‘‘जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्प और स्थावरकल्प ऐसे दो भेद किये हैं। जिनकल्प-जो उत्तम संहननधारनी हैं। जो पैर में कांटा चुभ जाने पर अथवा नेत्र में धूलि आदि पड़ जाने पर स्वयं नहीं निकालते हैं। यदि कोई निकाल देता है तो मौन रहते हैं। जलवर्षा होेने पर गमन रुक जाने से छह मास तक निराहार रहते हुए कायोत्सर्ग से स्थित हो जाते हैं। जो ग्यारह-अंगधारी हैं, धर्म अथवा शुक्लध्यान में तत्पर हैं, अशेष कषायों को छोड़ चुके हैं हैं, मौनव्रती और वंâदरा में निवास करने वाले हैं। जो बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेरिहत, नि:स्पृही यतिपति ‘जिन’ के समान हमेशा विचरण करते हैं। वे ही श्रमण जिनकल्प में स्थित हैं। स्थविरकल्प-जिनेन्द्रदेव ने अनगार साधुओं का स्थविरकल्प भी बताया है। पाँच प्रकार के चेल-वस्त्र का त्याग करना, अकिंचनवृत्ति धारण करना और प्रतिलेखन-पिच्छिका ग्रहण करना, पाँच महाव्रतों को धारण करना, स्थितिभोजन और एक भक्त करना, भक्ति सहित श्रावक के द्वारा दिया गया आहार करपात्र में ग्रहण करना, याचना करके भिक्षा नहीं लेना, बारह प्रकार के तपश्चरण में उद्युक्त रहना, छह प्रकार की आवश्यक क्रियाओं का हमेशा पालन करना, क्षितिशयन करना, शिर के केशों का लोंच करना, जिनवर की मुद्रा को धारण करना, संहनन की अपेक्षा से इस दुषमाकाल में पुर, नगर और ग्राम में निवास करना। ऐसी चर्या करने वाले साधु स्थविरकल्प में स्थित हैं। ये वही उपकरण ग्रहण करते हैं कि जिससे चर्या-चारित्र का भंग नहीं होवे, अपने योग्य पुस्तक आदि को ही ग्रहण करते हैं। ये स्थविरकल्पी साधु समुदाय-संघ सहित विहार करते हैं अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हुए भव्यों को धर्मोपदेश सुनाते हैं और शिष्यों का संग्रह तथा उनका पालन भी करते हैं। इस समय संहनन अतिहीन है, दु:षमकाल है और मन चंचल हे फिर भी वे धीर-वीर पुरुष ही हैं जो कि महाव्रत के भार को धारण करने में उत्साही हैं। पूर्व में-चतुर्थ काल में जिस शरीर से एक हजार वर्ष में जितने कर्मों की निर्जरा की जाती है, इस समय हीनसंहनन वाले शरीर से एक वर्ष में उतने ही कर्मों की निर्जरा हो जाती है।’’ इस प्रकार से जिनकल्प में स्थित साधु जिनकल्पी और स्थविरकल्प में स्थित स्थविरकल्पी कहलाते हैं। आज के युग में स्थविरकल्पी मुनि ही होते हैं, चूँकि उत्तमसंहनन नहीं है। अन्यत्र भी कहा है-
‘‘जो जितेन्द्रिय साधु सम्यक्त्व रत्न से विभूषित हैं, एकाक्षर के समान एकादशांग के ज्ञाता हैं, पाँव में लगे हुए कांटे को और लोचन में गिरी हुई रज को न स्वयं निकालते हैं न दूसरों को निकालने के लिए कहते हैं। निरंतर मौन रहते हैं, वङ्कावृष्ज्ञभनाराचसंहनन के धारक हैं, गिरि की गुफाओं में, वनों में, पर्वतों पर तथा नदियों के किनारे रहते हैं, वर्षाकाल में मार्ग को जीवों से पूर्ण समझकर षट्मास पर्यंत आहार रहित होकर कायोत्सर्ग धारण करते हैं, परिग्रह रहित, रत्नत्रय से विभूषित, मोक्षसाधन में निष्ठ और धर्म तथा शुक्लध्यान में निरत रहते हैं, जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो जिन भगवान के समान विहार करने वाले होते हैं ऐसे जिनकल्प-जिनेन्द्रदेव के सदृश संयम धारण करने वालों को जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्पी कहा है।’’ यहाँ पर ‘कल्पप्रत्यय२’ ईषत् असमाप्ति-किंचित् अपूर्णता के अर्थ में हुआ है।
जो जिनलिंग-नग्नमुद्रा के धारक हैं, सम्यक्त्व से जिनका हृदय क्षालित हैं, अट्ठाईस मूलगुणों के धारक हैं, ध्यान और अध्ययन में निरत हैं, पंचमहाव्रत और दर्शनाचार पाँच आचारों के पालन करने वलो हैं, दशधर्म से विभूषित, ब्रह्मचर्य में निष्ठ, बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह से विरक्त हैं, तृण-मणि शत्रु-मित्र आदि में समानभावी हैं, मोह अभिमान और उन्मत्तता से रहित हैं, धर्मोपदेश के समय तो बोलते हैं और शेष समय मौन रहते हैं, शास्त्र समुद्र के पारंगत हैं, इनमें से कितने ही अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा कितने ही मन:पर्यय ज्ञान भी होते हैं। अवधिज्ञान के पहले पाँच गुणवाली सुन्दर पिच्छी प्रतिलेखन के लिए धारण करते हैं। संघ के साथ-साथ विहार करते हैं, धर्मप्रभावना तथा उत्तम-उत्तम शिष्यों के रक्षण और वृद्ध साधुओं के रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं। इसीलिए इन्हें महर्षि लोग स्थविरकल्पी कहते हैं। ‘‘इस भीषण कलिकाल में हीन संहनन के होने से साधु स्थानीय नगर ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं। यद्यपि यह काल दुस्सह है, शरीर का संहनन हीन है, मन अत्यन्त चंचल है और मिथ्यात्व सारे संसार में विस्तीर्ण हो गया है। तो भी ये साधु संयम के पालन करने में तत्पर रहते हैं।’’ जो कर्म पूर्वकाल में हजार वर्ष में नष्ट किये जा सकते हैं, वे कलियुग में एक वर्ष में ही नष्ट किये जा सकते हैं। इसी से मोक्षाभिलाषी साधु संयमियों के योग्य पवित्र तथा सावद्यरहित पुस्तक आदि ग्रहण करते हैं। इस प्रकार सर्वपरिग्रहादि रहित स्थविरकल्प कहा जाता है और जो यह वस्त्र दण्ड पात्र कम्बल आदि धारण करना है वह स्थविरकल्प नहीं है किन्तु वह गृहस्थकल्प है। अत: यह श्वेताम्बरों की वस्त्रादि कल्पना मोक्ष हेतु न होकर इन्द्रिय सुखानुभव हेतु ही है। विशेष-वर्तमान में उत्तम संहनन का अभाव होने से जिनकल्पी साधु हो ही नहीं सकते हैं अत: सभी दिगम्बर साधु स्थविरकल्पी ही होते हैं। इन दो भेदों की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाते हैं।