राजा पुहुपाल के हृदय में मैनासुंदरी के कुष्टीपति को याद कर गहरी वेदना हुआ करती थी। यद्यपि वे रानी से अपनी बात नहीं कह पाते थे क्योंकि रानी के और सामन्त मंत्रियों के मना करने के बावजूद उन्होंने अपनी प्यारी पुत्री को कुष्ठी वर के साथ विवाहा था फिर भी इस चिंता से राजा का शरीर दुर्बल हो गया और भोजनपान में भी अरुचि होने लगी।
तब एक दिन रानी निपुणसुंंदरी ने विनय से पूछा— ‘स्वामिन्! आपकी आंतरिक अशांति का क्या कारण है?’ राजा ने भी अपने हृदय की व्यथा को कह सुनाया, वे बोले— ‘प्रिये! मैनासुंदरी के बालहठ पर कुपित हो मैंने महान् अनर्थ कर डाला है अब मेरे मन को कथमपि चैन नहीं है। वह सुकुमारी पुत्री उस कुष्ठी के साथ आज कहाँ होगी? कैसे अपना समय निकालती होगी? इतना कहते हुये राजा के नेत्रों से अविरल अश्रु की धारा प्रवाहित हो गई। रानी निपुणसुंदरी अपने नाम के अनुसार ही पातिव्रत्य आदि गुणों की खान थी और विवेक संपन्न थी।
उन्होंने उस समय पति के दु:ख को, शोक को बढ़ाना उचित नहीं समझा प्रत्युत् नीतिपूर्ण मधुर वाक्यों से सान्त्वना देते हुए कहा— ‘‘हे स्वामिन्! संसार में पुत्र-पुत्रियों को सुखी-दु:खी करने वाले हम माता-पिता निमित्तमात्र ही हैं। उनके भाग्य में जो होता है, सो होकर ही रहता है। मैनासुंदरी ने पूर्व भव में जैसा कर्म संचित किया था और जिसके साथ उसका संयोग होना था सो भला कैसे टल सकता था? अत: अब आप चिंता छोड़कर अपने स्वास्थ्य की और अपने राज्य की संभाल कीजिये। यह कर्म बड़ा ही बलवान है। यह कभी राजा को रंक और रंक को भी राजा बना देता है।
इसके आश्रित हुए संसारी प्राणी अनेक प्रकार के नट जैसे स्वांग धर-धर घूम रहे हैं।’ इत्यादि प्रकार से समझाते हुए रानी ने पति से यह भी निवेदन किया कि— अब शांति के लिए प्रात: श्री जिनमंदिर में चलकर अपने को जिनेन्द्रदेव के चरणों की पूजा करनी चाहिए और किन्हीं दिगम्बर मुनिराज के चरण सानिध्य में बैठकर मन की व्यथा कहकर कुछ मैना के भविष्य के विषय में पूछना चाहिए। कदाचित् कोई अवधिज्ञानी मुनि मिल गये तो अपने को मैना के भविष्य का हाल मालूम हो जावेगा।’
स्वयं रानी को मैना के विषय में राजा से भी अधिक चिंता थी किन्तु उन्होंने समय पर कर्तव्य का पालन कर पति के शोक को हल्का किया और प्रात: स्नान आदि से निवृत्त हो मंदिर पहुँची, भगवान के दर्शन कर वहीं मंदिर में विराजमान मुनिराज के निकट पहुँचकर उन्हें नमोऽस्तु किया और पास में ही बैठ गई । ज्यों ही वे गुरुदेव से कुछ पूछना चाहती थीं कि उनकी दृष्टि पास में ही बैठे हुए एक युवा दंपत्ति पर पड़ी। उन्होंने तत्क्षण ही पहचान लिया कि— ‘यह मेरी पुत्री मैनासुंदरी है।’ ‘किन्तु यह पुरुष इसके साथ कौन है?’ वे उसे नहीं पहचान सकीं।
रानी का मन एकदम आकुल-व्याकुल हो उठा और उनके मन में अनेक भाव लहरें उठने लगी— ‘ओह! यह क्या हुआ? मेरी सुशीला कन्या मैना ने यह क्या किया? उस कुष्ठी पति को छोड़कर आज यह यहाँ किसके साथ बैठी है?…’ रानी के मुख पर विषाद और क्रोध की रेखाएँ खिंच गर्इं। वह घृणा, दु:ख और क्रोध भरी दृष्टि से उन्हें देखने लगी और उनकी आँखों से बरबस ही अश्रुधारा प्रवाहित हो चली। इसी मध्य मैनासुंदरी ने अपनी माता के चेहरे के विकृतरूप को देखकर तत्काल ही उनके अंतर्मन को समझ लिया। उसने तत्क्षण ही उठकर माता के चरणों में प्रणाम किया किन्तु माता ने उपेक्षा से मुख फिर लिया, यह देखकर वह दु:खी न होकर अपनी माता का संदेह निवारण करते हुए बोली— ‘हे मात:! इधर देखिए और मुझे आशीर्वाद दीजिए।
ये आपके ही जामाता श्रीपाल हैं जो कि विवाह के समय कुष्ठरोग से पीड़ित थे। इन्हीं के साथ आपने विधिपूर्वक मुझे विवाहा था। हे माँ! धर्म के प्रभाव से अशुभ कर्मों के दूर हो जाने से आज इनका सुवर्ण शरीर दिख रहा है।’ इतना सुनकर रानी के मन में कुछ शांति हुई किन्तु उनका संदेह पूर्णतया नहीं निकला था अत: वे बोलीं— ‘मैना तू क्या कह रही है? यह वही कुष्ठी श्रीपाल है, भला ऐसा कैसे मान लिया जाए?’ इतना सुनते ही श्रीपाल बोले— ‘माताजी! आप अपने हृदय के भ्रम को दूर कीजिए। आपकी पुत्री मैनासुंदरी महासती शिरोमणि है तथा सम्यक्त्व, शील आदि गुणों की खान है।
आपने ऐसी पुत्री को जन्म देकर अपने वंश को धन्य कर दिया है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि मैं वही श्रीपाल हूँ और मेरे सात सौ योद्धा भी कुष्ठ रोग से मुक्त हो चुके हैं। देखिए, अभी एक अंगूठे में किंचित् कुष्ठ शेष है जो कि मेरे सर्वांग के कुण्ठ का प्रमाण है।’ इतना सुनकर और श्रीपाल के एक अंगूठे में किंचित् कुष्ठ को देखकर रानी को विश्वास हो गया कि— ‘ये ही मेरे जामाता श्रीपाल हैं।’ तब उन्होंने स्नेह से आद्र्र हो पुत्री को अपने हृदय से लगा लिया। अब उनके आँखों में प्रेम के आँसू आ गये। कंठ रँध गया पुन: वे गद्गद स्वर से पूछने लगीं— ‘बेटी! तू पुण्यशालिनी है।
मुझे बता कि किस उपाय से तूने श्रीपाल के कुष्ठ को दूर किया है?’’ तब राजा श्रीपाल ने ही कहना शुरू किया— ‘माता! तुम्हारी पुत्री ने पहले तो अपने कोमल हाथों से मेरे घावों की बहुत कुछ मलहम पट्टी की, अंत में श्रीगुरु के मुख से उपदेश प्राप्त कर श्री सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान करके श्री जिनेन्द्र देव के अभिषेक का गंधोदक मेरे शरीर पर लगाया और मेरे साथियों के शरीर पर भी छिड़का। उस पवित्र गंधोदक के प्रसाद से ही हम सभी का कुष्ठ रोग नष्ट हो गया और हम लोेग पूर्ववत् स्वस्थ हो गये हैं।’ इतना सुनकर रानी के हर्ष का पार नहीं रहा और वे पुन: पुन: पुत्री और जामाता को आशीर्वाद देकर धर्म की प्रशंसा करते हुए तत्क्षण ही अपने महल में वापस आ गयीं।
राजा पुहुपाल को सारा समाचार सुना दिया। उसी क्षण राजा पुहुपाल भी पुत्री से मिलने के लिए आतुर हो उठे और जिन मंदिर आ गये। वहाँ आकर श्री जिनेन्द्रदेव की वंदना करके गुरु को नमस्कार किया। मैनासुंदरी भी पिता को देखते ही उठकर पास में आई और विनय भाव से पिता को प्रणाम किया। पिता ने स्नेहवश पुत्री को हृदय से लगा लिया और उनके नेत्रों से पश्चात्ताप से मिश्रित अश्रु गिरने लगे। इतने में श्रीपाल ने भी श्वसुर को प्रणाम किया। राजा ने श्रीपाल को भी अपने गले से लगाकर स्नेह व्यक्त किया पुन: पुत्री से बोले— ‘बेटी मैना! मैंने तुम्हारे साथ जो अन्याय किया है उससे मेरा हृदय सदैव पश्चात्ताप की अग्नि से झुलसता रहता है। मैं इस अपने अपराध की तेरे से क्षमा चाहता हूँ।
पुत्री मैना ने कहा— ‘पूज्य पिताजी! आप यह क्या कह रहे हैं? भला इसमें आपका क्या दोष? मेरे पूर्वकृत कर्मो का दोष था कि जो उस समय मेरे पति को कुष्ठ रोग का प्रकोप हुआ था।’ इत्यादि अनेक युक्तिपूर्ण वचनों से मैना ने पिता को धैर्य प्रदान किया। अनंतर राजा पुहुपाल ने मुनिराज से प्रश्न किया— ‘हे भगवन्! श्रीपाल का गलित कुष्ठ किस प्रकार दूर हुआ है? कृपया आप अपने दिव्यज्ञान से मेरा समाधान करें?’ मुनिराज ने भी राजा से कहना शुरू किया— ‘हे राजन्! आपकी पुत्री मैनासुंदरी सम्यग्दृष्टि है। इसने गुरुमुख से इस रोग की शांति का उपाय सिद्धचक्र विधान समझकर विधिवत् उसका अनुष्ठान करके अपने पति को स्वस्थ तो किया ही है, साथ ही जैनधर्म के महत्त्व को भी प्रगट कर दिखाया है।’
राजा ने गुरु के मुख से सारा वृत्तांत सुनकर राजा श्रीपाल का और मैनासुंदरी का बहुत ही सम्मान किया पुन: धर्म में श्रद्धालु होते हुए अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करने लगे। मैनासुंदरी ने पिता को साक्षात् धर्म का फल दिखलाने के लिए पुनरपि सिद्धचक्र का अनुष्ठान करके अपने पति के अंगूठे में शेष रहे किंचित् मात्र भी कुष्ठ में गंधोदक लगाया कि उसी क्षण वह अंगूठा भी कंचन जैसा चमकने लगा और वह शेष रहा कुष्ठ भी निर्मूल हो गया। इस प्रत्यक्ष चमत्कार को देखकर राजा ने कर्म सिद्धांत को अच्छी तरह स्वीकारा और धर्म के प्रति बहुत ही अनुरागी बन गए।