श्रीपाल अपने हाथ में चंद्रहास धारण कर पैदल ही चले जा रहे थे। अनेक वन, पर्वत, गुफा, नदी, तालाब, ग्राम, नगर आदि का अतिक्रमण करते हुए वे वत्सनगर में आ गये। वहाँ की रमणीय शोभा को देखते हुए उस नगर के वन में पहुँचे। वहाँ देखा कि एक वृक्ष के नीचे एक पुरुष कुछ मंत्र जप रहा है किन्तु उसके मुखमंडल पर कुछ उदासीनता की रेखा है। पास में जाकर पूछा—‘मित्र! तुम किस मंत्र की सिद्धि कर रहे हो? और तुम्हें इसमें सफलता न मिलने का क्या कारण है?’ श्रीपाल के मधुर शब्द सुनकर वह सहसा चकित हुआ और जाप्य पूर्ण कर बोला— ‘महानुभाव! मेरे गुरु ने मुझे एक मंत्र दिया था मैं उसकी जप करके विद्या सिद्ध करना चाहता हॅूँ किन्तु मेरा मन एकाग्र न होने से यह विद्या सिद्धि मुझे कठिन हो रही है।…..’ पुन: वह बोला— ‘बंधु! आप बहुत ही पुण्यशाली दिख रहे हैं। लीजिए, इस मंत्र की आराधना आप कीजिए।’ श्रीपाल ने मंत्र लिया, विधि समझकर उसका जप शुरू कर दिया। आश्चर्य की बात है कि श्रीपाल का मन एकाग्र हो जाने से एक ही दिन में उन्हें विद्या सिद्ध हो गई। तब उस वीर ने श्रीपाल की प्रशंसा करते हुए निवेदन किया— ‘देव! आपके पुण्य से विद्या सिद्ध हुई है अत: यह विद्या आप रखिये और मुझे मेरे घर जाने की आज्ञा दीजिए।’ श्रीपाल ने कहा— ‘भाई! यह उचित नहीं, मैं पथिक हूँ यद्यपि मैंने यह विद्या सिद्ध की है फिर भी इसके स्वामी आप ही हैं। देखिये, पर के धन से कोई धनी नहीं बन सकता और न ही पर की विद्या से कोई विद्याधर बन सकता है।’ यद्यपि उसने बहुत कुछ आग्रह किया किन्तु श्रीपाल ने उसकी विद्या उसे दे दी। तब उसने कहा— ‘मित्र! यदि आप इस विद्या को स्वीकर नहीं करते हो तो मेरे पास अन्य दो विद्यायें हैं उन्हें आप अवश्य स्वीकार करो। उनके नाम हैं—जलतारिणी और शत्रुनिवारिणी।’ अतीव आग्रह से श्रीपाल ने उसके द्वारा दी गई दोनों विद्याओं को स्वीकार किया। अनंतर उसके विशेष आग्रह से उसके घर जाकर भोजन-पान आदि करके कुछ दिन विश्राम किया पुन: उसकी मित्रता से प्रसन्न होते हुए उससे विदा लेकर वहाँ से निकलकर आगे बढ़े और अनेक नगरों का भ्रमण करते हुए भृगुकच्छपुर (भरुच) नगर में आ गये। वहाँ आकर जिनमंदिर के दर्शन कर सिद्धचक्र की आराधना की। एक दिन वे उद्यान में एक वृक्ष के नीचे सो रहे थे, जब नींद खुली तो देखा कि— अनेक पुरुष हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये हुए उन्हें घेरे खड़े हुए हैं। तब निर्भयता से ही श्रीपाल ने पूछा— ‘तुम लोेग कौन हो? और यहाँ मेरे पास किस लिए आये हो?’ उन मनुष्यों में से एक प्रमुख ने कहा— ‘देव! कौशाम्बी नगरी का एक बहुत बड़ा व्यापारी जिसका नाम धवल सेठ है वह पाँच सौ जहाजों में माल भरकर देशांतरों में व्यापार के लिए जा रहा था। सहसा आँधी और तूफान के वेग से उसके जहाज समुद्र की खाड़ी में चले गये और वहाँ अटक गये हैं। अनेक उपायों के द्वारा भी सफलता न मिलने पर धवल सेठ ने एक निमित्तज्ञानी से उपाय पूछा। उन्होंने कहा कि ‘किसी गुणी मनुष्य की वहाँ बलि देनी होगी। चूँकि जल देवी ने आपके विमान कील दिये हैं।’ इस समस्या को लेकर सेठ यहाँ के राजा के पास गये थे। राजा ने कहा कि ‘आप अपने जहाजों के लिए किसी परदेशी की बलि कर सकते हैं।’ सो हम लोेगों को परदेशी पुरुष की खोज में घूमते हुए कई दिन निकल गये हैं। अब हमारे भाग्य से आज आपका दर्शन हुआ है। हम लोेग आप की शरण में आए हैं यदि हम खाली हाथ जाते हैं, तो मारे जायेंगे।’ इत्यादि वचन सुनकर श्रीपाल बोले— ‘ठीक है, अब तुम लोग डरो मत, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।’ वहाँ पहुँचकर श्रीपाल ने सारी स्थिति अवगत की। सेठ की आज्ञा से उन्हें स्नान कराकर वस्त्र-आभूषण पहनाये गये और बलि के लिए वहाँ लाकर खड़ा किया गया। हाथ में नंगी तलवार लेकर जल्लाद पहुँच गया, वह श्रीपाल की गरदन को धड़ से अलग करने वाला ही था कि श्रीपाल ने एकदम कड़ कर धवल सेठ को ललकारते हुए पूछा— ‘अरे सेठ! तुझे अपने जहाज चलवाना है या मनुष्य का वध? बोल तेरा क्या अभिप्राय है? मेरा बलिदान हँसी-खेल नहीं है। मैं देखता हूँ कौन वीर है जो मेरे सामने टिक सके?’ इतना सुनते ही सब लोग काँपने लगे और धवल सेठ घबरा गया। वह लड़खड़ाते स्वर में बोला— ‘मुझे तो अपने जहाज चलवाने हैं। हे वीर! हमें क्षमा कीजिए और इस विपत्ति से हमारी रक्षा कीजिए।’ तब श्रीपाल ने करुणा से प्रेरित होकर कहा— ‘ठीक, तुम लोेग अपने जहाजों को चलाने के लिए तैयार हो जाओ।’ जब सब लोग अपने-अपने जहाजों पर सवार हो गये, तब श्रीपाल ने पंचपरमेष्ठी के महामंत्र का स्मरण कर सिद्धचक्र का ध्यान किया और अपने हाथ से जहाजों को धक्का लगाया। उसी क्षण सभी जहाज पूर्ववत् गति से चलने लगे। सब लोगों ने श्रीपाल का ‘जय जयकार’ किया पुन: सभी ने मिलकर श्रीपाल से यात्रा में अपने साथ चलने के लिए प्रार्थना की। धवल सेठ के अतीव आग्रह से श्रीपाल ने कहा- ‘यदि आप अपनी कमाई का दशवाँ भाग मुझे देना स्वीकार करें तो मैं चल सकता हूँ।’ सेठ ने सहर्ष स्वीकार किया और बहुत सम्मान के साथ श्रीपाल को अपने जहाज में बिठा लिया। आकस्मिक एक दिन कुछ डाकुओं ने जहाज पर हमला किया। बहुत कुछ माल लूटकर और धवल सेठ को बाँधकर ले जाने लगे तब सबने आकर श्रीपाल से पुकार की। उस समय श्रीपाल ने अपनी सिंह गर्जना से डाकुओं को भयभीत कर धवल सेठ को छुड़ाया। अनंतर डाकुओं को क्षमा करके उन्हें सम्मान दिया। इससे प्रभावित हो करके डाकू लोग श्रीपाल से प्रसन्न हुए और उन्हें सात जहाज माल भरकर भेंट में दे दिये। अनंतर ये सभी यात्री सकुशल अपने जहाजों को लेकर हंसद्वीप आ गए।