तृतीय अतिथिसंविभागव्रत में दान के चार भेद माने हैं—
आहार दान औषधी दान, और शास्त्रदान आवास दान।
ये अतिथी संविभाग व्रत के, चउ भेदरूप हैं चार दान।।
प्रासुक भोजन औषधियों से, श्रावकजन मुनि को स्वस्थ करे।
पिच्छी शास्त्रादी दे उनको, वसती दे निज को धन्य करें।।
अर्थ—आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान अतिथिसंविभाग व्रत के ये चार भेद कहे हैं श्रावक मुनि को प्रासुक भोजन और शुद्ध औषधियों को देकर स्वस्थ करें तथा पिच्छी कमंडलु, शास्त्र आदि देकर व वसतिका देकर अपने जीवन को धन्य कर लेवें। चार दान में प्रसिद्ध जनों की कथाये —
(१) राजा श्रीषेण की कथा (आहार दान में) रत्नपुर नगर के राजा श्रीषेण अपनी रानी सिंहनंदिता और अनिंदिता के साथ सुखपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे। उनके इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन दो पुत्र थे। किसी एक दिन राजा ने घर पर आये हुए आदित्यगति और अरिञ्जय नाम के दो चारण मुनियों का पड़गाहन कर उन्हें भक्तिपूर्वक आहार दान दिया। पात्र विशेष होने से देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि की। राजा ने उस आहार दान के प्रभाव से उत्तरकुरु के उत्तम भोगभूमि की आयु बांध ली। किसी समय अनन्तमती नाम की एक साधारण महिला के लिये इन्द्रसेन ओर उपेन्द्रसेन दोनों भाई आपस में युद्ध करने लगे। राजा के रोकने पर भी वे नहीं माने तब राजा ने दु:खी होकर विषपुष्प सूंघ कर मरण प्राप्त कर लिया। किन्तु पूर्व के आहारदान के प्रभाव से वे उत्तरकुरु भोगभूमि में चले गये। कालांतर में यही श्रीषेण सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ और पांचवे चक्रवर्ती हुये हैं।
(२) वृषभसेना की कथा (औषधि दान में) किेसी समय मुनिदत्त योगिराज महल के पास एक गढ्ढे में ध्यान में लीन थे। नौकरानी ने उन्हें हटाना चाहा। जब वे नहीं उठे तब उसने सारा कचरा इकट्ठा करके मुनि पर डाल दिया। प्रात: राजा ने वहां से मुनि को निकाल कर विनय से सेवा की। उस समय नौकरानी नागश्री ने भी पश्चात्ताप करके मुनि के कष्ट को दूर करने हेतु उनकी औषधि की और मुनि की भरपूर सेवा की। अन्त में मरकर यह वृषभसेना हुई, जिसके स्नान के जल से सभी प्रकार के रोग और विष नष्ट हो जाते थे। आगे चलकर वह राजा उग्रसेन की पट्टरानी हो गई। किसी समय रानी के शील में आशंका होने से राजा ने उसे समुद्र में गिरवा दिया। किन्तु रानी के शील के माहात्म्य से देवों ने सिंहासन पर बिठाकर उसकी पूजा की।
(३) कौंडेश की कथा (ज्ञानदान में) कुरुमरी गांव के एक ग्वाले ने एक बार जंगल में वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रन्थ देखा। उसे घर ले जाकर उसकी खूब पूजा करने लगा। एक दिन मुनिराज को उसने वह ग्रन्थ दान में दे दिया। वह ग्वाला मर कर उसी गांव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देखकर जातिस्मरण हो जाने से उन्हीं से दीक्षित होकर मुनि हो गया। कालांतर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनि दीक्षा ले ली। ग्वाले के जन्म से जो शास्त्र दान किया था उसके प्रभाव से वे मुनिराज थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली हो गये। वे केवली होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। इसलिए ज्ञानदान सदा ही देना चाहिए।
(४) सूकर की कथा (अभयदान में) एक गांव में एक कुम्हार और नाई ने मिलकर एक धर्मशाला बनवाई। कुम्हार ने एक दिन एक मुनिराज को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। तब नाई ने दूसरे दिन मुनि को निकाल कर एक संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। इस निमित्त से दोनों लड़कर मरे और कुम्हार का जीव सूकर हो गया तथा नाई का जीव व्याघ्र हो गया। एक बार जंगल की गुफा में मुनिराज विराजमान थे। पूर्व संस्कार से वह व्याघ्र उन्हें खाने को आया और सूकर ने उन्हें बचाना चाह। दोनों लड़ते हुए मर गये। सूकर के भाव मुनि रक्षा के थे, अत: वह मरकर देवगति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से मरकर नरक में चला गया।