संसार दु:खन्नित्यभीरुता संवेग:।।५।।
शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकार के दु:ख हैं। इनसे तथा प्रिय वियोग, अप्रिय संयोग और इष्ट के अलाभ आदि रूप सांसारिक दु:खों से नित्य ही भयभीत रहना संवेग है। हमेशा संसार और शरीर के स्वरूप का विचार करते रहने से यह संवेग भाव उत्पन्न होता है। श्री उमास्वामी आचार्य कहते हैं-
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थं।
संसार और शरीर के स्वभाव का चिंतवन करना संवेग और वैराग्य के लिये होता है।
संसरणं संसार-संसार में चतुर्गतियों में परिभ्रमण करने का नाम संसार है। परिवर्तन के पाँच भेद होते हैं-द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन। इन पंच परिवर्तन के स्वरूप का चिंतवन करना। इस अनादि संसार में अनंतानंत काल व्यतीत हो चुका है, सभी के साथ अपना संबंध हो चुका है, कोई ऐसा जीव नहीं होगा कि जो मेरा माता-पिता न हुआ हो अथवा पुत्र, स्त्री, मित्र या शत्रु न बना हो पुन: किसको अपना समझना और किसको पराया। जिस समय श्री रामचंद वन में जाने को तैयार हुए उस समय पतिव्रता सीता ने पति के साथ वन में विचरण कर वन के दु:खों को कुछ नहीं गिना तथा रामचंद्र जी भी सीताहरण के प्रसंग में अतीव व्याकुल हुये थे। लाखों उपायों के द्वारा युद्ध में रावण को समाप्त कर सीता को वापस लाये किन्तुु जिस समय प्रजा के किचित् मात्र आरोप से सीता को निर्जन वन में छुड़वाया, उस समय वे अपने कर्तव्य को सीता के प्रेम को, सब कुछ भूल गये। यदि वे चाहते तो उसी समय अग्निपरीक्षा आदि के द्वारा सीता को निर्दोष सिद्ध कर देते। इतना सब कुछ होने पर सती सीता ने रामचंद्र को दोष न देकर अपने भाग्य को ही दोषी ठहराया और संसार के स्वरूप का विचार करते हुये अंत में दिव्य परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त कर रामचंद्र के अनेकों अनुनय-विनय करने पर भी सर्वसुख वैभव को ठुकराकर आर्यिका दीक्षा ले ली।
किसी समय सनत्कुमार चक्रवर्ती के रूप की प्रसंशा सुनकर दो देव मध्यलोक में आये। पहले छिपकर उनके रूप को देखकर प्रसन्न हुये। अनंतर द्वारपाल से राजा से मिलने को कहा, राजाज्ञा पाकर सभा में पहुँचे, तब उन्होने कहा-महाराज! कुछ देर पहले आपका जो रूप था सो अब नहीं रहा। सभी ने पूछ