१२-कुण्डलुपर के राज मकरकेतु की पुत्री चित्ररेखा के साथ श्रीपाल का विवाह
एवं कंचनपुर में राजा वङ्कासेन की ९०० पुत्रियों के साथ श्रीपाल विवाह
राजा श्रीपाल रयनमंजूषा और गुणमाला के साथ बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे कि द्वारपाल के द्वारा आज्ञा लेकर प्रवेश कराया गया एक दूत आकर प्रणाम करके निवेदन करता है— ‘देव! यहाँ से कुछ ही दूर कुण्डनपुर के राजा मकरकेतु अपनी राजधानी में हैं। उनकी रानी कर्पूर तिलका की कन्या चित्ररेखा के बारे में अवधिज्ञानी महामुनि ने बतलाया है कि ‘आप ही उसके पति होंगे।’ इसीलिए राजा ने मुझे यहाँ आपके पास भेजा है अत: आप वहाँ पधारकर कन्या के मनोरथ को सफल कीजिये।’ दूत से शुभ समाचार प्राप्त कर श्रीपाल अपनी रानियों से स्वीकृति लेकर कुंडनपुर के बगीचे में पहुँच गये। राजा समाचार मिलते ही वहाँ आये, कुमार की अगवानी कर उन्हें आदरपूर्वक अपने नगर में ले आये पुन: श्रीपाल से उनके कुल-गोत्र आदि का परिचय ज्ञाना कर शुभमुहूर्त में कन्या का विवाह कर दिया। दहेज में अनेक देश, नगर, सेना और रत्न आदि प्रदान किये। श्रीपाल कुछ दिन वहाँ चित्ररेखा पत्नी के साथ रहे थे कि एक दिन एक दूत के द्वारा पूर्व सदृश ही समाचार विदित कर कंचनपुर पहँुचे। वहाँ के राजा वङ्कासेन ने उसका स्वागत किया। उनकी रानी कंचनमाला के सुशील, गंधर्व, यशोधर और विवेक ये चार पुत्र थे तथा विलासमती आदि नौ सौ पुत्रियाँ थीं। निमित्तज्ञानी ने ‘इन कन्याओं का पति श्रीपाल होगा’, ऐसा कहा था। उसी के अनुसार राजा ने शुभमुहूर्त में इन कन्याओं का विवाह श्रीपाल के साथ कर दिया।
कुंकुमपुर के राजा यशसेन की सोलह सौ कन्याओं के साथ श्रीपाल का विवाह एवं अन्य हजारों कन्याओं के साथ पाणिग्रहण श्रीपाल वहीं पर अपनी नौ सौ पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रह रहे थे। इसी बीच एक दूत के द्वारा समाचार विदित कर वे कुंकुमपुर पहुँच गये। वहाँ के राजा यशसेन के गुणमाला आदि चौरासी रानियाँ थीं। इनके स्वर्णबिंब आदि नाम वाले पाँच राजपुत्र थे और शृगारगौरी आदि सोलह सौ राजपुत्रियाँ थीं। इन राजकुमारियों में आठ पुत्रियाँ प्रधान थीं। जिनकी भिन्न-भिन्न आठ समस्यायें थीं। वहाँ पहुँचकर श्रीपाल ने इन आठों की समस्याओं का समाधान कर दिया। तब राजा ने अपनी सोलह सौ कन्याओं का विवाह श्रीपाल के साथ कर दिया। अनेक ग्राम-नगर आदि को दहेज में प्राप्त कर श्रीपाल कुछ दिनों तक वहीं रहे। एक दिन श्रीपाल ने राजा से अपने वापस जाने की स्वीकृति माँगी, तब राजा ने सभी कन्याओं को श्रीपाल के साथ विदा कर दिया। श्रीपाल सभी को साथ लेकर कंचनपुर आ गये पुन: वहाँ पर भी अपने श्वसुर वङ्कासेन से विदाई लेकर नौ सौ रानियों के साथ कुंडनपुर आये। वहाँ से चित्ररेखा को साथ लेकर वहाँ से भी चल पड़े। मार्ग में अनेक देश की अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया। जिनमें कोकन देश के पुण्डरीक पुर की दो हजार कन्यायें, मेवाड़ उदयपुर की एक सौ कन्यायें एवं तैलंगदेश की एक हजार कन्यायें थीं। इस प्रकार वे सभी पत्नियों को साथ में लेकर कुंकुम द्वीप आ गये। वहीं पर रयनमंजूषा एवं गुणमाला रहती थीं। श्रीपाल ने बहुत दिनों तक वहीं विश्राम किया। हजारों पत्नियों के बीच सुख से रहते हुए उनका बहुत सा समय व्यतीत हो गया जिसका उन्हें पता भी नहीं लग सका।
राज श्रीपाल को अपनी प्रथम पटनी मैना सुन्दरी का स्मरण एवं घर के लिए प्रस्थान एक समय रात्रि में श्रीपाल सुखपूर्वक अपनी शय्या पर शयन कर रहे थे कि अकस्मात् उनकी निंद्रा भंग हो गई और अपनी प्रथम पत्नी सती मैनासुंदरी का स्मरण हो आया। उन्हें यह भी स्मरण हो आया कि मैंने मैनासुंदरी से बारह वर्ष बाद मिलने की प्रतिज्ञा की थी, अब बारह वर्ष पूर्ण होने में कुछ ही दिन शेष रह गये हैं। ‘अब हमें अपने निश्चित समय पर अवश्य पहुँचना चाहिये।’ ऐसा विचार आते ही श्रीपाल के स्मृति पटल पर सारी पूर्व की घटनाएँ ज्यों की त्यों आ गर्इं। सारी बातों का स्मरण करते हुए उनकी शेष रात्रि व्यतीत हो गई। धर्म का ही सब फल मुझे मिला है। ऐसा निश्चय कर नित्य क्रिया से निवृत्त हो भगवान के मंदिर में पहुँचकर पूजा की। तत्पश्चात् अपने श्वसुर गुणमाला के पिता के पास पहुँचकर उनसे अपने देश जाने के लिए स्वीकृति माँगी। बहुत कुछ मना करने के बाद भी जब राजा ने देखा कि— ‘अब इन्हें रोकना संभव नहीं है।’ तब उन्होंने स्वीकृति दे दी और विदाई के समय सभी कन्याओं को एकत्रित करके उनसे बोले— ‘पुत्रियो! तुम्हें जानकर यह प्रसन्नता होगी कि तुम्हारा पति अत्यंत तेजस्वी, धीर वीर एवं कोटिभट है। तुम सभी अवश्य ही पूर्व जन्म में उत्तम पुण्य संचित किया होगा कि जिससे तुम्हें ऐसा वर मिला है। तुम सभी कन्यायें मन-वचन- काय से इनकी आज्ञा पालन करना और अपनी सास के पास पहुँचकर उनकी सेवा करना तथा वहाँ पर स्थित मैनासुंदरी को अपनी बड़ी बहन समझकर उनको बहुत सम्मान देना।’ इत्यादि प्रकार से पिता की शिक्षा प्राप्त कर सभी कन्यायें प्रसन्न हुर्इं और पिता को तथा माता को प्रणाम कर उनकी आज्ञा लेकर पतिदेव के साथ वहाँ से रवाना हो गर्इं। सर्व रानियों के साथ अनेक सेना और परिकर से घिरे हुए श्रीपाल सोरठ देश आ गये। वहाँ के राजा ने अपनी पाँच सौ कन्याओं का विवाह श्रीपाल के साथ कर दिया। इसके पश्चात् उधर ही गुजरात प्रदेश के राजा ने भी अपनी पाँच सौ कन्याओं को श्रीपाल से ब्याह दिया। इसके बाद महाराष्ट्र देश में चार सौ और वैराट देश में दो सौ राजपुत्रियों को प्राप्त कर आगे बढ़े।
श्रीपाल की निद्रा भंग, रात्रि में ही गुप्त रूप में महल में प्रवेश इस प्रकार अनेक देश की राजपुत्रियों से श्रीपाल के विवाह संबंध हुए थे। उस समय श्रीपाल की रानियाँ आठ हजार (८०००) हो गई थीं तथा उनके साथ उस समय बहुत बड़ी सेना थी। विपुल विभूति से सहित हुए श्रीपाल अपने श्वसुर के नगर उज्जैन के बाहर आकर बगीचे में ठहर गये। उनकी विराट सेना ने नगर के चारों डेरा डाल दिया, शाम का समय था। नगर के लोग कोलाहल सुनकर एकदम चिंतित होकर राजा के पास आ गये और बोले— ‘महाराज! हम लोगों की रक्षा कीजिए। न जाने किस देश का राजा बहुत बड़ी सेना लेकर आकर नगर के चारों ओर से घेरकर ठहर गया है।’ राजा पुहुपाल ने शीघ्र ही मंत्रियों को बुलाकर मंत्रणा की और अपनी सेना को तैयार होने का आदेश देकर रात्रि में विश्राम के लिए स्वयं अपने अंत:पुर में आ गये।
मैनासुन्दरी का अपनी सासु के साथ वार्तालाप इधर श्रीपाल भी अपनी सेना को विश्राम का आदेश देकर स्वयं शयन कक्ष में चले गये किन्तु उन्हें नींद नहीं आई, वे सोचने लगे— ‘यहाँ से निकलते समय मैंने जो अपनी प्रिया मैनासुंदरी को बारह वर्ष का समय दिया था उसका आज अंतिम दिन है। यदि मैं आज ही रात्रि में उससे नहीं मिला तो वह प्रात:काल ही जिनदीक्षा धारण कर लेगी पुन: इतनी जल्दी करके मेरा यहाँ आना किस काम का होगा? और मैं भी उसके वियोग में कैसे जीवित रह सकूगा?’ इत्यादि प्रकार से सोचते हुए श्रीपाल की प्राय: रात्रि व्यतीत होने वाली थी। वे अंतिम प्रहर में उठे और गुप्तरूप से अपने महल की ओर चल पड़े। सीधे वे माता कुंदप्रभा के द्वार पर आ गये। महल से वार्तालाप की ध्वनि आ रही थी। श्रीपाल वहीं द्वार पर खड़े हो गये और चुपचाप बातें सुनने लगे।