अमृतर्विषणी टीका यहां विशेष अर्थ का विवेचन करते हैं—
प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत— श्रावकों को प्रात:काल देवपूजापूर्वक सामायिक करना चाहिये। देवपूजा सहित सामायिक— पूजामुख विधि करके विधिवत् पंचामृत अभिषेक करे, अनंतर नवदेवता पूजा आदि पूजायें करके पूजा अन्त्यविधि करे। यही श्रावक—श्राविकाओं की प्रात:कालीन सामायिक है। भावसंग्रह (संस्कृत) ग्रंथ में यही विधि बतलाई गई है। वह श्रावकों के सामायिक के प्रकरण में ली गई है और वहाँ एक पंक्ति आई है कि—‘‘देवपूजां बिना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया।’’देवपूजा के बिना श्रावकों की सामायिक क्रिया दूर ही है अर्थात् पूर्ण नहीं होती है। अत: इस विधि के अनुसार पूजा करके सामायिक कर सकते हैं।