सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र की उपपाद शय्या से सुविधि महामुनि का जीव नवयौवन के रूप में ऐसे उठ कर बैठ गया कि मानों जैसे सोकर ही उठ कर बैठा हो। इंद्र के जन्म लेते ही अन्य देवगण ‘जय-जय’ शब्दों का उच्चारण करते हैं, आनन्दरूप बाजे बजने लगते हैं, तब इंद्र अपने अवधिज्ञान से अपनी उत्पत्ति को जानकर सामने खड़े हुए देवपरिवार को देखकर धर्म की प्रशंसा करते हैं- अहो! धर्म की महिमा अपरम्पार है कि जहाँ मनुष्यलोक से प्राणी इस स्वर्गलोक में आ जाता है। पुनः सर्वप्रथम इंद्र ने सरोवर में स्नान कर वस्त्रालंकारों को धारण कर अपने विमान के जिनमंदिर में प्रवेश किया।
भक्तिभाव से जिनप्रतिमाओं की वंदना की, भक्तिपूर्वक स्तोत्र पाठ किया, अनन्तर जिनबिंबों का अभिषेक-पूजन किया। इन्हें अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ प्राप्त थीं। बाईस सागर प्रमाण यहाँ की आयु थी। इनके अधिकार में एक इंद्रक विमान, पैंतीस बड़े-बड़े श्रेणीबद्ध विमान और एक सौ तेईस प्रकीर्णक विमान-ऐसे एक सौ उनसठ विमान थे। तेंतीस त्रायस्त्रिंश देव, पुत्र के समान थे। दश हजार सामानिक देव और चालीस हजार आत्मरक्ष देव थे।
तीन प्रकार की सभा में अन्तःपरिषद में एक सौ पच्चीस देव, मध्यमपरिषद में दो सौ पचास देव और बाह्यपरिषद में पाँच सौ देव थे। चारों दिशाओं की रक्षा करने वाले चार लोकपाल थे। इन अच्युतेन्द्र की आठ महादेवियाँ थीं। त्रेसठ बल्लभिका देवियाँ थी। एक-एक महादेवी ढाई सौ-ढाई सौ अन्य देवियों से घिरी रहती थीं। इस इंद्र की प्रत्येक देवी अपनी विक्रिया से दश लाख चौबीस हजार सुन्दर स्त्रीरूप बना सकती थी।
हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गंधर्व और नृत्यकारिणी के भेद से इंद्र की सेना में सात कक्षाएँ थीं। पहली सेना में बीस हजार हाथी थे, फिर आगे की कक्षाओं में दूनी-दूनी संख्या थी, इस प्रकार इंद्र की यह विशाल सेना थी। इस इंद्र की एक-एक देवी की तीन-तीन सभाएँ थीं। उनमें से पहली सभा में २५ अप्सराएँ थीं, दूसरी सभा में ५० एवं तीसरी सभा में १०० अप्सराएँ थीं। इस अच्युतेन्द्र का इंद्राणियों के साथ मैथुन मानसिक था।
ये बाईस हजार वर्षों में एक बार मानसिक आहार लेते थे। ग्यारह महिने मे एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे और इनके शरीर की अवगाहना तीन हाथ प्रमाण थी। ये इंद्र अपनी इंद्राणी और अनेक परिवार देवों के साथ भगवान के पंचकल्याणकों में जाकर अतिशय भक्ति किया करते थे। कभी-कभी इन्द्र की सभा में अप्सराओं के नृत्य हुआ करते थे, जिसमें तीर्थंकर भगवंतों के गुणानुवाद गाए जाते थे। इस तरह संगीत, नृत्य आदि के द्वारा मनोरंजन करते-कराते बहुत सा काल इंद्रराज का व्यतीत हो रहा था। ये अच्युतेन्द्र नंदीश्वर द्वीप में वर्ष में तीन बार आष्टान्हिक पर्व में पहुँचते थे।
वहाँ असंख्य देव परिकर के साथ मिलकर नंदीश्वर के बावन जिनमंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाओं का अभिषेक करके विशेष-संगीत, नृत्य आदि से चौबीस घण्टे अखण्ड पूजा करते थे। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ वहाँ विराजमान हैं। प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्रीदेवी, लक्ष्मीदेवी और श्रुतदेवी-सरस्वती देवी विराजमान रहती हैं तथा सर्वाण्ह यक्ष और सनत्कुमार यक्ष की मूर्तियाँ भी रहती हैं। इसी तरह आठ-आठ मंगल द्रव्य एक-एक प्रतिमाओं के गर्भगृह में रहते हैं जो कि प्रत्येक १०८-१०८ रहते हैं। कहा भी है-
सिरिदेवी सुददेवी, सव्वण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे, मंगलमट्ठविहमवि होदि।।
आठ दिन तक लगातार चारों निकायों के देव-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवगण वहाँ आठवें नंदीश्वर द्वीप में पूजा करते रहते हैं पुनः वहाँ पूजा पूर्ण कर वापसी में ढाई द्वीप के अंतर्गत सुदर्शनमेरु, विजयमेरु, अचलमेरु, मंदरमेरु और विद्युन्मालीमेरु की तीन-तीन प्रदक्षिणा देकर पूजा, भक्ति करके अपने-अपने स्वर्गों में चले जाते हैं। जम्बूद्वीप में सुदर्शनमेरु है जो कि विदेहक्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित है।
धातकीखण्ड में पूर्वधातकी खण्ड में विजयमेरु एवं पश्चिमधातकी खण्ड में अचलमेरु है। पुष्करार्ध द्वीप में पूर्व पुष्करार्ध में मंदरमेरु एवं पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु है। धातकी खण्ड में दक्षिण और उत्तर में इष्वाकार पर्वत होने से इसके पूर्वधातकीखण्ड और पश्चिमधातकीखण्ड ऐसे दो भेद हो गये हैं। ऐसे ही पुष्करद्वीप में बीचों-बीच में मानुषोत्तर पर्वत होने से उसके आधे भाग में कर्मभूमि है-मनुष्यों का अस्तित्व है और मानुषोत्तर से परे मनुष्यों का अस्तित्व नहीं है अतः वहाँ मात्र तिर्यंचों की भोगभूमि है।
मानुषोत्तर के इधर के भाग में दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वतों के होने से इस पुष्करार्ध के भी पूर्व-पश्चिम ऐसे दो भाग हो गये हैं। इन्हीं के पूर्व में मंदरमेरु एवं पश्चिम में विद्युन्माली मेरु हैं। प्रथम स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के इंद्र एवं देवगण अपनी इंद्राणी, देवी आदि के साथ मध्यलोक में आते रहते हैं और सुमेरु पर्वत से लेकर तेरहद्वीपों के ४५८ ऐसे अकृत्रिम जिनमंदिरों की वंदना किया करते हैं। इन अच्युत स्वर्ग से ऊपर के सभी देव ‘अहमिंद्र’ कहलाते हैं।
उनके न तो देवियाँ हैं न परिवारदेव ही हैं। वे अपने स्थान से ही अपने-अपने विमानों में स्थित जिनमंदिरों में विराजमान जिनबिंबों की पूजा करते हैं, यहाँ मध्यलोक में उनका आना-जाना नहीं है। इस प्रकार वह अच्युतेन्द्र अपने प्रतीन्द्र के साथ पूरे स्वर्ग के सुखों का अनुभव करके वहाँ जीवन भर जो जिनेन्द्रभक्ति-पूजा से महान् पुण्य अर्जित किया था उसके फलस्वरूप अपनी आयु के अंत में वहाँ से च्युत होकर यहाँ मध्यलोक में विदेह क्षेत्र में रानी श्रीकांता के गर्भ में आ गया और जन्म लेकर चक्रवर्ती ‘वज्रनाभि’ हो गया।