वालुगपुप्फगणामा याणविमाणाणि सक्कजुगलम्मि। सोमणसं सिरिरुक्खं सणक्कुमारिंददुदयम्मि।।४३८।।
बिंम्हदादिचउक्के याणविमाणाणि सव्वदो भद्दा। पीदिकरम्मकणामा मणोहरा होंति चत्तारि।।४३९।।
आणदपाणदइंदे लच्छीमादिंतिणामदो होदि। आरणकप्पिंददुगे याणविमाणं विमलणामं।।४४०।।
सोहम्मादिचउक्के कमसो अवसेसकप्पजुगलेसुं। होंति हु पुव्वुत्ताइं याणविमाणाणि पत्तेक्वं।।४४१।।
पाठान्तरम्।
एककं जोयणलक्खं पत्तेक्वं दीहवाससंजुत्ता। याणविमाणा दुविहा विक्किरियाए सहावेणं।।४४२।।
ते वक्किरियाजादा याणविमाणा विणासिणो होंति। अविणासिणो य णिच्चं सहावजादा परमरम्मा।।४४३।।
धुव्वंतधयवदाया विविहासणसयण पहुदिपरिपुण्णा। धूवघडेहिं जुत्ता चामरघंटादिकयसोहा।।४४४।।
वंदणमालारम्मा मुत्ताहलहेमदामरमणिज्जा। सुन्दरदुवारसहिदा वज्जकवाडुज्जला विरायंति।।४४५।।
सच्छाइं भायणाइं वत्थाभरणाइआइं दुविहाइं। होंति हु याणविमाणे विक्किरियाए सहावेणं।।४४६।।
विक्किरिया जणिदाइं विणासरूवाइं होंति सव्वाइं। वत्थाभरणादीया सहावजादाणि णिच्चाणिं।।४४७।।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार—७ पृ. ८३१-८३२) शक्रयुगल (सौधर्म व ईशान इन्द्र) में वालुक और पुष्पक नामक यान विमान तथा सानत्कुमारादि दो इन्द्रों में सौमनस और श्रीवृक्ष नामक यान विमान होते हैं।।४३८।। ब्रह्मेन्द्रादिक चार के सर्वतोभद्र, प्रीतिक (प्रीतिंकर), रम्यक और मनोहर नामक चार यान विमान होते हैं।।४३९।। आनत और प्राणत इन्द्र के लक्ष्मी मादिन्ति (?) नामक यान विमान तथा आरण कल्पेन्द्र युगल में विमल नामक यान विमान होते हैं।।४४०।। सोैधर्मादि चार में और शेष कल्पयुगलों में क्रम से प्रत्येक के पूर्वोक्त यान—विमान होते हैं।।४४१।। पाठान्तर।। इनमें से प्रत्येक विमान एक लाख योजन प्रमाण दीर्घता व व्यास से संयुक्त है। ये विमान दो प्रकार हैं, एक विक्रिया से उत्पन्न हुए और दूसरे स्वभाव से ।।४४२।। विक्रिया से उत्पन्न हुए वे यान—विमान विनश्चर और स्वभाव से उत्पन्न हुए वे परम रम्य यान विमान नित्य व अविनश्चर होते हैं।।४४३।। उक्त यान—विमान फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं से सहित, विविध आसन व शय्या आदि से परिपूर्ण, धूपघटों से युक्त,चामर एवं घंटादिक से शोभायमान, वंदनमालाओं से रमणीय, मुक्ताफल व सुवर्ण की मालाओं से सुशोभित, सुन्दर द्वारों से सहित,वङ्कामय कपाटोें से उज्ज्वल होते हुए विराजमान हैं।।४४४-४४५।। यान—विमान में स्वच्छ भाजन, वस़्त्र और आभरणादिक विक्रिया व स्वभाव से दो प्रकार के होते हैं।।४४६।। विक्रिया से उत्पन्न सब वस्राभरण विनश्वर और स्वभाव से उत्पन्न हुए ये सभी नित्य होते हैं।।४४७।।