मुनिगणात्तप: संधारणं भाण्डागाराग्निप्रशमनवत्।।८।।
जिस प्रकार से भाण्डागार में अग्नि लग जाने पर उसको बुझाया ही जाता है चूँकि वह भाण्डागार बहुत ही उपकारी है। उसी प्रकार से अनेक व्रत शील से संपन्न मुनिगणों के तप में किसी निमित्त से विघ्न के उपस्थित हो जाने पर उसे दूरकर उन्हें उसी तप में संधारण करना साधु समाधि है।
एक समय राजा श्रेणिक भगवान् महावीर के समवसरण में जा रहे थे। मार्ग में उन्हें वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में एक मुनिराज दिखे। श्रेणिक ने उनकी वंदना की, परन्तु उनका मुख उस समय कुछ विकृत हो रहा था सो महाराजा श्रेणिक ने भगवान् के निकट पहुँच कर वंदना आदि करके श्री गौतम स्वामी से उन मुनि के विषय में जानकरी चाही। गौतम स्वामी बोले-श्रेणिक! वे मुनि चंपानगरी के राजा श्वेतवाहन हैं। इन्होंने विरक्त हो अपने पुत्र विमलवाहन को राज्य देकर दीक्षा ले ली। बहुत दिन मुनियों के साथ विहार कर ये परम तपस्वी अखंड संयमी होकर यहाँ आये हैं। ये दशधर्म में अतिशय रुचि रखते हैं अत: इनका ‘धर्मरुचि’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया है। एक महिने के उपवास के बाद आज ये नगर में भिक्षा के लिये गये थे। इन्हें देखकर इनके निकट ही तीन मनुष्य ऐसी चर्चा करने लगे। एक ने कहा-अहो! इनके सर्व लक्षण तो सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार साम्राज्यपद के हैं। पुन: ये भिक्षा के लिये क्यों भटक रहे हैं ? मालूम होता है निमित्तशास्त्र गलत है। दूसरे ने कहा-नहीं-नहीं, ये साम्राज्य को त्याग कर ऋषि हुये हैं, इन्होंने अपने लघु वयस्क पुत्र को राज्य दे दिया है, अत: निमित्त शास्त्र गलत नहीं है। इसी बीच तीसरा बोला उठा-‘अरे इसका तप पाप का कारण है अत: इससे क्या लाभ ? यह बड़ा दुरात्मा है। देखा ना! इसने निर्दय होकर अनभिज्ञ बालक को राज्यभार दे दिया और स्वार्थ सिद्धि के लिए यहाँ तप करने आया है। उधर मंत्री आदि ने उस बालक को सांकल से बाँध रखा है और राज्य का विभाग कर इच्छानुसार उपभोग कर रहे हैं।’
इस बात को सुनते ही मुनि का हृदय स्नेह और मान से भर गया अत: वे आहार न लेकर वापस आकर वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठ गये। बाह्य कारणों के मिलने से उनके अंत:करण में तीव्र अनुभाग वाले क्रोध कषाय का उदय हो रहा है। उन मंत्रियों के निग्रह के प्रति वे संरक्षानंद नामक रौद्र ध्यान में प्रविष्ट हो गये हैं। ‘यदि आगे अंतर्मुहूर्त तक ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरक आयु के बंध करने के योग्य हो जावेंगे।’’१ इसलिए हे श्रेणिक? तुम शीघ्र ही जाकर उन्हें समझा दो। महाराजा श्रेणिक वहाँ पहुँचकर देखते हैं तो उनकी भृकुटी तन रही हैं। वे बोले-‘हे साधो! शीघ्र ही यह अशुभ ध्यान छोड़ो, क्रोध रूपी अग्नि को शांत करो, मोह के जाल को दूर करो, मोक्ष के लिये कारणभूत जो संयम तुमने ले रखा है उसको फिर से धारण करो, यह स्त्री-पुत्र आदि का संबंध अनिष्टकर है, संसार को बढ़ाने वाला है।’ इत्यादि रूप से संबोधन के वाक्य सुनकर मुनिराज तत्क्षण ही शुभ ध्यान में आ गये पुन: परिणाम विशुद्धि करते हुए क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों को समाप्त कर दिया और उसी क्षण केवलज्ञानी हो गये। इंद्रादि देव स्वर्ग से उनके केवलज्ञान की पूजा करने के लिए आ गये सो राजा श्रेणिक ने भी उन सबके साथ ‘धर्मरुचि’ केवली की पूजा की। इसी का नाम है ‘साधु समाधि’। आगम के अनुरूप वचनों से मुनियों के धर्म के विघ्न को दूर कर उन्हें तप, संयम और ध्यान आदि में लगा देना न कि उनके छिद्र देख-देख कर दुनिया में कहते फिरना ।
दु:ख या उपसर्ग के समय मुनियों की रक्षा करना बहुत बड़ा कर्तव्य है। समय-समय पर देवों ने भी धर्मप्रेम से धर्म के आयतन ऐसे साधुओं के उपसर्ग को दूर किया है। यथा-
मगध देश में शालिग्राम नाम का एक गाँव था। किसी समय वहाँ पर संघ सहित नंदिवर्धन मुनिराज आये और उद्यान में ठहर गये। संघ आगमन के समाचार को पाते ही श्रावकजन दर्शन और पूजन के लिए उमड़ पड़े। अग्निभूति और वायुभूति नाम के दो भाई थे, वे ब्राह्मण थे, जातिमद और ज्ञान के मद से उन्मत्त हो रहे थे। वे भी मुनियों से वाद-विवाद करने के लिये वहाँ पर आ गये।
उन्हें सभा में देखकर एक सात्यकि नामक मुनि ने कहा कि हे विप्रों! आवो और गुरुदेव से कुछ पूछो। तभी एक ब्राह्म ने कहा कि ये दोनों इन मुनियों को वाद में जीतने के लिये आये हैं पुन: दूर ही क्यों बैठे हैं ? यह सुनकर वे दानों भाई गर्व से उठे और मुनिराज के पास आ गये। बोले कि-तू जानता है, बोल?
तब आचार्य नंदिवर्धन बोलते हैं कि-
आप दोनों कहाँ से आ रहे हैं ? क्या तुझे यह भी ज्ञान नहीं कि हम दोनों शालिग्राम से आये हैं ? आप इस ग्राम से आये हैं सो तो मैं जानता हूँ किन्तु मेरे कहने का यह अभिप्राय है कि इस अनादि संसार में घूमते हुये आप इस समय किस पर्याय से आये हैं ? इसे क्या और भी कोई जानता है या मैं ही जानूँ ?
अच्छा विप्रों! सुनो मैं इस बात को बताता हूँ ।
इस ग्राम की सीमा के पास वन में दो शृगाल साथ-साथ रहते थे। इसी गाँव में प्राभरक नामक एक किसान था। वह एक दिन अपने उपकरण खेत पर ही छोड़कर आ गया। उसी रात को खूब जोर से वर्षा शुरू हो गई जो कि सात दिन तक चलती रही। बेचारे भूख से पीड़ित हुये वे शृंगाल वर्षा के रुक जाने पर बाहर निकले और वर्षा से भीगे कीचड़ से सने हुये उन उपकरणों को खा लिया। खाते ही उनके उदर में भयंकर पीड़ा उठी, वर्षा और वायु से पीड़ित दोनों शृगाल अकामनिर्जरा कर मरे और यहीं ग्राम में सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र हो गये। अनंतर वह प्राभरक किसान अपने उपकरण ढूँढता हुआ खेत में जा पहुँचा। वहाँ उसने मरे हुए दोनों शृगालों को देखा। उन्हें घर लाकर उनकी खाल की मशवेंâ बनाई। वह किसान भी कुछ ही दिनों में मर गया जो कि अपने ही पुत्र का पुत्र हो गया। उस पुत्र को जातिस्मरण हो गया है कि जिससे वह गूँगा बनकर रहा है ‘‘मैं अपने पूर्वभव के पुत्र-पुत्रवधु को पिता और माता के रूप में बोलूँ ?’’ यदि तुम्हें इस पर विश्वास न हो तो वह किसान मेरी सभा में बैठा हुआ है उससे पूछ लो।
सब लोग उस प्राभरक किसान के पोते की तरफ देखने लगे कि वह भी इन वचनों को सुनकर मुनिराज के निकट आ गया। मुनिराज ने कहा-‘‘हे वत्स! इस संसार की ऐसी विचित्र दशा है कि वहाँ पर माता भी मरकर पत्नी हो जाती है और पत्नी भी माता बन जाती है, इत्यादि। अत: तुम विषाद को छोड़कर मौन तोड़ो और बोले।’’
मुनिराज के वचन सुनते ही वह हर्ष से रोमांचित हो उठा। उसने तत्क्षण ही भक्ति में विभोर होकर मुनि की तीन प्रदक्षिणायें दीं और मस्तक के बल उनके चरणों में गिर पड़ा। अनंतर आश्चर्यचकित हो जोर से बोल पड़ा-
‘हे भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं, यहाँ बैठे-बैठे ही आप लोक की समस्त स्थिति को देख रहे हैं। हे नाथ! मैं संसार समुद्र में डूब रहा हूँ, मुझे अपने हाथ का सहारा देकर गृहकूप से निकालिये। इत्यादि रूप से अनुनय-विनय करते हुए उसने अपने माता-पिता के रोते हुये भी मुनि के पास व्रतों को ग्रहण कर लिया। इस घटना से वहाँ के लोग बहुत ही प्रभावित हुये और पुन: बहुत से लोगो ने उसके घर जाकर शृगालों के खाल की दोनों मशकें देखीं जिससे सब ओर कलकल तथा आश्चर्य छा गया ।
उस समय तमाम लोगों ने उन ब्राह्मणों की हँसी की कि ये पशुओं का माँस खाने वाले शृगाल ब्राह्मण हुये हैं जो कि ‘‘सब कुछ ब्रह्म ही है’’ ऐसा ब्रह्माद्वैतवाद ग्रहण कर और हिंसा में धर्म मानकर मूढ़ जनता को भ्रम में डाल रहे हैं। अब यहाँ परम अहिंसक मुनियों से वाद-विवाद करने के लिये उद्यत हुये हैं। इस प्रकार से साधुओं की स्तुति और अपनी निन्दा सुनकर वे ब्राह्मण अत्यंत लज्जित और दु:खी हुये।
अनंतर रात्रि में वे नंगी तलवार लेकर अपने अपमान का बदला चुकाने के लिए घर से बाहर उसी उद्यान की तरफ आचार्य नंदिवर्धन की खोज करते हुये निकले। आचार्यदेव सायं को अपने संघ को वहाँ छोड़कर आप एक निर्जन, भयंकर श्मशान भूमि में आकर ध्यानस्थ खड़े हो गये थे। वे ब्राह्मण उन्हें ढूँढते हुये उसी श्मशान भूमि में आ पहुँचे और उन्होंने आचार्य देव को प्रतिमायोग से निश्चल देखा। उन्हें देखते ही वे प्राणी क्रोध में भभक कर बोले-
अरे पापाी, निर्लज्ज, नंगे, अब सभी भक्त आकर तेरी रक्षा करें। अरे मूढ़! देखता हूँ अब तू कहाँ जाएगा? हम लोग पृथ्वी के देवता, ब्राह्मण के अवतार, उनको तूने ये शृगाल थे ऐसा वैâसे कहा? इत्यादि रूप से क्रोध से बड़बड़ाते हुये उन दोनों ने एक साथ ही उन्हें मारने के लिये तलवार उठाई कि तत्क्षण ही यक्ष देव ने उन्हें वैसे के वैसे ही कीलित कर दिया। वे दोनों दुष्टात्मा ज्यों की त्यों खड़े रह गये। वहाँ शासनदेव ने साधु की रक्षा की भावना से उन दुष्टों को कीलित कर दिया।
प्रात:काल सूर्योदय होते ही भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी। इस दृश्य को देखकर सभी लोग इन दुष्टों को धिक्कारते हुये महामुनि की पूजा-स्तुति करने लगे। चतुर्विध संघ भी अपने गुरुदेव के चरण सान्निध्य में आ गया। इन अग्निभूति-वायुभूति के माता-पिता आदि कुटुम्बीजन भी वहाँ आ पहुँचे। वह सोमदेव ब्राह्मण अपनी पत्नी अग्निला सहित उन मुनिराज को प्रसन्न करने लगा, उनके पैर दबाने लगा, बार-बार उन्हें प्रणाम करने लगा, मीठे वचन कहकर उनकी सेवा करने लगा। उन दोनों ने कहा कि हे देव! ये मेरे दुष्ट पुत्र जीवित रहें, हे नाथ! क्रोध छोड़िये, हम सब परिवार आपके आज्ञाकारी हैं। उत्तर में मुनिनाथ ने कहा कि-
‘हे ब्राह्मण! मुनियों का क्या क्रोध है? जो तुम इस तरह कह रहे हो, हम तो सबके ऊपर दया सहित हैं। हमारे शत्रु-मित्र सब एक समान हैं।
अनंतर यक्ष प्रत्यक्ष में प्रकट होकर बोला-
‘अरे! क्या यह कार्य इस गुरु महाराज का है? तू ऐसा सबके बीच में क्यों बक रहा है? जो पापी साधुओं के प्रति घृणा करते हैं वे शीघ्र ही अनर्थ को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार दर्पण के सामने मनुष्य अपना जैसा मुख करता है वैसा ही देखता है। उसी प्रकार साधु को देखकर सामने जाना, खड़े होना आदि क्रियाओं को करना आदि जैसा भाव करता है, वैसा ही फल पाता है।
जो मुनि की हँसी करता है वह उसके बदले रोना प्राप्त करता है। जो उनके प्रति कठोर शब्द कहता है वह बदले में रोना प्राप्त करता है, जो मुनि को मारता है वह उसके बदले मरण प्राप्त करता है, जो मुनि से विद्वेष करता है वह उसके बदले पाप प्राप्त करता है। इस प्रकार साधु के प्रति निंदनीय कार्य से उसके बदले वैसे ही फल प्राप्त हो जाते हैं।
हे विप्र! ये तेरे पुत्र अपने ही द्वरा संचित पाप कर्मों से मेरे द्वारा कीलित किये गये हैं, साधु महाराज के द्वारा नहीं। ये साधु की हिंसा में उद्यत हुये दुष्ट मृत्यु को प्राप्त होंगे इसमें क्या हानि है ?
यक्ष के ऐसे कठोर शब्द सुनकर ब्राह्मण गिड़गिड़ाने लगा और पुत्रों की रक्षा हेतु अपनी छाती पीट-पीट कर रोने लगा ।
अनंतर मुनिराज ने कहा कि ये यक्ष! तुमने जिनशासन में वात्सल्य प्रगट किया है सो ठीक, अब इन दोनों के दोषों को क्षमा कर दो, चूँकि मेरे निमित्त से इनका वध उचित नहीं है। तत्पश्चात् ‘‘जैसी आज्ञा आपकी हो, वैसा ही करता हूँ’’ ऐसा कहकर यक्ष ने दोनों को छोड़ दिया। वे दोनों अग्निभूति, वायुभूति भक्तिपूर्वक गुरुदेव के पादमूल में पहुँचे, प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में बारंबार नमस्कार करके कृतकर्मों की क्षमायाचना करते हुये दीक्षा की याचना की। गुरुदेव ने भी उन्हें भद्र परिणामी हुआ देखकर तथा मुनिदीक्षा की चर्या उनके लिए कठिन समझकर उन्हें सम्यग्दर्शन सहित पाँच अणुव्रत दिये। वे दोनों भी गुरु की आज्ञानुसार गृहस्थधर्म का पालन करते हुये विवेकी श्रावक बन गये ।
इस प्रकार से साधुसमाधि भावना को भाने वाले जीव तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य संचय कर लेते हैं ।