श्रीपाल एवं धवल सेठ अपने पूर्ण परिकर के साथ हंसद्वीप में पहुँच गये। यहाँ के वन, उपवन एवं शहर की शोभा को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। इस द्वीप में रत्नों की अठारह बड़ी-बड़ी खानें थीं और छोटी तो अनगिनत थीं। यहाँ गजमोती भी अधिक मात्रा में मिलते थे। यहाँ के गगनचुम्बी प्रासाद यहाँ के वैभव को सूचित कर रहे थे। श्रीपाल शहर की शोभा देखते हुए जिनमंदिर को खोज रहे थे कि वे एक ऐसे मनोरम स्थान पर पहुँचे, जहाँ बहुत ऊँचा सुवर्ण निर्मित एक सहस्रकूट जिनमंदिर था। उसके उच्चतम शिखर को देखकर गद्गद होते हुए दूर से ही नमस्कार किया पुन: आगे बढ़कर देखते हैं कि उसके किवाड़ वङ्का के हैं और मजबूती से बंद हैं। दरवाजे पर बैठे हुए चौकीदारों से पूछते हैं— ‘इस मंदिर के किवाड़ क्यों बंद हैं?’ नौकरों ने हाथ जोड़कर कहा— ‘हे महानुभाव! इस मंदिर के द्वार शक्ति परीक्षा के लिए वङ्का के बनवाये गए हैं। कितने शूर वीर योद्धा आये किन्तु वे सब इन्हें खोलने में असमर्थ रहे हैं।’ इतना सुनकर श्रीपाल ने मन ही मन सिद्धचक्र का स्मरण किया और ‘भगवान की भक्ति में अचिन्त्य शक्ति हैं ऐसा सोचते हुए महामंत्र का स्मरण कर किवाड़ों में हाथ लगाया ही था कि भीषण शब्द के साथ वङ्काकपाट खुल गए। मानों वे किवाड़ श्रीपाल की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। श्रीपाल ने भी हर्ष से रोमांचित होकर अंदर प्रवेश किया-‘नि:सही, नि:सही, नि:सही’ उच्चारण करके ॐ नम: सिद्धेभ्य: मंत्रोच्चारणपूर्वक जिनेन्द्र के निकट पहुँचकर उनका दर्शन करते हुए साष्टांग नमस्कार किया अनंतर स्तोत्र पाठ में तन्मय हो गये।
इधर राजाज्ञा से नियुक्त पहरेदार कुछ तो वहीं ठहर गए और कुछ शीघ्र ही घोड़े पर चढ़कर राज दरबार में पहुँच कर बोले— ‘राजाधिराज! आप जिनकी प्रतीक्षा में थे, वे महापुरुष अपने यहाँ पधार चुके हैं और मंदिर के किवाड़ खोलकर जिनेन्द्रदेव की स्तुति कर रहे हैं।’ राजा कनककेतु हर्ष से विभोर हो पहरेदारों को उचित पारितोषिक देकर तत्क्षण ही अपने परिकर के साथ वहाँ आ गये। पहले भक्तिभाव से जिनेन्द्रदेव के दर्शन किए पुन: श्रीपाल का उचित आदर-सत्कार करते हुए उनसे कुशल-क्षेम पूछी। यद्यपि श्रीपाल के रूप और आकार को देखकर तथा मुनि के कहे अनुसार निमित्त फल को देखकर उनके क्षत्रिय पुत्र के बारे में नि:संदेह थे फिर भी उनका पूर्ण परिचय ज्ञात करने हेतु राजा ने पूछा— ‘हे कुमार! आप किस देश के रहने वाले हैं? और आपके यहाँ आने का कारण क्या है?’ श्रीपाल ने सोचा— ‘वर्तमान की व्यापारी के साथ की यात्रा की स्थिति से ये मेरे परिचय से क्या विश्वास प्राप्त कर सकेगें कि ये राजपुत्र हैं? अत: इन्हें अपना सही परिचय न देकर अपने को सामान्य व्यापारी बता देना चाहिए।’ इसी बीच आकाशमार्ग से वहाँ दो मुनिराज आ गये। उन्होंने जिनेन्द्रदेव की वंदना की। राजा ने अतीव भक्ति से गद्गद हो गुरु के चरणों में नमस्कार किया और मुनिराज के वहाँ बैठ जाने पर वे श्रीपाल के साथ गुरु के चरण सानिध्य में बैठ गये पुन: हाथ जोड़कर पूछने लगे— ‘ हे देव! ये महापुरुष कौन हैं? कि जिनके आते ही ये वङ्का किवाड़ खुल गये हैं?’ मुनिराज ने अवधिज्ञान से जानकर श्रीपाल का पूर्ण परिचय बता दिया। सुनकर राजा बहुत ही प्रसन्न हुए पुन: वे अपने साथ श्रीपाल को लेकर राजमहल में आ गये। उन्हें स्नान-भोजन आदि कराकर सुखपूर्वक बैठे और उनसे बोले— ‘हे कुमार! मैं इस हंसद्वीप का राजा कनककेतु हूँ। मेरी रानी का नाम कंचनमाला है। मेरे दो पुत्र एवं एक पुत्री है, पुत्री का नाम रयनमंजूषा है। पुत्री को विवाह योग्य देखकर मुझे उसके योग्य वर के लिए चिंता रहने लगी। तब एक दिन मैंने अवधिज्ञानी महामुनि के दर्शन कर उनसे पुत्री के वर के लिए प्रश्न किया। मुनिराज ने कहा कि जो पुरुष सहस्रकूट चैत्यालय के वङ्काकपाट को खोलेगा, वही तुम्हारी कन्या का पति होगा। तब से मैं आपकी प्रतीक्षा में था सो आज आपके दर्शन हुए हैं अत: अब आप मेरी कन्या को स्वीकार कर हमें कृतार्थ करें।’ राजा के मधुर और कर्णप्रिय वचन सुनकर श्रीपाल ने ‘ओम्’ कहकर अपनी स्वीकृति दे दी। राजा ने शुभ मुहूर्त में अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और श्रीपाल को बहुमूल्य रत्नादि भेंट में दिये। श्रीपाल कुछ दिन वहाँ रहे। धवल सेठ भी वहाँ हंसद्वीप में व्यापार करके अगणित रत्नसम्पदा हस्तगत कर श्रीपाल से मिले और आगे का कार्यक्रम बनाया।
श्रीपाल ने राजा से आज्ञा लेकर रयनमंजूषा को तथा अनेक हाथी, घोड़े, पदाति आदि लेकर जहाज पर आकर आगे के लिए चल दिये। श्रीपाल और रयनमंजूषा अपनी यात्रा में धर्मचर्चा करते हुए सुखपूर्वक रह रहे थे। कुछ दिनों बाद धवलसेठ रयनमंजूषा के रूपसौंदर्य को देखकर कामवासना से व्याकुल हो गया और उसे प्राप्त करने के लिए चिंतित हो उठा। मंत्रियों के अनेक समझाने के बावजूद वह अपने कदाग्रह को न छोड़ सका। अंत में उसके एक मंत्री ने धवल सेठ की इच्छा को पूरी करने के लिए षड्यंत्र बनाया। दूरवीक्षक पुरुष को बुलाकर एकान्त में समझा दिया गया। उसने दूसरे ही दिन अकस्मात् हल्ला मचा दिया— ‘अरे जहाज के यात्रियों! सावधान! सावधान!! कुछ सामने खतरा है। जहाजों में कोलाहल मच गया। तब श्रीपाल आगे बढ़कर ‘खतरा क्या है?’ देखने की भावना से जहाज के मस्तूल पर चढ़कर देखने लगे कि धूर्तों ने आकर झट से मस्तूल काट दिया, तत्क्षण ही श्रीपाल समुद्र में गिर पड़े। चारों तरफ हाहाकार मच गया। रयनमंजूषा को पति के समुद्र में गिरने का समाचार मिलते ही वह र्मूिच्छत हो गिर पड़ी। दासियों के उपचार से सचेत हुई तो वह जहाज में ही अनाथ जैसी होकर करुण विलाप करने लगी। धवल सेठ यद्यपि अपनी मनोकामना को सफल होता देख अंतरंग में खुश था फिर भी बाहर से उसने भी हाहाकार करते हुए श्रीपाल के मरने का दु:ख मनाना शुरू कर दिया। पुन: वह रयनमंजूषा के पास आकर उसे समझाने लगा और सहानुभूति दिखाने लगा। रयनमंजूषा भी विवेकशील थी वह विचार करने लगी— ‘कर्मों की गति विचित्र है पता नहीं समुद्र के अथाह जल में मेरे पति जीवित बचे हैं या नहीं? जो भी हो, जिस सिद्धचक्र की आराधना के बल से पूर्व में पतिदेव कुष्ठ रोग से मुक्त हुए थे आज हमें भी उन्हीं सिद्धों की अरिहंतों की, तथा पंचपरमेष्ठी मंत्रों की शरण लेनी चाहिए।’ इसी प्रकार दो-चार दिवस व्यतीत हो गये।