश्य यथासुखम्।
लक्ष्मीकटाक्षसंवीक्ष्यस्तस्थिवान्यादवै: सह।।२८।।’
इधर चलते-चलते यादवों की सेना अपना स्थान बनाने के लिए समुद्र के किनारे ठहर गई।।१८।।
वहाँ कृष्ण ने शुद्ध भावों से दर्भ के आसन पर बैठकर विधिपूर्वक मन्त्र का जाप करते हुए अष्टोपवास का नियम लिया। उसी समय नैगम नामके देव ने कहा कि मैं घोड़ा का रूप रखकर आऊँगा सो मुझ पर सवार होकर तुम समुद्र के भीतर बारह योजन तक चले जाना। वहाँ तुम्हारे लिए नगर बन जायेगा। नैगम देव की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चयानुसार वैसा ही किया सो ठीक ही है, क्योंकि पुण्य के रहते हुए कौन मित्र नहीं हो जाता ?।।१९-२१।।
जो प्राप्त हुए वेग से उद्धत है, जिस पर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं और जिसके कानों के चमर निश्चल है ऐसा घोड़ा जब दौड़ने लगा तब मानो श्रीकृष्ण के भय से ही समुद्र दो भेदों को प्राप्त हो गया सो ठीक ही है, क्योंकि बुद्धि और शक्ति से युक्त मनुष्यों के द्वारा जल का (पक्ष में मूर्ख लोगों का )समूह भेद को प्राप्त हो ही जाता है।।२२-२३।।
उसी समय वहाँ श्रीकृष्ण तथा होनहार नेमिनाथ तीर्थंकर के पुण्य से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर नगरी की रचना की । जिसमें सबसे पहले उसने विधिपूर्वक मंगलों का मांगलिक स्थान और एक हजार शिखरों से सुशोभित देदीप्यमान एक बड़ा जिनमंन्दिर बनाया, फिर वप्र, कोट, परिखा, गोपुर तथा अट्टालिका आदि से सुशोभित,पुण्यात्मा जीवों से युक्त मनोहर नगरी बनाई । समुद्र अपनी बड़ी-बड़ी तरङ्गरूपी भुजाओं से उस नगरी के गोपुर का आलिङ्गन करता था, वह नगरी अपनी दीप्ति से देवपुरी की हँसी करती थी और द्वारावती उसका नाम था।।२४-२७।।
जिन्हें लक्ष्मी कटाक्ष उठा कर देख रही है ऐसे श्रीकृष्ण ने पिता वसुदेव तथा बड़े भाई बलदेव के साथ उस नगरी में प्रवेश किया और यादवों के साथ सुख से रहने लगे।।२८।। (उत्तरपुराण पर्व—७१, पृ. ३७६)