पार्श्वस्थ, कुशील, ससंक्त, अवसंज्ञ और मृगचारित्र ये मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र में नियुक्त नहीं है और मन्दसंवेगी है।’’
पार्श्वस्थ – ‘पार्श्व तिष्ठतीति पार्श्वस्थ:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संयत के गुणों की अपेक्षा पास में-निकट में रहता है वह पार्श्वस्थ है। ‘‘जो मुनि वसतिकाओं में आसक्त रहता है, मोह की बहुलता है, रातदिन उपकरणों के बनाने में लगा रहता है, असंयतजनों की सेवा करता है और असंयतजनों से दूर रहता है वह पार्श्वस्थ है।’’ अर्थात् यह संयम मार्ग के समीप ही रहता है, यद्यपि यह एकान्त से असंयमी नहीं है परन्तु निरतिचार संयम मार्ग का पालन भी नहीं करता है। निषिद्ध स्थानों में आहार लेता है, हमेशा एक ही वसतिका में रहता है, एक ही संस्तर में हमेशा शयन करता है, एक ही क्षेत्र में रहता है। गृहस्थों के घर में अपनी बैैठक लगाता है। गृहस्थोपकरणों से अपनी शौचादि क्रिया करता है, जिसका शोधन अशक्य है अथवा बिना शोधी हुई वस्तु को ग्रहण करता है। सुईं, केची, नख, छेदने का शस्त्र, चीमटा, उस्तरा तीक्ष्ण करने का पत्थर रखता है। कर्णमल निकालने का साधन इन वस्तुओं को जो ग्रहण करता है, सीना, धोना, रंगाना इत्यादि कार्यों में तत्पर रहता है वह पाश्र्वस्थ मुनि हैं।’’
कुशील –जिसका आचरण अथवा स्वभाव कुत्सित है वह कुशीलमुनि हैं। यह क्रोधादि कषायों से कलुषित रहता है, व्रत, गुण और शील से हीन रहता है और संघ का अपयश करने में कुशल होता है।
संसक्त –जो असंयत के गुणों में अतिशय आसक्त रहता है, वह संसक्त है। यह आहार आदि की लम्पटता से वैद्यक, मंत्र, ज्योतिषी आदि द्वारा अपनी कुशलता दिखाने में लगा रहता है, राजादिकों की सेवा करने में तत्पर रहता है।
अवसंज्ञ – जिनके सम्यग्दर्शन आदि संज्ञा अपगत-विनष्ट हो गई है वह अवसंज्ञ मुनि है। यह चारित्र आदि गुणों से शून्य है, जिनवचनों का भाव न समझने से यह चारित्रादि से भ्रष्ट है। तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी है, इनके मन में सांसारिक सुख की इच्छा लगी हुई है।
मृगचरित्र –मृग के समान-पशु के समान जिनका आचरण है वे मृगचरित्र कहलाते हैं। यह मुनि आचार्य के उपदेश को नहीं मानता है, स्वच्छंदप्रवृत्ति करता है, अकेला विचरण करता है, जिनसूत्र में दूषण लगाता है, तप सूत्रादि में अविनीत है और धैर्यरहित है।’’ अर्थात् ‘‘जिनसूत्र में दूषण लगाते हैं-केची से केश निकालना ही योग्य, ऐसा कहते हैं। केशलोंच करने से आत्मविराधना होती है। सचित्त तृण पर बैठने पर भी मूलगुण पाला जाता है। उद्देशादिक दोष्ज्ञसहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है, ग्राम में आहार के लिए जाने से जीवविराधना होती है अत: वसतिका में ही भोजन करना चाहिए। इस प्रकार उत्सूत्र भाषण करने वाले को मृगचरित्र कहते हैं।’’ ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थिर नहीं रहते हैं। इनको संसार का भय नहीं है, ये तीर्थ और धर्म आदि में हर्षयुक्त नहीं होते हैं, अत: ये वंदनीय नहीं हैं।
सो ही कहा है- ‘‘ये पार्श्वस्थ आदि साधु दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनकी विनय से हमेशा ‘पार्श्वस्थ’-दूर रहते हैं, इसलिए ये वंदनीय नहीं है। ये हमेशा गुणधरों के छिद्रों को देखने वाले हैं-संयतजनों के दोषों को प्रगट करने वाले हैं, इसीलिए ये अवंद्य हैं तथा इनसे अतिरिक्त अन्य पाखंडी साधु भी वंदनीय नहीं है।’’
विशेष –ये पाँचों प्रकार के मुनि दिगम्बर होते हुए भी दोषसहित चारित्र वाले हैं। इसलिए ये नमस्कार के लिए या संगति के लिए निषिद्ध माने गये हैं।