अप्कायिक— जीवपरिहृतमुष्णं च जलम् अप्कायः प्रोच्यते। अप्कायो विद्यते यस्य स अप्कायिकः। अपः कायत्वेन या गृहीष्यति विग्रहगतिप्राप्तो जीवः स अप्जीवः कथ्यते। इतस्ततो विक्षिप्तं जलादिसित्तं वा प्रचुरभस्मप्राप्तं वा मनाव्तेजोमात्रं तेजःकथ्यते। भस्मादिकं तेजसा परित्यत्तं शरीरं तेजस्कायो निरूप्यते। तद्विराधने दोषो नास्ति, स्थावरकायनामकर्मोदयरहितत्वात् । तेजः कायत्वेन गृहीतं येन सः तेजस्कायिकः। विग्रहगतौ प्राप्तो जीवस्तेजोमध्येऽवतरिष्यन् तेजोजीवः प्रतिपाद्यते। वायुकायिकजीवसम्मूच्र्छनोचितो वायुर्वायुमात्रं वायुरुच्यते। वायुकायिकजीव—परिहृतः सदा विलोडितो वायुर्वायुकायः कथ्यते । वायुः कायत्वेन गृहीतो येन स वायुकायिकः कथ्यते। वायुं कायत्वेन गृहीतुं प्रस्थितो जीवो वायुजीव उच्यते। साद्र्रः छिन्नो भिन्नो र्मिदतो वा लतादिर्वनस्पतिरुच्यते। शुष्कादिर्वनस्पतिर्वनस्पति—कायः। जीवसहितो वृक्षादिर्वनस्पतिकायिकः। विग्रहगतौ सत्यां वनस्पतिर्जीवः वनस्पतिजीवो भण्यते। प्रत्येकं चतुर्षु भेदेषु मध्ये पृथिव्यादिकं कायत्वेन गृहीतवन्तो जीवा विग्रहगतिं प्राप्ताश्च प्राणिनः स्थावरा ज्ञाताव्याः, तेषामेव पृथिव्यादिस्थावरकायनामकर्मोदय—सद्भावात्, न तु पृथिव्यादयः पृथिवीकायादयच स्थावराः कथ्यन्ते, अजीवत्वात् कर्मोदयभावाभावाच्च।
पृथ्वी के छत्तीस भेद हैं-मिट्टी, रेत, कंकड़, पत्थर, शिला,नमक, लोहा, तांबा,रांगा, सीसा, चाँदी, सोना, हीरा, हरताल, हिंगुल, मनःशिला गेरू, तूतिया, अञ्जन, प्रवाल, झीरोलक, अभ्रक, गोमेद, राजवर्तमणि, पुलकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, वैडूर्यमणि, चन्द्रकात, जलकान्त, सूर्यकान्त, गैरिकमणि, चन्दनमणि, मरकतमणि, पुष्परागमणि, नीलमणि, विद्रुममणि आदि के भेद से पृथिवी के छत्तीस भेद हैं। ज्ञान (विवेक)पूर्वक मुनिगणों को इन जीवों की रक्षा करनी चाहिए।।१-५।। नदी से उत्पन्न रुक्ष, अंगवाली बालिका है । कठोर तीन, चार कोनों वाली शर्वâकरा कहलाती हैं। गोल पाषाण उपल कहलाता है, वृहत्पाषाण शिला है। बङ्ग को त्रपु कहते हैं, सौवीरांजन को अञ्जन, चक-चक करने वाली अभ्रबालुका को भरोलका कहते हैं । गोरोचन वर्णवाली गोमेद क्राकेतन मणि है। अतसी पुष्प के समान वर्णवाली राजवर्तमणि रुजक कहलाती है। प्रवालवर्ण पुलकमणि,अज्र् कहलाती है। स्वच्छस्वरूप स्फटिकमणि है। रोहित प्रभावाली पद्मरागमणि, मयूर के कण्ठ के समान वर्णवाली वैडूर्यमणि, पानी के समान वर्णवाली जलकान्तमणि,सूर्यसमप्रभावाली सूर्यकान्तमणि,गेरु के समान लाल रुधिराख्यमणि, चन्दनश्रीखण्ड के समान गन्ध और वर्णवाली चन्दनमणि और मरकतमणि को वर्वर कहते हैं। बगुले के समान वर्णवाली पुष्परागमणि है। कदलीपत्र वर्ण वाली नीलमणि या मोचमणि है। मसारगल्प कोमल पाषाणमणि हैं। मूंगे के समान वर्णवाली विद्रुममणि है। शर्करा, उपल, शिला, वङ्का और प्रवाल को छोड़कर शेष पृथिवी शुद्ध पृथ्वी का विकार है। शेष खरपृथ्वी के विकार हैं । इन्हीं पृथिवियों में आठ पृथिवियों का अन्तर्भाव हो जाता है।
शंका-वे आठ पृथिवियाँ कौन सी हैं ? उत्तर-मेरु आदि पर्वत, द्वीप, विमान, भवन, वेदिका, प्रतिमा, तोरण, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जम्बूवृक्ष, शाल्मलिवृक्ष,धातकीवृक्ष और समुद्र आदि भूमियाँ इनमें गर्भित हो जाती हैं। बिलोड़ा गया, इधर उधर फैलाया गया और वस्त्र से गालित (छाना हुआ) पानी जल कहा जाता है। जलकायिक जीवों से छोड़ा गया पानी व उष्ण पानी जलकाय कहा जाता है। जिसमें जल जीव रहता है उसे जलकायिक कहते हैं। जो आगे जलकायिक होगा अर्थात् जल पर्याय को ग्रहण करेगा, ऐसा विग्रह गति मेें रहने वाला जीव जलजीव कहलाता है। इधर-उधर फैली हुई या जिस पर जल सींRच दिया गया है या जिसका बहुभाग भस्म बन चुका है ऐसी अग्नि को अग्नि कहते हैं। अग्निजीव के द्वारा छोड़ी गई भस्म आदि अग्निकाय कहलाते हैं । इनकी विराधना में दोष नहीं होता, क्योंकि यह जीव रहित है, जिसमें अग्निजीव विद्यमान है, उसे अग्निकायिक कहते हैं। विग्रहगति को प्राप्त वह जीव अग्निजीव कहलाता है जिसके अग्नि नामकर्म का उदय है और जो आगे अग्निशरीर को ग्रहण करेगा। जिसमें वायुकायिक जीव आ सकता है ऐसी वायु को अर्थात् केवल वायु को वायु कहते हैें। वायुकायिक जीव के द्वारा छोड़ी गई, बीजना (पंखा) आदि से चलाई गई हवा वायुकाय कहलाती है। वायुजीव जिसमें मौजूद है, ऐसी वायु वायुकायिक कही जाती है। विग्रहगति को प्राप्त,वायु को शरीररूप से ग्रहण करने वाला जीव वायुजीव है। छेदी गई, भेदी गई या र्मिदत की गई गीली लता आदि वनस्पति है। सूखी वनस्पति जिसमें वनस्पति जीव नहीं है वनस्पतिकाय है। सजीववृक्ष आदि वनस्पतिकायिक है। विग्रहगतिवर्ती वह जीव वनस्पतिजीव कहलाता है जिसके वनस्पतिनामकर्म का उदय है तथा जो आगे वनस्पति को शरीर रूप से ग्रहण करेगा। प्रत्येक काय के चार भेदों में से अन्तिम दो, जैसे पृथिवी आदिक को कायरूप से ग्रहण किये हुए पृथिवीकायिक जीव तथा विग्रहगति को प्राप्त पृथिवीजीव स्थावर होते हैं,ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि उन्हीं के पृथिवी आदिक स्थावरकाय नामकर्म के उदय का सद्भाव है और पहले दो पृथिवी व पृथिवीकाय स्थावर नहीं कहे जाते, क्योंकि अजीव होने से उनके स्थावरनामकर्म के उदय का अभाव है।
(तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय—२ सूत्र १३, पृ. १९८ से २०० तक)